वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 298
From जैनकोष
पण्णाए घेत्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मंझ परेत्ति णायव्वा ।।298।।
प्रज्ञा दारा आत्मा का विशेष पद्धति से ग्रहण का उपक्रम―जैसे प्रज्ञा के बल से उसने निज तत्त्व में और परतत्त्व में भेद किया था, वैसे ही प्रज्ञा के बल से परतत्त्व को छोड़कर निज तत्त्व को सामान्यरूप से ग्रहण किया था, उस ही प्रकार प्रज्ञा के बल से अब उसका विशेष प्रकार से ग्रहण किस प्रकार होता है? इसका वर्णन इस गाथा में है । पहिले तो यह जाना था, यह समझा था कि मैं चेतता हूँ, और इस चेतने वाले को ही चेतता रहता हूं। जैसा षट्कारक रूप में इसका वर्णन है। चेतना एक सामान्य तत्त्व है, इसलिए चेतना के संबंध में जो वर्णन हुआ वह सामान्य रूप से आत्मा का ग्रहण रूप वर्णन है। अब उस चेतना का विशेष वर्णन करते हैं। चेतना के विशेष हैं दो―दर्शन और ज्ञान। जब सामान्य से उठकर विशेष की ओर आता है तो उन विशेषों में तारतम्यरूप से जो कर्म हों उसको पहले कह जाना चाहिए। चेतना के विशेष दो हैं―दर्शन और ज्ञान, किंतु इन दोनों में भी सामान्य कौन है? दर्शन। इसलिए इसके बाद दर्शन की बात कही जा रही है।
आत्मा का द्रष्टारूप में ग्रहण का उद्यम―प्रज्ञा के द्वारा ऐसा ग्रहण करना चाहिए कि जो द्रष्टा है वही मैं निश्चय से हूं, इसके अतिरिक्त समस्त भाव मुझसे पर हैं, इस तरह प्रतिभासना, द्रष्टा होना ज्ञाता होने की अपेक्षा सामान्य परिणमन है, और वह निर्विकल्प परिणमन है। जैसे दर्पण को हमने देखा―जिस दर्पण में कई पुरुषों की बच्चों की छाया पड़ रही है, प्रतिबिंब हो रहा है। हम उस समय केवल दर्पण को ही देख रहे हैं, पर दर्पण को देखते हुए हम दर्पण में बहिर्मुख संबंधी ज्ञान करते हैं, यह इस लड़के का चित्र है तो वह है ज्ञान का दृष्टांत। और उस छायारूप परिणत दर्पण में जिसकी छाया है ऐसी अपेक्षा न करके, ऐसा ज्ञान न बना करके जैसा परिणत हो वह दर्पण है उस प्रकार ही हम देख रहे हों तो वह दर्शन का दृष्टांत है।
आत्मा को ज्ञाता व द्रष्टारूप में देखने की दृष्टि―हमारी आत्मा में स्वपर प्रकाशकत्व है। हम परपदार्थों के संबंध में भी जानकारी रखते हैं, प्रतिभास करते हैं, और स्वयं का भी हमें कुछ निर्णय स्पर्श बना रहता है। इन दोनों बातों में से जब हम ज्ञेयाकार परिणमन की मुख्यता करके अपने स्वरूप से बहिर्मुखी वृत्ति बनाकर जब हम प्रतिभासा करते हैं तब तो है हमारा वह ज्ञातारूप, हां, इस ज्ञातारूप के मर्म में रागद्वेष का विकल्प न होना चाहिए। रागद्वेष की पकड़ से तो रहित हों किंतु जानन की पकड़ से सहित हों तो वह है ज्ञाता रूप, और जैसा कुछ हम अपने में परिणम रहे हैं उस रूप से परिणत अपने आत्मा को एक झलक में करना, उसको स्पर्श करना, यह है द्रष्टा का रूप ।
करना आतम काम था करन लगे कुछ और―भैया ! यह ज्ञानी पुरुष अपने आपको दृष्टा रूप में भा रहा है । कितना काम पड़ा है करने को अंतर में, इस प्रकरण को जानना । ये घर के झंझट, ये व्यवस्थाएं, प्रबंध, हिसाब, लोगों के ख्याल, ये सब मायारूप है जिसमें पड़े हो । पड़े बिना गुजारा भी नहीं चलता और पड़ना रंच भी न चाहिए । इस ज्ञानी गृहस्थ की ऐसी बड़ी मिश्र दशा है कि कभी वह अपनी इस काली करतूत पर सुखी होता है, इसको काली ही करतूत करना चाहिए वो उस अपने स्वरूप से चिगकर जहाँ लेनदेन नहीं, जहाँ कुछ संबंध नहीं, बात नहीं, हम ही खाली दीवालें बनाकर कल्पना करके अपने आपको पक कायर की भांति नपुंसक से होकर अपने आपमें अपना कालापन बना रहे हैं, मलीनता बना रहे हैं । यह करतूत हमारी काली है, स्वच्छ नहीं है, हितरूप नहीं है ।
सत्य ज्ञान का प्रवेश होने पर ही त्रुटि पर खेद संभव―सो भैया ! किसी इस ज्ञानी पुरुष को अपनी इस बहिर्मुखी वृत्ति पर खेद पहुंचता है, और यह खेद तभी पहुंचता है जब इस खेद करने वाले ने अपने अंतर में अपने स्वभाव और गुण के अनुभवन का अनुपम आनंद पाया हो, हर एक कोई बहिर्मुखी प्रवृत्ति पर खेद नही कर सकता है । त्रुति पर खेद नही कर सकता है जिसने सत्य आनंद लूटा हो । कोई किसी बड़े आदमी की पंगत भोजन करने जाये तो ऐसी आशा रखकर कि बड़े की पंगत है, वहां पर अनेक प्रकार के नवीन मिष्ट भोजन मिलेंगे और वहाँ खाने पर मिलें उसे केवल चने की दाल और रोटी तो वह वहाँ कितना खेद करेगा, जो इस आशा को लेकर खाने को गया हो । अरे कहा फंद में आ गए । इससे तो घर ही रहते तो चार रुपये की कमाई भी कर लेते और यह खा भी लेते । तो उसे मालूम है उन मिठाइयों का स्वाद जिनको वह अपने भीतर में ध्यान में रख रहा है । जब उसे नीरस वस्तु का खेद हो रहा है, इसी तरह आत्मा के चैतन्यस्वरूप का, अनुपम स्वरूप का जिसने अनुभव किया है, जिससे बढ़कर आनंदमय स्थिति और कुछ हो ही नहीं सकती है, ऐसे अनुपम स्वाधीन सहज आनंद के अनुभव में लगने वाला ज्ञानी गृहस्थ अपने इस बाह्यविषयक कल्पना की काली करतूत जानता है व श्रद्धा सही रखता है ये समस्त पर व परभाव मेरे नहीं है, ये मेरे स्वरूप से भिन्न है ।
आत्मा की दृशिज्ञप्ति रूपता―यह अध्यात्मयोगी अपने दर्शन गुण द्वारा अपने आपको कैसे ग्रहण कर रहा है, चेतन सामान्य से उठकर यह विशेष में आया है । चूंकि चेतना सामान्य चैतन्यात्मक है । कोईसा भी तत्त्व, कोईसा भी पदार्थ न केवल सामान्यरूप है और न केवल विशेषरूप है । यदि चेतना सामान्यविशेषात्मकता का त्याग कर दे तो इसका अर्थ यह हुआ कि चेतना ही नहीं रही । चेतना नहीं रही तो यह आत्मा जड़ हो गया । जड़ क्या हो गया ? आत्मा ही नहीं रहा । तो चेतना है दर्शनज्ञानात्मक । दर्शन ज्ञान का उल्लंघन करके चेतना अपना अस्तित्त्व नहीं रख सकता । इसलिए चेतना में द्रष्टापन और ज्ञातापन पड़ा हुआ है, और यह आत्मा का स्वलक्षण है । आत्मा द्रष्टा भी है और ज्ञाता भी है ।
व्यावहारिक व आध्यात्मिकता की गतिविधि―भैया ! दर्शन और ज्ञान में किसका नाम पहिले लेना ? किसका नाम बाद में लेना सो जहाँ व्यावहारिकता का संबंध है वहाँ ज्ञान को पहिले बोलना, दर्शन को बाद में बोलना, और जहाँ आध्यात्मिकता का संबंध है वहां दर्शन को पहिले बोलना और ज्ञान को बाद में बोलना । जैसे प्रभु अरहंत भी हैं और सिद्ध भी है । इनमें पहिले किसका स्मरण होगा, बाद में किसका स्मरण होगा ? व्यावहारिकता की भक्ति में पहले अरहंत का स्मरण करना और फिर सिद्ध का स्मरण करना । क्योंकि जो सिद्ध है उसका ज्ञान अरहंत की कृपा से हमें मिला है । इस प्रकार आत्मा में दर्शन है यह भी हमें ज्ञान की कृपा से मिला है, व्यावहारिकता में ज्ञान को पहिले कहना, दर्शन को बाद में कहना, किंतु परमतत्त्व की भक्ति के प्रसंग में सिद्ध का स्मरण पहिले होता है और फिर सिद्ध स्मरण में कुछ थकान आने पर अरहंत का स्मरण होता है । इसी तरह आध्यात्मिकता के योग में प्रथम दर्शन का प्रतिभास होता है और दर्शन के प्रतिभास में थकान आ जाने पर संस्कारवश न टिकने पर फिर ज्ञान की खबर तो लेना ही पड़ता है । तो इस रीति से इस प्रकरण में दर्शन और ज्ञान में से प्रथम दर्शन की बात कही जा रही है ।
दर्शनवृत्ति द्वारा आत्मग्रहण―मैं इस द्रष्टा आत्म को ग्रहण करता हूं । ग्रहण करना किसे ? कोई पिंड रूप तो यह आत्मा है नहीं । जो हस्तपादादिक अंग से या किसी इंद्रिय के द्वारा ग्रहण कर लिया जाये, सो ग्रहण करना भी क्या है जो मैं ग्रहण करता हूँ वह मात्र देखता हूँ । अपने आपके द्रष्टा को देखने मात्र का नाम ग्रहण करना कहा है । हाथ से ग्रहण करना तो और तरह होता है और आत्मा के द्वारा आत्मा को ग्रहण करना जानन देखन की पद्धति से होता है । देख लेना इसी मायने हैं ग्रहण कर लेना । मैं देखता ही हूं । यही मेरा पूर्ण ग्रहण है । मैं स्वयं देखता हुआ ही देखता हूँ । केवल देखते हुए ही देखता हूँ ।
दर्शनवृत्ति की इंद्रियानपेक्षता―यहां जो ‘देखना’ शब्द हिंदी का बोला जा रहा है उसका अर्थ आंखों से देखा जाना नही लगाना क्योंकि हम आंखों से देखा नहीं करते । लोकव्यवहार में बोलते हैं । आंखों से देखना बताना झूठ है क्योंकि आंखें है इंद्रियां, इंद्रियों के द्वारा सामान्य प्रतिभास कभी नहीं होता । विशेष प्रतिभास हुआ करता है । और विशेष प्रतिभास का नाम दर्शन नहीं है, ज्ञान है । जैसे हम कानों से कुछ जाना करते हैं, रसना से कुछ जाना करते हैं, नासिका से कुछ जाना करते हैं, इसी तरह आंखों से भी हम जाना करते हैं । देखा नहीं करते हैं किंतु लोक में आंखों द्वारा जानने देखने की प्रसिद्धि हो गयी है । सो ऐसा सुनने में कुछ अटपटसा लगता होगा । हम आंखों से कुछ भी नहीं देखते हैं, जाना करते हैं, काला, पीला, नीला, हरा, सफेद आदि रूप का जो जानन है वह श्रुतज्ञान है । काला को ही जानना, पर काला कहकर नहीं जानना सो आंखों के द्वारा जानना कहलाता है ।
नेत्रेंद्रिय द्वारा भी दर्शनवृत्ति की असंभवता―यह सुनकर आपको ऐसा लग रहा होगा कि इतना मी नियंत्रण किया कि काला को काला न जानना, सफेद को सफेद रूप से न जानना, अन्यथा यह श्रुतज्ञान है, सविकल्प ज्ञान है । आम लिया और काला, सफेद यह चित्त में विकल्प न करना, वह तो बहुत सामान्यसा ज्ञान बन गया, सामान्य प्रतिभास हो गया । अभी सामान्य प्रतिभास नहीं हुआ । आप अंदाज कर लो कि आंख के द्वारा जो हमने जाना, काला पीला कहकर नहीं, विकल्प उठाकर नहीं, जाना वैसा ही, पर विकल्प उठाकर नहीं । उस जानन से भी अत्यंत सूक्ष्म सामान्य प्रतिभास होता है, उसे कहते हैं दर्शन । जो आंख की करतूत से बहुत भीतर की बात है ।
दर्शन द्वारा ज्ञानबलग्रहण―अपने आपमें देखता हूँ, इस देखते हुए को देख रहा हूँ, ऐसा देखना सब जीवों के हो रहा है पर उस देखने के काम का विश्वास नही हो पाता इसलिए सम्यक्त्व के उन्मुख नहीं हो पाता । यह जीव जैसे कोई पुरुष जंपिंग करे, कूदे 4-5 फिट, दो डंडों में डोर लगा दी, दोनों डंडों को दो बच्चों को पकड़ा दिया, कूदने का कार्यक्रम रखा । दसों विद्यार्थी कूदने के प्रसंग में है । कोई चार फिट कूद लेता है कोई 5 फिट कूद लेता है । वे कूदते हैं, उनके कूदने की विधि तो जरा देखिए । उचककर कूदते हैं तो बल जमीन पर बहुत तेज देकर कूदते हैं । अरे उचकने में उन्हें ऊँचा ही तो उठना है, पार ऊँचा उठने से पहिले जमीन में सीधे बल क्यों देते हो? पर कोई करे ऐसा कि जमीन पर नीचे तेज बल दिए बिना ऊँचा कूदकर दिखाए । पक्षी भी तो लड़ते समय जमीन पर बल देते हैं । इसी प्रकार हम आपके बाह्य पदार्थों की ओर जानने की कूद करके ऊँचे उठते हैं । उस समय हम अपने आपमें उस कूद का बल पाने के लिए अपनी ओर झुक करके कूदा करते हैं । पर ऐसा झुकना सबको मालूम नहीं है । झुककर ही तो कूदते हैं । पर झुकने का ग्रहण नहीं है ।
ज्ञानवृत्ति में दर्शनवृत्ति का अपूर्व सहयोग―एक पदार्थ को जानने के पश्चात् दूसरे पदार्थ को जब हम जानते हैं अर्थात् पहिले पदार्थ की जगह से उठकर दूसरे पदार्थ पर अपन उठा करते हैं उस समय हम अपने आपकी ओर झुका करते हैं । उस ही का नाम दर्शन है और उस दर्शन की वृत्ति से हमें ज्ञान के लिए बल मिलता है । उस दर्शन की बात यहाँ की जा रही है ।
दर्शनवृत्ति की अभिन्नषट्कारकता―मैं देखते हुए को देखता हूँ, दर्शन की स्थिति में देखते हुए को देखता है, यह नहीं अनुभव रहे वे । यह तो ज्ञानी कह रहा है, तीसरा पुरुष कह रहा है, दूसरा पुरुष कह रहा है, जो दर्शन में परिणत हो वह द्रष्टा को देख रहा है, मैं खेलते हुए को देख रहा हूं । इस जानन की क्रिया में जो कुछ है वह मैं हीं हूँ । मैं देखते हुए के द्वारा देख रहा हूं । देखते हुए के लिए ही देख रहा हूँ । कहां से? इस देखते हुए से देख रहा हूँ । किसमें ? इस देखते हुए में देख रहा हूँ । ऐसे मात्र दर्शन सामान्यरूप परिणमन को आत्मा का ग्रहण कहते हैं ।
अभेद वस्तु में कारकभेद की जबर्दस्ती―यह ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा इस समय प्रज्ञा द्वारा दर्शन गुण के परिणमन रूप में अपने को ग्रहण कर रहा है । वहाँ वह इस प्रकार परिणम रहा है, ज्ञानी पुरुष की भाषा में उसकी वृत्तियां हो रही है कि मैं देखना हुआ उस देखते हुए को देखते हुए के द्वारा देख रहे के लिए देखते हुए से देख रहे में देख रहा हूं । पर यहाँ तो वह एक ही है और उसकी वृत्ति एक है । यहाँ हमारे कारक के प्रयोग का कोई अर्थ नहीं है ।
अभेद वस्तु में कारकभेद किए जाने का एक उदाहरण―जैसे कोई कहे कि यह कलई या चूना सफेद हो रहा है और सफेद हो रहा यह चूना सफेद हो रहे अपने को सफेद हो रहे के द्वारा, सफेद हो रहे के लिए सफेद हो रहे से सफेद हो रहे में सफेद करता है । बात तो यथार्थ है पर सुनने में यों लगता कि यह सब बकवास है । अरे वह है और सफेद है । इतनी तो बात है और उसको घुमाव फेर से क्या कहा जा रहा? है, कुछ भी नहीं कहा जा रहा है । अत: हम तो यह जानते हैं कि यह सफेद है । बस न यह सफेद को सफेद कर रहा है, न सफेद के द्वारा कर रहा है, न सफेद के लिए कर रहा है, न सफेद को कर रहा है । हमें तो स्थिरता से यह नजर आता कि यह सफेद है । और हो ही क्या रहा बवाल? कुछ भी नहीं ।
अभिन्न षट्कारकता से एक मात्र भावना समर्थन―इसी प्रकार इस दर्शन द्वारा आत्मा के ग्रहण में यहाँ कुछ नहीं हो रहा । न मैं देख रहा हूँ, न देखते हुए को देख रहा हूँ, न देखते हुए के द्वारा देख रहा हूँ, न देखते हुए की ओर देख रहा हूं? न देखते हुए से देख रहा हूँ, न देखते हुए को देख रहा हूँ किंतु सर्व विशुद्ध दृशि मात्र भाव, दर्शन भावमात्र सत् हूँ । इस प्रकार चेतना सामान्य की क्रिया से आत्मा के ग्रहण की बात बताकर, इस चेतन के विशेष में दर्शन गुण के द्वारा आत्मा के ग्रहण की बात बताकर अब ज्ञानगुण द्वारा आत्मा में ग्रहण की बात कहते हैं ।
आत्मा की ज्ञानप्रधानता―आत्मा में ज्ञान एक प्रधान गुण है । ज्ञान से ही सारी व्यवस्था है, ज्ञान से ही सब गुणों का अनुभव है, ज्ञान द्वारा ही हम सुखों को भोगते हैं । यदि आत्मा में सब गुण रह जायें, एक ज्ञान गुण न हो तो बहुत वे सब बेकार है, कुछ बात भी न बनेगी । ज्ञान न हो और हम सुख का अनुभव करें यह कैसे कर सकते है?
आत्मवृत्तियों की ज्ञानग्राहिता―बचपन की एक घटना हैं―कोई 6।। वर्ष का होऊँगा ? तो उस समय देहात में स्कूल न थे । एक पटवारी हमें पढ़ाता था, 12 आने महीना देते थे, सभी लड़के देते थे, जिससे मास्टर साहब का काम चल जाये । 15 दिन में एक दिन सीदा देते थे, यह रिवाज था और पढ़ने का रिवाज था कि पढ़ते जावो । यह पुस्तक खत्म कर ली तो अब दूसरी पुस्तक ले ली । दूसरी पुस्तक खत्म हो गयी तो तीसरी ले ली । यहाँ समय की कैद नहीं थी कि यह पुस्तक साल भर में पढ़ना है, पढ़ने वाला दो महीने में पढ़ ले । तो उस समय बड़ी विशुद्ध पढ़ाई का रिवाज था । एक दिन पाठशाला में कुछ लड़के पिटे, लड़कों को पिटता हुआ देखकर दूसरे दिन हमें भय लगा कि कही हमारे पिटने की नौबत न आए । सो उस दिन मैं पढ़ने न गया । तो उस समय का रिवाज था कि जो बच्चा पढ़ने न आए उसको लेने के लिए एक दो बच्चे भेजे जाते थे और अगर वह शरीर से वजनदार है तो चार बच्चे भेजे जाते थे । एक टांग पकड़े और एक हाथ पकड़े, पकड़कर ले चले यह पद्धति थी बच्चों को ले जाने की । अब हम न गये उस दिन, तो आ गए दो दूत । फिर भी हम न जायें, तो सुबह के समय पराठा और मक्खन का भोजन था, उसे बोलते हैं देहाती नाश्ता । नाश्ता करते में स्कूल की इनक्वारी करने पर मां ने मेरे मार दिया तो मैं रोता-रोता सोच रहा था कि यह काठ का खंभा जो आंगन में खड़ा है, जिसके सहारे मट्ठा की मथानी फिरायी जाती है कि यदि मैं यह खंभा होता तो आज पिटने की नौबत न आती, हम जो हुए सो बुरे हुए । इससे तो मैं यदि खंभा होता तो अच्छा था । पिटता तो नहीं ।
चेतना की विशेषता―ठीक है भैया ! नहीं पिटते अचेतन, पर में आनंद का अनुभव तो नहीं है―जैसे है तैसे हैं । दु:ख के साथ सुख है, टोटे के साथ लाभ है―तो क्लेश के साथ आनंद है । एक दृष्टांत में लगता तो ऐसा है कि हम यदि परमाणु सत् होते तो अच्छा था । काहे को चेतन सत् हुए अरे यदि मैं परमाणु सत् होता तो ज्यादा से ज्यादा कोई लोग मुझे जला डालते, चौकी आदि स्कंध मैं होता तो लोग जला देते । जला दो―जला देने पर मी इस अचेतन का क्या बिगड़ा? बिगाड़ तो है अपने इस चेतन तत्त्व का, लेकिन यह बिगाड़ कायरता की बात है ।
विश्व में प्रज्ञा का महत्त्व―विश्व में सर्वोत्कृष्ट पदार्थ चेतन है, जिसका बड़ा ऊँचा प्रताप है, जो अपने ज्ञान द्वारा सारे विश्व को अपने एक कोने में डाल लेता है । जिसमें समस्त विश्व जाना जाता है, उससे उत्कृष्ट चीज किसको बताया जाये । ऐसा यह ज्ञान गुण वाला आत्मा जब तक प्रज्ञा भगवती की प्रसन्नता नहीं पाता है तब तक संसार में जन्म मरण के चक्र लगाता रहता है । इस भगवती मजा का ही नाम―दुर्गा सरस्वती, चंडी आदि देवी देवतावों के नाम है । ये सब कोई अलग से ऐसे नहीं है, लक्ष्मी आदि समस्त देवियां कोई अलग से ऐसी नहीं बैठी है जैसी लोगों ने चित्रों में ढाल दी हैं । किसी को हाथी माला पहिना रहे हैं, किसी के पास हंस बैठा है, कोई गरुड़ पर सवार है, कोई अश्वमाला पहिने है, कोई जीभ निकाले हैं ऐसी देवियां कहीं बाहर नहीं हैं ।
कल्पना की असद्रूपता―भैया ! कल्पना के लिए तो किसी भींत के बड़े धब्बे पर यह ध्यान लगा लो कि यह हौवा आया । हौवा का ख्याल कर लिया तो वह हौवा उसके लिए बन जाता है, डरावना भूत बन जाता है । अंधेरी रात्रि में जिसके घर में कोई गुजर गया हो और उस गुजरे हुए को अपने मन में चित्रण करें तो ऐसा लगता है कि अरे यह भूत बनकर आ गया । तो आ गया भूत । कल्पना की बातें तो सारी बेढंगी चलती है ।
कल्पना से विडंबनायें―भैया ! भूत प्रेत वगैरह जो लोगों को लग जाते बनाते हैं उनमें 97 प्रतिशत तो सब या तो भ्रम की बात है या जानबूझकर बुद्धिमानी की बात है । भ्रम की बात तो यों है कि कल्पना में बैठाया है कि लो मुझे तो लग गया कुछ बस उसके लग गया । जैसे किसी ने अपनी जिंदगी में सुन रखा हो कि ईश्वर एक दो यमराजों को भेजता है इस देह से जीव को निकालने के लिए―तब यह मरता है मो मरते समय उसे यों ही दिखता है कि वह यमराज तलवार लिए है―सो वह डरता है, चिल्लाता है । सो इस तरह तो बहुत सी भ्रम की बातें है, वहां है कुछ नहीं । और बहुत सी चतुरायी की बातें है । जिस घर में दो तीन स्त्री हो अब किसी एक स्त्री का चला नहीं चलता ज्यादा तो भूत प्रेत का ढोंग बना लेती है । बाल भी बिखरे हुए हों, धोती फटकार कर तनिक घमघमाकर आ जाये, कोई रूपक बना ले―लो आ पाया भूत, बस वे एक दो स्त्रियां उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जायेंगी । अब नहीं बस चलता है कोई मानता नहीं हमारी तो इसी विधि से मनाना है । सो कुछ यों लग बैठा है ।
भगवान आत्मा और भगवती प्रज्ञा―सों कल्पना से यह जीव देवी देवतावों को कुछ न कुछ रूप में मान लेता है किंतु वे सब इस भगवती प्रज्ञा के रूप है । भगवती मायने इस भगवान आत्मा की शुद्धपरिणति । कहीं मास्टर मास्टरनी की तरह, बाबू बबुआनी की तरह भगवान और भगवती नहीं होते । भगवान तो एक शुद्ध ज्ञान का नाम है और शुद्धज्ञान की जो वृत्ति जगती है । उसका नाम है भगवती । लोग कहते हैं कि भगवान की भगवती आधे अंग में है । शिव का आधा अंग तो पुरुष है और भगवती स्त्री आधे अंग में है और चित्र भी ऐसा बना लेते हैं हि दाहिना अंग तो पुरुष का जैसा जानों । पुरुष जैसा एक पैर, पुरुष जैसा आधा पेट, वक्षस्थल और आधे अंग में एक टांग स्त्री जैसी, आधा पेट, वक्षस्थल आदि स्त्री जैसी । अर्द्धांग की कल्पना है । अरे भगवान की परिणति भगवती अर्द्धांंग में नहीं रहती है किंतु सर्वांंग में रहती है । जितने में भगवान है, उन सब प्रदेशों में यह प्रज्ञा भगवती है ।
भगवती दुर्गा―इस भगवती का नाम दुर्गा क्यों पड़ा―दुःखेन गम्यते, प्राप्यते या सा दुर्गा । जो बड़ी कठिनता से मिल पाये उसका नाम दुर्गा है । मालूम हैं―धन, कन, कंचन सभी सुलभ हैं पर कठिनता से मिल सकने वाली यह भगवती प्रज्ञा है । यही सत्य दुर्गा है । इसकी प्रसन्नता प्राप्त करें । प्रसन्नता के मायने मुस्करा दें सो नहीं, हाथ उठा दें सो नहीं किंतु प्रसन्नता का अर्थ है निर्मलता । प्रसन्नता का सही अर्थ है निर्मलता । प्र उपसर्ग है, सद् धातु है, कृत प्रत्यय लगा है फिर, तद्धित का ता प्रत्यय लगा सो प्रसन्नता बन गया । जिसका अर्थ है निर्मलता ।
प्रसन्नता का भाव―यदि कोई आपसे पूछता है कि क्यों भैया ! आप प्रसन्न है ना, तो उसने क्या पूछा कि आप निर्मल है ना? पर उत्तर क्या देता है वह कि हां मैं खूब प्रसन्न हूं, घर में चार पुत्र है, चार बहुवें है, इतने पोते हैं, खूब मौज है, खूब प्रसन्न हूँ । प्रश्न क्या किया कि तुम मोहरहित हो या नहीं । उत्तर उल्टा दिया उसने । पूछा कुछ, बोला कुछ वह बहिरों की बात है । पूछने वाला गी बहिरा, उसने भी सुन लिया ठीक है । जो कहता होगा सो ठीक है और यह सुनने वाला भी बहिरा है । रखने अपने मन माफिक जाता कि इसने यह ही पूछा होगा । शब्दों का अर्थ न जानने वाले बहिरों की ये बातें है । उसने पूछा कि तुम प्रसन्न हो ? उसने कहा हां खूब मौज है खाने का, पीने का, लड़कों का, पोतों का ।
बहिरों का वार्तालाप―एक छोटा सा कथानक है कि एक किसान बाजार से भुट्टा खरीदकर ले गया । लिये जा रहा था । रास्ते में एक खेत जोतने वाले बहिरे किसान ने उससे पूछा । वह किसान भी बहिरा और भुट्टा लिये जाने वाला भी बहिरा । सो किसान कहता है कि मैया राम राम । उसने जाना कि यह पूछता कि क्या लिए जा रहे हो तो उसने उत्तर दिया कि भुट्टा लिए जा रहें हैं । फिर उस किसान ने पूछा कि घरबार के बाल बच्चे अच्छे है ना ? उसने यह जाना कि यह पूछता है कि इनका क्या करोगे? सो कहता है कि सारों को भून कर खायेंगे याने भुट्टों को भून कर खायेंगे । तो देखो पूछना तो कुछ है और उत्तर कुछ देता है । तो यह तो बहिरों की बात है । प्रत्येक जीव प्रत्येक संकेत का, प्रत्येक शब्द का अपने मन माफिक अर्थ लगाकर तोष उत्पन्न किया करता है।
भगवती सरस्वती―भगवती प्रज्ञा के ये सब नाम है दुर्गा, सरस्वती आदि । सरस्वती का अर्थ हैं―सर: प्रसरणं यस्या सा सरस्वती । जिसका फैलाव हो उसको सरस्वती कहते हैं । सबसे अधिक फैलाव किसका है? ज्ञान का । देखो―मोटी चीज बड़ी होती है कि पतली चीज बड़ी है । क्या आप इसे बता सकेंगे ? दुनिया मानती है कि मोटी चीज बड़ी होती है । अभी कोई मोटी बुवा आ जाये तो बड़ी जगह घेरेगी, तो वह बड़ी हुई । पतली चीज पतली रहती है, पर बात उल्टी है । मोटी चीज हल्की होती है और पतली चीज बड़ी होती है । कैसे ? अच्छा देखो ।
स्थूल से सूक्ष्म की विशालता―पृथ्वी मोटी चीज है या पानी मोटी चीज है ? पृथ्वी मोटी चीज है और पानी पृथ्वी से पतली चीज है । तो पृथ्वी का विस्तार बड़ा है कि पानी का विस्तार बड़ा है ? आजकल के भूगोल के विद्वानों से पूछ लो तो वे भी बतायेंगे कि पृथ्वी का हिस्सा छोटा है और पानी का हिस्सा बड़ा है । पृथ्वी के चारों ओर पानी है । चाहे जैनसिद्धांत के वेत्तावों से पूछो । जंबू द्वीप एक लाख योजन का है और उसको घेरता हुआ समुद्र दो लाख योजन एक तरफ और दो लाख योजन एक तरफ है । यह उसका कितना बड़ा विस्तार है । और उससे दूना दूसरा द्वीप है उससे दूना दूसरा समुद्र है । इस तरह चलते-चलते अंतिम जो असंख्यातवां समुद्र है उसका जितना बड़ा विस्तार है उससे भी कम विस्तार असंख्यात समुद्र और द्वीपों का है । तो पृथ्वी से पतला पानी होता है । मोटी पृथ्वी पतले पानी में समा गयी ।
हवा की पानी से अधिक व्यापकता―और बतावो अच्छा, पानी पतला है या हवा पतली है? हवा पतली है । पानी जितने में फैला है वह सब हवा में समा गया । हवा उससे अधिक विस्तार वाली चीज है और आगे चलो―हवा पतली चीज है या आकाश पतला है बतावो आकाश पतला है तो इस अनंत आकाश के मध्य में ही सारी हवा समा गयी है ।
हवा, आकाश और ज्ञान की उत्तरोतर व्यापकता―अच्छा अब यह बतावो कि हवा पतली है या आकाश पतला है या ज्ञान पतला है ? ज्ञान में ये समस्त अनंत आकाश समा पाये हैं फिर भी ज्ञान भूखा बैठा है और कह रहा है कि ऐसे अन्य अनंत आकाश और हों तो उसकी थोड़ी सी भूख मिटती है । तब सबसे विशाल चीज क्या हुई ? ज्ञान । ज्ञान का फैलाव असीम है । इतने बड़े विस्तृत प्रदेश में हूं, उस परिणति का नाम सरस्वती है, न कि जैसे कि चित्र में दिखाया है ऐसी कोई जसवंतनगर के किनारे बैठी हुई सरस्वती नहीं है ।
भगवती चंडी―इस भगवती प्रज्ञा की प्रसन्नता चाहिए। फिर सर्व सिद्धि प्राप्त समझिए। इसके चंडी, मुंडी कितने ही नाम हैं। चंडी क्या? चंडयति, भक्षयति रागादि शत्रुन् इति चंडी। जो रागादिक शत्रुवों को खा डाले उसका नाम चंडी है। वह है यही भगवती प्रज्ञा। लोग कहते हैं कि गाय की पूंछ में ही तैंतीस करोड़ देवता बसे हैं। अरे गाय की पूंछ में ही क्या? ये सब असंख्यात देवी देवता पड़े हुए हैं घट-घट में, पर उनका स्वरूप जानो तो यथार्थ। सबके दर्शन होंगे अंत में।
भगवती काली―इस भगवती प्रज्ञा का नाम है काली। ‘कलयति, प्रेरणति शिवमार्गी भवानि इति काली’―जो जीवों को मोक्षमार्ग की प्रेरणा दे उसे काली कहते हैं। वही है भगवती प्रज्ञा। इसको ही कहते हैं मुंडी। ‘मुंडयति इति मुंडी।’ जो वैरियों का मल से मुंडन करे उसे कहते हैं मुंडी। वह चमत्कार इस भगवती प्रज्ञा में है। अन्य अनेक नाम हैं―चंद्रघंटा ‘अमृतस्रावणे चंद्रम् घंटयति इति चंद्रघंटा।’ जो अमृत बरसाने में चंद्रमा से भी ईर्ष्या करे उसको कहते हैं चंद्रघंटा अर्थात् अधिकाधिक अमृत बरसाये वह है चंद्रघंटा। वह चंद्रघंटा कहां मिलेगी? वह आत्मा में ही प्रज्ञा भगवती है जो अमृत बरसाती है।
भगवती प्रज्ञा का प्रसाद―भैया ! कोई कितना ही दु:खी हो, जरा ज्ञान को स्वच्छ बनाया और अपना वास्तविक रूप देख लिया―यह मैं सबसे न्यारा केवल चैतन्यमात्र हूँ । इतना दृष्टि में लें तो सही, फिर एक संकट नहीं रह सकता है । लेकिन कोई मोह की कल्पना में ही हठ लगाए रहे तो उस पर फिर क्या बस है ? दुःख है नहीं एक भी । पर हठ में अनेक झंझट बना रहे हैं, सो दु:खी हो रहे हैं । अब भगवती प्रज्ञा का प्रसाद इस जीव को प्राप्त होता है तब वह आत्मा और अनात्मा का परिचय पाता है, पश्चात् अनात्मा से उपेक्षा करता है और आत्मा को ग्रहण करता है । उस आत्मा के ग्रहण की यह चर्चा चल रही है । पहिले चेतना के रूप में कहा था, पश्चात् देखने के रूप में कहा और अब जानने के रूप में बात कही जाने वाली है । सो किस तरह से ज्ञान द्वारा ग्रहण करते हैं, यह बात अब कहेंगे ।