वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 299
From जैनकोष
पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा ।।299।।
ज्ञानवृत्ति द्वारा आत्मग्रहण―प्रज्ञा द्वारा अपने आपको इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि जो ज्ञाता है सो ही निश्चय से मैं हूं । ज्ञातृत्व भाव के अतिरिक्त अन्य समस्त जो भाव हैं वे मुझसे भिन्न है ऐसा जानना चाहिए । यह ज्ञानगुण द्वारा आत्मा को ग्रहण करने की बात कही जा रही है । ज्ञानमय आत्मा को ज्ञान से ज्ञानवृत्ति द्वारा ज्ञानरूप ग्रहण किया जाता है । मैं आत्मा को पाऊँ तो किस रूप पाऊंगा? ज्ञानरूप । तब मैं इस ज्ञाता आत्मा को ग्रहण करता हूं और जो मैं इस ज्ञाता आत्मा को ग्रहण करता हूं और जो मैं इस ज्ञाता आत्मा को ग्रहण करता हूँ वह मैं जानता ही हूँ और रूप ग्रहण नहीं करता । सो क्या जानता हूं । न जानता हुआ किसे जानूँगा ? क्या राग करता हुआ जानता हूँ ? नहीं ।
अभेद का भेदोपचार में मोटा लौकिक दृष्टांत―आत्मा को मैं जानता हूं। यह भेद गुण-गुण की अपेक्षा से किया जाता है कि आत्मा के ज्ञान है । जैसे हलुवा में क्या-क्या पड़ा है, क्या आप जानते हैं ? घी पड़ा है, मीठा पड़ा है, आटा है । अच्छा आप बने हुए हलुवे से घी अलग कर दें, शक्कर अलग कर दें, आटा अलग कर दें फिर हलुवा ले आइए, उसमें घी दूसरा डालेंगे, वह घी ठीक नहीं है । अरे उस घी पड़े हुए हलुवे मे घी भी हलुवा है, आटा भी हलुवा है और शक्कर भी हलुवा है । तो जिसका नाम हलुवा है, आटा भी हलुवा है और शक्कर भी हलुवा है । तो जिसका नाम हलुवा रखा उसकी बात देखो । जो केवल घी है, यह घी अलग मिल जायेगा, आटा अलग मिल जायेगा पर हलुवे का घी अलग न मिल जायेगा । हलुवा किसका नाम है जो हल-हलकर बनाया जाता है । उसको खूब घोटना पड़ता है, लगातार उसे चलाते ही रहना पड़ता है । चम्मच छोडकर नहीं बैठ सकते । उस हलुवे की बात कही जा रही है । तो लोक में परीक्षा कराने के लिए एक चीज में भी भेदव्यवहार किया जाता है ।
अभेद का भेदोपचार―इस प्रकार इस आत्मा के परिचय में भी भेद-व्यवहार किया जा रहा था, तो उस भेद कारक का व्यवहार यहाँ अभेद-कारकरूप से किया जा रहा है । पर ज्ञानीपुरुष को तो यह अभेदकारक भी पसंद नहीं है । सो बात आगे आयेगी । मैं जानता हूं । यह इनके अनुभव के समय की बात है और किसको जानता हूं? जानते हुए को ही जानता हूं । वहाँ और कुछ नहीं मिल रहा है, वह जानता हुआ आत्मा मिल रहा है । कोई कहे कि यह तो भव सरल बात है । करना धरना कुछ नहीं है । जानन आत्मा ही जानने यात्रा बन गया और सारी बातें अपने आप बन गयी । यह तो कुछ कठिन नहीं है । हां यह वृत्ति आ जाये तो कठिन नहीं है । मगर इतना ही तो कठिन है कि कोई इस वृत्ति में आ जाये ।
ज्ञातृत्व ही वास्तविक विजय―कोई बड़ा लड़ाकू बोला हमसे कौन लड़ेगा, उससे लड़ने के लिए कोई हिम्मत बना ले । सब पंचों में उसकी कुश्ती तय हो रही है । मगर वह एक शर्त रख रहा है कि देखो यह पहलवान जब अखाड़े में पहुँचे तब गिर जाये फिर उस पर विजय पाना तो हमारे हाथ की बात है । अरे तो गिर पड़े यही तो कठिन बात है फिर इसके आगे और विजय क्या करना हैं? यही तो विजय है । आत्मा का मात्र ज्ञातृत्व परिणमन बने इतनी ही तो विजय है । आत्मा में और करना क्या है ? अरे करना तो इसलिए पड़ रहा है कि हम उल्टा बहुत लंबे निकल गए हैं । वहाँ से लौटने के लिए ये व्रत, तप, संयम ज्ञान सारी बातें करनी है । उससे लौटने के लिए ये करने पड़ते हैं । पर करने को तो कुछ है ही नहीं । अपराध करते हैं तो हाथ जोड़ना पड़ता है । न करे कोई अपराध तो काहे का हाथ जोड़ना ? उल्टा जो हम परोन्मुखता में गए सो परोन्मुखता छोड़ने के लिए, अशुभ पर को छोड़ने के लिए शुभ पर का आलंबन करते हैं, पर आत्मा को तो स्वयं की वृत्ति में पर का शुभ, पर का आश्रय भी नहीं है ।
धर्मोद्यम का मर्म ज्ञातृत्व परिणमन―बड़ा समारोह एक प्रीतिभोज का किया जाये जिस सारे समारोह का टाइम 10 मिनट है, पर पहिले से कितनी तैयारियां की जाती है, सामान इकट्ठा करना, लोगों को बुलावा देना, सबको बुलाकर हाल में बिठाना, ये सब नटखट सिर्फ 15 मिनट के लिए है जिस समय मौज से खा रहे हैं खत्म काम । तो यह धर्म का जो समारोह है रोज का या किसी नैमित्तिक समय का जो समारोह है उसमें कुल काम पाव सेकेंड का है । करना बहुत कुछ पड़ता है सब कुछ उपदेश सुनते हैं, उपदेश करते हैं और मूर्ति के समक्ष प्रणमन करते हैं, पूजन करते हैं, चर्चा करते हैं, फल केवल इतना ही है कि हमारी ज्ञानवृत्ति का परिणमन रहे, निज की झलक आए । जिस समय यह मैं अपने आत्मा को ज्ञानवृत्ति से ग्रहण कर रहा हूँ उस समय कैसे परिणत आत्मा को ग्रहण कर रहा हूँ । जानते हुए को ग्रहण कर रहा हूँ । वह जाननरूप नहीं बर्त रहा हो तो ग्रहण में नहीं आ सकता ।
आत्मग्रहण में अभिन्नसाधनता―किस साधन के द्वारा मैं जानता हूँ । किस तैयारी के द्वारा मैं जानता हूं? तो जानते हुए की तैयारी द्वारा जानता हूं । वस्तुस्वरूप से परे बहुत आगे निकल जाने वाले व्यक्ति का लौटना किस प्रकार से हो रहा है? वह पहिले भेदकारक का व्यवहार करता फिर अभेदकारक का व्यवहार करता और फिर निज केंद्र में मग्न होता है ।
धारा का स्रोत में प्रवेश―समुद्र का पानी उठकर यहां वहां भटककर अंत में उसे शरण कहा मिलेगा ? समुद्र में ही मिलेगा । आताप के द्वारा समुद्र का पानी भाप बनकर उड़ा, बादल बन गया । बादल के रूप में छितरे बितरे रहकर जगह-जगह डोला―हजारों मील कहीं भटक आया, जब वे छितरे बितरे बादल अपना वनरूप समुदाय पिंड जिसे कहते हैं । आज तो काले बादल हैं; पानी अवश्य बरसेगा, घनरूप बनने के बाद फिर बरसते हैं और बरसकर, पृथ्वी पर आकर ढाल से पानी नदी में मिलता है, और वह नदी ढाल से चलकर समुद्र में मिलती है । लो समुद्र का पानी एक साल तक इधर उधर भटकता रहा फिर वहीं आ गया ।
निज के ज्ञान में ज्ञानघनता―परंतु भैया ! यहाँ तो इस ज्ञानानंदघन भगवान आत्मा का उपयोग अनादि से ही भटक रहा है । अनंतकाल व्यतीत हो गए, टक्करें खा रहा है, कहां-कहां गया ? इस लोक में ऐसा प्रदेश नहीं बचा जहाँ अनंत बार जन्म और मरण न हुआ हो । ऐसा भटकने वाला उपयोग अब कभी अपने को घनरूप बनाता है, जब छितरा था तब तो भटकता रहा, जब छितरे ज्ञान को घनरूप बनाता है तब ऐसा होता है कि अब ठिकाने लगा उपयोग । घनरूप बनकर यह उपयोग अब अपने देश में बरसने लगा, प्रदेश में बरसने लगा । अब वे धारायें विनय के रास्ते से, नम्र रास्ते से, निचले रास्ते से वहीं बहकर जिस ज्ञानानंद सागर से यह उपयोग निकला था उसी ज्ञानानंद सागर में उपयोग मग्न हो गया । अब शांति हो गयी । तो ऐसा मैं जो जानता हूं सो जानते हुए के द्वारा जानता हूं । जानते हुए की स्थिति का साधन न मिले तो यह आत्मा ज्ञान में नहीं आ सकता ।
अभिन्नसाधनता―भैया ! यही अभिन्न साधन हो गया ठीक है, पर ऐसा करने का प्रयोजन क्या है? सट्टे वाले सोचते हैं कि जैसा भगवान सब जानता है वैसा मैं जानता होता वही नंबर बोलकर मैं करोड़पति बन जाता । भगवान् तो भोलाभाला है, जान रहा है, करता कुछ नही है । करने का विकल्प तो उनके राग की बात है । कोई असलियत नहीं कर रहे । स्वानुभव के काल में जो मैं जानता हूं सो किसलिए जानता हूं ? जानते हुए के लिए जानता है । जानते भर पहने के लिए जानता हूं । अरे इतने में ही इतने बड़े काम का प्रयोजन चुका दिया क्या ? हां । इससे बढ़कर और कुछ आनंद या वैभव नहीं है । मोह भाव में लोग समझते हैं कि मैंने यदि परिवार अच्छा पा लिया तो सारा वैभव पा लिया, या कोई धन संपदा पा ली तो मैंने बहुतसी संपत्ति प्राप्त कर ली । खूब कमाया, खूब पाया, पर अंतर में देखो तो पूरा टोटे में रहा । बड़ा भी सेठ हो कोई तो भी उसकी आत्मा तो ज्ञानमात्र है, सूना है, पर से रहित है, और संपत्ति में जो प्रेम बसाया उसका टोटा इसके पूरा बना हुआ है ।
भिन्न प्रयोजन में क्लेश का उद्गमन―तो भैया ! क्या करना है ? जानना भर है । जानने से आगे बढ़े कि विपत्ति ही विपत्ति है । छोटा बच्चा जब तक जानने भर का प्रयोजन रख रहा है तब तक वह खुश मिजाज रहता है, जहाँ कुछ बड़ा हुआ और कुछ ग्रहण करने का प्रयोजन लग गया तो बीच-बीच में क्लेश होते रहते हैं । और जब बड़ा बन गया, गृहस्थ हो गया तब तो ग्रहण करने का प्रयोजन उसका और अधिक हो गया । तब सुख और चैन की क्षण बहुत कम रह पाता है । तो जानना भर यदि प्रयोजन रहे तो वहां आनंद है । वहाँ जानने के प्रयोजन से आगे बढ़े कि क्लेश ही क्लेश हैं । मैं जानते हुए के लिए जानता हूं ।
आत्मग्रहण में अपादान की अभिन्नता―यह जानन एक परिणमन है । यह जानन कहां से प्रकट हुआ ? इस जानते हुए से ही प्रकट हुआ है । पानी का स्रोत निकला है सो वह कहां से निकला है ? पानी भरी जगह से ही पानी निकला है । सूखे से तो पानी नहीं निकलता । भले ही ऊपर सूखा है मगर जहां से निकला है वह तो पानी का निकेतन है । वह जाननवृत्ति कहां से निकली है ? इस जानते हुए से निकली है, न जानते हुए से नहीं निकल पाती । यही अपादान है ।
अधिकरण की अभिन्नता―हां और मैं जानता कहां हूं ? इस जानते हुए में जानता हूँ । अपने आपमें अपने आपके स्वरूप देखने वाले को यह सब ज्ञात हो रहा है । जहाँ स्वरूप से भ्रष्ट हुआ, इंद्रियों से भीख मांगी और बाहर जानने में लग गए तो वहाँ इस मर्म की खबर नहीं रहती और यहाँ सच जान पड़ता है कि मैं कमरे में बैठा हूँ, इतने लोगों से कुछ कह रहा हूँ, प्रयोजन के लिए श्रम कर रहा हूँ । तो नाना भेद की बातें दृष्टिगोचर होने लगती है और ज्यों ही जिस क्षण अपने आपके इस एकत्वनिश्चयगत स्वरूप का दर्शन करते हों तो वहां वह अपने आपमें विश्रांत होने के उन्मुख होता है और जानता है―लो यह मैं इतना ही तो हूं, इतना ही तो कर रहा हूँ, इससे बाहर और कुछ मेरा परिणमन नहीं है । यह स्वानुभव में प्रवृत्त अंतरात्मा अपने आपको यों षट्कारक में ग्रहण कर रहा है ।
अभिन्न षट्कारक बताने का प्रयोजन एकमात्र स्वभवन का प्रदर्शन―अब और अंतर में चलिये, यहाँ यह अर्थ जो रखता है उस जानते हुए को जानता हूँ, जानते हुए में जानता हूं, अरे यह कुछ अलग बात है क्या ? ये तो सब कुछ हो ही नहीं रहे हैं । सिर्फ वहाँ ज्ञानमात्र भाव चल रहा है । अब और अंतर में प्रवेश करके यह ज्ञानी अपने आपको जान रहा है क्या कि मैं नहीं जानता हूं । कहां जानता हूं ? यह जाननभाव है, करने का क्या कम है ? मैं जानता नहीं हूं―वह तो जानन भाव है । मैं न जानता हूं, न जानते हुए के द्वारा जानता हूँ, न जानते हुए के लिए जानता हूं, न जानते हुए से जानता हूँ, न जानते हुए में जानता हूँ मैं तो एक सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र भाव हूँ । इस प्रकार यह अंतरात्मा जिसने कि पहिले स्वरूप परिचय द्वारा प्रज्ञा के प्रसाद से आत्मा को और विभावों को पृथक्-पृथक् कर देने के साथ प्रज्ञा के प्रसाद से रागादिक भाव बनने से हटकर एक चैतन्यस्वरूप आत्मा का ग्रहण कर रहा था और जैसे नये जोश में ऊँचा काम तुरंत कर लिया जाता है इसी प्रकार इस अंतरात्मा ने नये जोश में पहिले चेतन के सामान्य भाव द्वारा अपने आत्मा को ग्रहण किया था । अब कुछ समय बाद जोश जरा ठंडा हुआ तो चेतना के भेद में से दर्शन की प्रधानता से अपने आपको ग्रहण किया था । ठीक है । जोश में व जोश के ठंडे होने की स्थिति में यहाँ तीन प्रकार के ग्रहण आए । परंतु इन तीनों प्रकार के ग्रहणों के फल में पाया वही का वही आत्मा ।
चेतना में सामान्यविशेषात्मकता का अनतिक्रमण―इस तरह आत्मा के ग्रहण की बात कह कर अब शास्त्र प्रकरण करने के लिए अथवा ग्रहण-विषयक परिणतियों की विधियों को कुछ विशेष जानने के लिए एक प्रश्न किया जा रहा है कि पहिले चेतना सामान्य के द्वारा अपने-अपने आत्मा को ग्रहण किया था उसके बाद फिर ज्ञान और दर्शन की प्रमुखता को ग्रहण किया । सो यह चेतना दर्शन और ज्ञान के विकल्प का उल्लंघन क्यों नहीं करती है, जिस कारण चेतयिता को ज्ञाता और द्रष्टा रूप में उपस्थित किया । चेतना ही रह जाती । यहाँ दर्शन और ज्ञान के विकल्प उठना क्या अवश्यंभावी है? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर में यह बताते हैं कि भाई चेतना तो प्रतिभास स्वरूप है । जब समस्त वस्तुवों का यह न्याय है कि ये समस्त पदार्थ सामान्य विशेष का उल्लंघन नहीं करते तो यह सर्वोत्कृष्ट व्यवस्थापक चेतन किसी न्याय का उल्लंघन कैसे कर दे इस कारण चेतना भी सामान्यविशेषात्मक है । अब उसमें सामान्यरूप तो दर्शन है और जो विशेषरूप है वह ज्ञान है । इस तरह चेतना भी दर्शन ज्ञानविकल्प का अतिक्रमण नहीं करता ।
स्वभाव और स्वभावी की एकार्थता―आत्मा के ग्रहण के प्रकरण में प्रथम चेतयिता के रूप में आत्मा को पाया था, फिर उस चेतयिता के ग्रहण के बाद द्रष्टा और ज्ञाता के रूप में यह आत्मा ग्रहण किया गया है । यहाँ प्रश्न किया गया कि चेतयिता के रूप मैं आत्मा की प्राप्ति हुई, सो यह सब कुछ हो गया, फिर इसके बाद द्रष्टा और ज्ञाता रूप में उपस्थित करना क्यों आवश्यक हुआ ? उत्तर में बताया है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेषात्मक होती है । तो चेतना वस्तु भी सामान्यविशेषात्मक है और वस्तु स्वभावमात्र होती है । चाहे स्वभाव के दर्शन करें और चाहे वस्तु के दर्शन करें, दोनों एक बराबर है । स्वभावमात्र वस्तु होने के कारण स्वभाव भी सामान्यविशेषात्मक है । स्वभाव और स्वभावी ये दो कोई अलग चीज नहीं है । किंतु समझने के लिए स्वभाव और स्वभावी का भाव है ।
चेतना की सामान्यविशेषात्मकता के अभाव में अनिष्टप्रसक्ति―यह चेतना सामान्यविशेषात्मक है । यदि चेतना सामान्यविशेषात्मकता का उल्लंघन कर दे तो वह चेतना ही न रहेगी, वस्तु ही न रहेगा क्योंकि अच्छा ऐसा कोई मनुष्य बतलावो जो न तो इंसानियत रखता हो, और न जिसके हाथ पैर आदि भी हों, ऐसा कोई मनुष्य लावो अर्थात् सामान्य और विशेष से शून्य कुछ मनुष्य भी है क्या कुछ भी चीज है क्या ? नहीं, तो आत्मा भी सामान्यविशेषात्मक है । यदि सामान्यविशेषात्मकता न रहे तो चेतना ही न होगी और जब चेतना न होगी तो तब अपना जो असाधारण गुण है वह ही न रहा तो वह बन गया अचेतन । इस चेतन में चेतना तो रही नहीं, तब फिर हो गया अचेतन और चेतन रहा ही क्या जो अचेतन कहने के लिए ही मिले क्योंकि वह सामान्यविशेषात्मकता न रही, चेतना न रही तो चेतना का अभाव ही निश्चित है ।
चेतना की दर्शनज्ञानात्मकता की अनिवार्यता―अग्नि से गर्मी निकल जाये तो उसमें क्या दोष आ गया ? अग्नि ठंडी हो जायेगी और ठंडी क्या हो जायेगी, कहीं भी उसमें अग्नि न मिलेगी । गर्मी हो तो आग है और बुझा दिया, तब रह गया कोयला, अब उसे क्या कहेंगे? ईधन । इस लिए इन दोनों दोषों के भय से चेतना को दर्शनज्ञानात्मक ही मानना चाहिए । अब चेतना दर्शन ज्ञानरूप हो गयी तो जैसे चेतना की प्रमुखता से आत्मा का ग्रहण किया जाता था, अब दर्शन की प्रमुखता से और ज्ञान की प्रमुखता से आत्मा का ग्रहण होगा । इस ही द्रष्टा ज्ञाता को उक्त दो गाथावों में बताया गया है ।
द्वैतों में आद्यद्वैत का उद्भव―यह चेतना एक अद्वैत है, उसका ही स्वरूपत: सामान्य विशेषात्मकपना है । इस समय जरा यह तो देखो कि मूल में तो यह एक अद्वैत अपने स्वरूप मात्र यह तत्त्व है और जगत में तितरबितर यह कैसे फैला हुआ है, सो इसका बुनियादी कारण क्या ? देखिए जब बुरा होने को होता है तो अपना भला भी बुरा होने के लिए मदद देने लगता है । यह आत्मा मूल में अखंड एक चेतनस्वरूप हुआ । पर इसका स्वभाव स्वपर प्रकाशकपने का है ना, पर का प्रकाश भी करता है, पर का जानन भी किया करता है । तो लो अब अद्वैत हो गया । बड़ी विपदा, बड़ा विकार आ गया होगा; मगर यह अपनी सज्जनता, अपना यह स्वरूप उस बड़ी विपदा के लिए मूल बन गया । सबके लिए मूल नहीं बना, सिद्धभगवान भी स्वपर प्रकाशक है, पर वह आपदा नहीं बनता, पर जिनका बुरा होनहार है उनके मित्र, भाई भी उनके बिगाड़ में किसी रूप में कारण बन गए ।
अयोग्य उपादान में द्वैतस्वभाव से द्विविधावों का विस्तार―कल्पना करो यदि यह आत्मा उस पर को जानने का स्वभाव ही न रखता होता तो फिर रागद्वेष आदि विभाव का प्रसंग ही कैसे मिलता ? तो पर का जानना यद्यपि हमारा स्वभाव है पर जब हमारे नीचे दिन है तो यह हमारा परप्रकाश रूप गुण भी हमारे रागद्वेष परिग्रह के लिए एक मूलरूप भूल का सहायक बन जाता है । विश्लेषण किया जाने पर यहाँ भी यह ज्ञानवृत्ति बंध का कारण नहीं है लेकिन हम तो यह चाहते थे कि हम किसी पर के जानन का स्वभाव ही नहीं रखते । न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी । थोड़ा मिला रागद्वेष परिग्रह को यहाँ से मौका । यह पर को जानता है तो रागद्वेष परिग्रही के कुछ बन बैठा क्योंकि रागद्वेष का परिग्रहण पर को जाने बिना नहीं होता । सो यह अद्वैत चेतनस्वरूप आत्मा पहिले पर-प्रकाशक के रूप में द्वैत में बन गया ।
विकल्पधारावों का विस्तार―अब यह तो थी एक शुद्ध अंतर में शुद्ध द्वेतपन की बात, परंतु इसकी जड़ पर अब अशुद्ध द्वैतपना लद जाता है। फिर और अंतरंग बहिरंग कारण जुटने के साथ इस पर रागद्वेष का परिग्रहण हो गया। जब रागद्वेष का परिग्रहण हो गया तो कार्यकारक के द्वारा यह फल का भोगने वाला हो गया । मैं करता हूँ, मैं भोगता हूँ । अहो कहां तो केवल जगमग रहना काम था और कहां ये करने और भोगने के विकल्प आ गए । जहाँ पर भोगते हुए भी परपदार्थ भोगे नहीं जा रहे हैं । कौन विषयों को भोगना है ? भोगने का विकल्प बनाकर जीव भुगा जा रहा है । विषयों को कौन भोगता है ? विषयों को भोगकर विषयों का क्या बिगड़ा ?
नेत्र और श्रोत्र के विषय में भोक्ता का बिगाड़―मान लो भैया ! सुंदर सिनेमा, सुंदर रूप या सुंदर चित्र है और टकटकी लगाकर हमने अपनी आखें बिगाड़ लीं, पर उस वस्तु में भी कुछ बिगाड़ हुआ क्या ? रूप के भोगने में वहाँ तो कुछ बिगाड़ नहीं । बिगड़ गया यह भोगने वाला खुद । आजकल रेडियो चल गए है, जितनी बढ़िया तर्ज बड़ा खर्च करके भी सुन पाते वैसी तर्ज रेडियो का कान ऐंठते ही सुन लो । हो गयी सुविधा । रात भर का रेडियो स्टेशन का प्रोग्राम है मानो । सुनने वाला रात्रिभर संगीत सुनता रहेगा, अब वह सुनने वाला ही उससे बिगड़ जायेगा । रेडियो न बिगड़ जायेगा । सुनने वाले की नींद बिगड़ी, स्वास्थ्य बिगड़ा, समय बिगड़ा । इस तरह यह जीव ही बिगड़ जायेगा, रेडियो में कुछ खराबी न होगी ।
नाक, जीभ, त्वचा के विषय में भी भोक्ता का बिगाड़―इसी तरह नासिका इंद्रिय के विषय की बात है, इसी तरह रसना इंद्रिय की बात है । आप कहेंगे कि जब भोजन खाते हैं तो भोजन को, लड्डुवों को खाकर उनका बिगाड़ कर दिया । अरे उनका क्या बिगड़ा ? वे तो स्कंध हैं । यों गोल-मटोल न रहे तो मुँह में चूर-दूर हो गए और लार से लेकर पेट में पहुंच गया । अन्य रूप परिणम गया, कुछ बन गया । उस पुद्गल का क्या बिगड़ा ? क्या उस पुद्गल का सत्त्व नष्ट हो गया ? क्या उस पुद्गल के कर्मबंध हो गया? क्या उसमें कोई क्लेश आ गया ? कुछ भी तो आपत्ति उसमें नहीं आई । इसी तरह पंचेंद्रिय के विषयों के भोगने में विषय हैरान नहीं होते, विषयों का बिगाड़ नहीं होता । विषय नहीं भोगे जाते । खुद हैरान हुए, खुद का बिगाड़ हुआ, फिर इस स्थिति में कर्तृव्य और भोक्तृत्व की कल्पना में इसके समस्त प्रदेश खिन्न हो गए । अब यह जो क्रिया करता है उसी में ही उसे खेद होता है । जिसका उपादान खेद करने का है सो उसे कही बैठाल दें खेद ही उत्पन्न करेगा । जिसका उपादान क्रोध करने का है वह कुछ भी बाहर में संग्रह विग्रह कर लें, पग-पग पर क्रोध ही उत्पन्न करेगा । जिसका उपादान मानयुक्त है उसे कहीं भी बैठाल दे वह मान की ही बात करेगा ।
उपादान के अनुकूल उद्गम―एक सेठ जी के तीन लड़के थे, वे तीनों ही लड़के तोतले थे, और एक किसी अन्य सेठ के तीन लड़कियां विवाह के योग्य थीं । तो नाई भेजा कि देख आवो सेठ के लड़कों को । पहिले नाई ही लड़का पसंद करने जाया करता था । खवास जी ! वह कह दें कि लड़का अच्छा है तो सभी लोग उसकी बात मान कर विवाह कर देते थे । अब खवास जी पर विश्वास न रहा तो बाबा लोग देखने जाने लगे । जब लड़के के बाबा पर विश्वास नहीं रहा तो पिता और चाचा जाने लगे । जब पिता और चाचा पर विश्वास नहीं रहो तो खुद जाने लगे पसंद करने के लिए । तो पुराने जमाने की बात हैं―नाई गया देखने तो सेठ जी ने तीनों लड़कों को खूब सजा करके तीनों लड़कों को बैठाल दिया और कह दिया कि बोलना मत । अच्छी बात है । उन्हें खूब वस्त्र आभूषणों से सजाकर बैठाल दिया । लाइलोन का कपड़ा बहुत बढ़िया नहीं होता है और हमारी समझ के अनुसार जो छोटे चित्त के लोग होंगे वे ही लाइलोन को पसंद करेंगे । हमारी बात बुरी लगे तो बड़े आदमी छोड़ दे । हम तो जानते हैं कि लाइलोन छोटे चित्त वाले ही लोग पसंद करते हैं । सो अच्छी तरह के रेशमी कपड़े पहिना करके अच्छी गोल टोपी लगाकर तीनों को जड़ी पर बैठा दिया ।
अब आये खवास जी । देखा एक से एक बड़े अच्छे लड़के कितने सुंदर है, उनकी सुरत पर गुण ही टपक रहा है, धन्य है । आखिर बड़े सेठ के ही तो लड़के हैं । ऐसी प्रशंसा की बातें सुनकर एक लड़का बोला―ऊँ अभी टंडन मंडन तो लगा ही नहीं है, नहीं तो बड़े सुंदर लगते । दूसरा लड़का बोला―अबे डड्डा ने का कई ती, समझाया तो था कि चुप रहना, बोलना नहीं तीसरा लड़का बोला मुँह में अंगुली लगाकर कि टुप-टुप । नाई ने देख लिया ये सभी लड़के तोतले हैं । तो जिसका उपादान खोटा है वह कैसे अपनी खोटी वृत्ति छोड़ देगा? इस कारण खोट अपन सबमें है । किसी में कम किसी में ज्यादा, तो किसी समय हम दु:खी हों, किसी समय हमें किसी पर कोई कषाय लगे तो उस समय अपना ऐसा विचार करना चाहिए कि बाहरी बातों के संग्रह विग्रह से यह दु:ख मेरा मूल से न जायेगा । बाहरी प्रयत्न करने से हमारा क्लेश मूल से नष्ट न होगा । हमें ज्ञानबल बढ़ाकर अपने ही प्रदेश में अपने से ही कुछ बदलना है, करना है, खोट हटाना है तो बात बनेगी ।
आत्मदृष्टि वह्निकणिका और विपत्ति इंधन―सो देख लो भैया कि यह ज्ञानानंदनिधान भगवान आत्मा कैसे-कैसे इतनी बड़ी विपत्ति में आ गया ? आ गया, कुछ परवाह नहीं । जैसे ईधन का बड़ा ढेर है और उसमें अग्नि की कणिका धर दें तो सारा ढेर भस्म हो जायेगा । परवाह नहीं है । शहरों का जब कूड़ा बहुत जम जाता है तो छोटी-छोटी ठेलियों से कहां तक हटाएँ, ऐसा सोचकर साफ करने वाले लोग आग लगा देते हैं । दो चार घंटे में ही वह साफ हो जायेगा । इतनी बड़ी विपत्तियां आ गयीं, आने दो, कुछ परवाह नहीं । जिस ही काल में यह मेरा उपयोग विज्ञानघन आत्मस्वरूप में मग्न होगा कि सारी विपत्तियां भस्म हो जायेंगी । यह तो बात रही सुभवितव्यता की ।
व्यापक का अभाव होने से व्याप्य का अभाव―अब स्वरूप दृष्टि पर जो कि प्रकरण की बात है अब आये । यह चेतना यद्यपि एक अखंड-अखंड अद्वैतरूप है फिर भी यह दर्शनज्ञानात्मक है, सामान्यविशेषात्मक है । यह चेतना यदि सामान्य विशेषरूप का त्याग कर दे तो चेतना तो अस्तित्त्व ही खो देगी । जब चेतना का अस्तित्त्व मिट गया तो चेतना में भी जड़ता आ गयी । सारे चेतनों में व्यापक है चेतन । तत्त्व का अभाव होने से साध्य चेतन कहा रह सकेगा इसका भी विनाश होगा । इस कारण यह निश्चित है कि यह चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप है । यह कथा किसकी हो रही है ? आखें खोलकर बाहर देखकर नहीं बताया जा सकता है । इंद्रियों को संयत करो, कुछ अंतर्जल्प करके अंतरंग में देखें तो यह कथा खुद की ही कही जा रही है ।
चिन्मात्र प्रभु की भक्ति―इस चेतन मुक्त आत्मा का एक चिन्मात्र भाव ही है, अन्य कुछ नहीं है याने इस मुझ आत्मा का केवल एक चैतन्यस्वरूप ही है, इसके अतिरिक्त यहाँ ही उत्पन्न होने वाला औपाधिक अंतर का भाव भी मेरा नहीं है, फिर प्रकट धन वैभव सारे परिवार आदि की तो बात ही क्या है ? लोग कभी-कभी खुश हो जाते हैं मनचाहा धन मिल जाने पर, मनचाहा कार्य सिद्ध हो जाने पर । अव्वल तो हां मनचाहा कुछ नहीं होता क्योंकि एक काम मनचाहा हो गया तो दूसरा मनचाहा और चित्त में खड़ा हो जाता है और हो भी गया मनचाहा तो इस एक मनचाही बात के हो जाने से कौनसा वैभव पा लिया ? वह तो बाहर की ही चीज है । जिसने अपने सनातन अहेतुक इस चिन्मात्र भाव को ही अपनाया है, मैं तो मात्र इतना ही है, अपना ले यह अंतरंग से जिसकी पहचान है कि बाह्य विषय परिग्रह सब नीरस लग जावें, ऐसी अपने अंतर की बात अपना ले तो वह है तीर्थकर का परमभक्त ।
परभाव की हेयता―भैया ! जिनेंद्रदेव ने बताया है कि मोह त्यागो और अपने स्वरूप में समा जावो, इसका अभ्यास जो करता है वह ही है तीर्थंकर देव का परमभक्त । मेरे एक चैतन्यमात्र भाव के अतिरिक्त अन्य जो कुछ भाव है वे परपदार्थ के हैं, वे मेरे कुछ नहीं है । घर में ही लड़का यदि एक कुपूत हो जाये, बेढंगा हो तो माता कहती है कि मेरा लड़का नहीं है । तो यह लड़का बाप का है । बाप बोले कि यह लड़का मेरा नहीं है, यह तो इसका है । तो कहो दोनों में लड़ाई हो जाये । उस लड़के को न मां अपना मानना चाहती है और न बाप अपना मानना चाहता है । इसी प्रकार ये रागादिक भाव मेरे नहीं है, ये तो जिनके निमित्त से हुए है उनके भाव है । मेरे लिए ग्राह्य तो एक चिन्मात्र भाव है, बाकी नैमित्तिक परभाव सर्व ओर से हेय है । एक इस चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व का ग्रहण करो ।
सिद्धि का मूल शुद्धदृष्टि―भैया ! दृष्टि यदि शुद्ध है तो नियम से सर्वसिद्धि होगी । दृष्टि यदि निर्मल नहीं है, आशय यदि खोटा है तो बाहरी दिखावट से, बनावट से, सजावट से कहीं अंतरंग शांति न हो जायेगी । कोई बुद्धिमान् लोग ऐसे होते हैं कि है तो दुःखी मगर दिखाना पड़ता है दुनिया को कि हम सुखी है । कोई व्यापार आदि में टोटा पड़ जाये तो उससे अंतर में तो वह दुःखी मगर ग्राहकों को, और लोगों को यदि यह जता दिया जाये कि हम बड़े दुःखी है तो उसके तो व्यापार पर भी धक्का लग जायेगा । सो वह कहता है कि मुझे कुछ परवाह नहीं, हो गया होने दो । ऊपरी बनावट से अंतरंग में कुछ वहां बात न बनेगी । ज्ञानबल से अपने भावों को पवित्र बनाएँ तो सर्व कल्याण है ।