वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 39
From जैनकोष
नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते ।
चित्स्वाभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।
- 1.अध्यात्मनाट्य―आत्मा की पर्यायों की सन्तति एक नाटक है । इन नाटकों के करने वाले ही देखने वाले हैं । वही करने वाला है, वही देखने वाला है । जब इस नाट्यसभा के आत्ममंच पर ज्ञान उपस्थित होता है, उस समय ज्ञान उपस्थित होते ही नाटक देखने वाले इन अज्ञानी भोले संसारी जीवों को यकायक विश्वास उत्पन्न करा देता है । जैसे―आप लोगों ने कभी-न-कभी नाटक देखा ही होगा । जब नाटक हो रहा हो, उस समय कोई अन्याय अत्याचार का सीन चल रहा हो, तब उस अन्याय को समूल विनाश करने वाला जब मंच पर उपस्थित होता है, उस समय दर्शकों को आह्लाद हो जाता है । जिस समय नाटक में यह प्रसंग चल रहा हो कि धवल सेठ श्रीपाल के प्रति ऐसा अन्याय करने वाला है, उस समय दर्शकगण चिन्तित और आकुलित हो जाते हैं, स्टेज पर रक्षा करने वाला देव उपस्थित होता है, उस समय दर्शकगण हर्ष से गद्गद् हो ताली बजाने लगते हैं और चाहते हैं कि इस अन्यायी सेठ को शीघ्र दण्ड दे डाले तो अच्छा है । उसी प्रकार जब मोह का नाटक चल रहा था, ज्ञान सामने आया तो उसने सभासदों को विश्वास उत्पन्न कर दिया । क्या मैनासुन्दरी नाटक में रक्षक देव ने स्टेज पर आते ही रैनमंजूषा के ही शोक को दूर किया? नहीं अपितु रैनमंजूषा के साथ-साथ उस दृश्य को देखने वाले उपस्थित सभासदों को भी आह्लादित किया । जब यह ज्ञान नाट्यभूमि में सामने आता है, उसकी झलक देखकर ही दर्शकों को विश्वास जग जाता है कि अब मोह का नामोनिशां न रहेगा । जब ज्ञान सामने आया तो जीव अजीव के भेद की प्रबल दृष्टि के द्वारा ज्ञान के पहचानने वाले सन्तों को विश्वास हो गया कि हमारी रक्षा तो हो गई । इस अध्याय में वर्णित आशंकाओं के हल करने में यह ज्ञान ही सर्वत्र काम देता है । शिष्य अनेक बातों को आचार्य के सामने रखकर प्रश्न करता है कि महाराजे जो शुभ, अशुभ भाव उत्पन्न होते हैं, इनके उत्पन्न होने की जो सूक्ष्म सन्ततियां हैं, वह क्या आत्मा होगा? शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है कि महाराज, क्या यह आत्मा होगा, क्या यह आत्मा होगा? तब आचार्य परभावों का निषेध करते हुए परम पारिणामिक शुद्ध भावों को सिद्ध करेंगे ।
2. ज्ञानपात्र के आते ही आततायी मोह के हौसले समाप्त―वह ज्ञान नाट्यभूमि पर उपस्थित हुआ तो आते ही उसने उपसर्ग के बन्धन ढीले कर दिए, केवल विश्वास ही नहीं दिलाया, अपितु उस मंच पर रहने वाले आततायियों के भी हौसले बिगड़ गए और दर्शकों को भी प्रसन्नता हुई । जिस प्रकार से अन्याय को दूर करने वाला पात्र स्टेज पर उपस्थित होता है, तो आततायियों के हौसले ढीले हो जाते हैं, उसी प्रकार जब यह ज्ञान नाट्यभूमि पर आया तो अनादिकाल से बँधे हुए इन कर्मों के तो हौसले बिगड़े और दर्शक अपन लोगों को आनन्द आया । जीव अजीव के विवेक की पुष्कल दृष्टि के द्वारा सभासदों का विश्वास दिलाता हुआ ज्ञान प्रकट हुआ, तब स्टेज की शोभा बड़ी, आततायियों के हौसले बिगड़े और स्टेज पर चमत्कार-सा भी छा गया । इसी प्रकार यह मोह आत्मा पर अन्याय करता आ रहा था और भी बड़े उपद्रव हो रहे थे । इस पर मोह बड़ा भारी अन्याय कर रहा था, ऐसी स्थिति में जब स्टेज पर ज्ञान आया, कुछ विशुद्धता जंचने लगी, दर्शकों को कुछ शान्ति मिली, दर्शकों को आनन्द आया और बन्धनों के हौसले बिगड़े । इस प्रकार श्रीमत् अमृतचन्द्र सूरि ने बड़े कलात्मक ढङ्ग से इस बात का विवेचन किया है । देखिये कीमत होती है किसी अवसर पर बात बनने की । जब मोह इस आत्मा को परेशान कर रहा था, गुणों को विकृत कर रहा था, ऐसे समय पर मंच पर ज्ञान आता है, ऐसे समय की कितनी बड़ी कीमत है? उस समय पहली बार आत्मा में ज्ञान उत्पन्न होता है, उस समय आत्मा में जितने कर्मों की निर्जरा होती है, इतने कर्मों की निर्जरा किसी समय नहीं होती है । ज्ञान होते ही सारा अनन्त संसार कट गया, यह कितनी बड़ी निर्जरा है बाद में इतने कर्मों की निर्जरा नहीं होती है, रह भी तो थोड़े से जाते । जब यह ज्ञान इस आत्मस्टेज पर प्रकट हुआ तो एक साथ तीन बातें प्रकट हुई―स्टेज पर चमत्कार, आक्रान्ताओं के बन्धन ढीले होना और सभासदों को विश्वास होना । इतनी ही बात नहीं । आत्मारूपी बगीचे में झक्कारे को उत्पन्न करता हुआ यह ज्ञान प्रकट हुआ । किसी आक्रांता पर जब कोई आक्रमण करता है उस समय यह आनन्द होता ही है ।
3. नित्य उदित ज्ञान―यह ज्ञान स्टेज पर आज आया । परन्तु था वह पहिले से ही नित्य अन्त: प्रकाशमान । जैसे वह देव अभी आया ही था, वैसे वह था वहाँ पहिले से ही । अत: उसको देखते ही दर्शकों को आनन्द प्राप्त हुआ था । जिस ज्ञान नायक के देखने पर जनता को अपार हर्ष हुआ और मोह के होश उड़ गए, वह था पहिले से ही, किन्तु देखा गया अब । जैसे मैनासुन्दरी का नाटक चल रहा है, जब वह स्टेज पर आती है, उस समय दर्शकों में बड़ी उमङ्ग पैदा होती है, ऐसी उमङ्ग के शेष सीनों के देखने पर नहीं होती । नाटकों की नायक जब सामने उपस्थित होता है, उस समय सीन बड़ा ही आकर्षक होता है । यह ज्ञान आत्मा के गुणों से मुख्य हैं, नायक हैं । जब-जब आत्मा में ज्ञान आता है, तब-तब पारिषदों की उमङ्ग ही और हो जाती है । किसी भी नाटक के नायक में 3 गुण होते हैं:―धीर, उदात्त और अनाकुल । तुम्हें जो चीज दिखानी होती है, उसकी महिमा से सम्बन्धित महिमा को करने वालो नायक होता है । मैनासुन्दरी ने रोग होने पर भी कितनी सेवा की, यह उसकी उदारता थी । उसी प्रकार जब यह ज्ञान आत्ममंच पर उपस्थित होता है, उस समय वह धीर है, अनाकुल है और उदात्त है । उसने सभी को छोटों को भी (मन को भी) प्रसन्न कर दिया । ज्ञान ने आत्मा को तो प्रसन्न किया है । मन केवल विषयों से प्रसन्न होता हो, यह बात नहीं, अपितु यदि यह, आत्मा सत्पथ में चले तो वह अनुपम प्रसन्न रहता है । जब यह ज्ञान प्रकट हुआ तब इसने स्टेज पर क्या-क्या कार्य किये―वह विलास करता है । ज्ञान को इस समय कोई कष्ट नहीं हो रहा है । किन्तु दर्शकों की बड़ी विपत्तियाँ दूर हो गईं महान् आक्रांताओं―मोह, राग, कषायों को विनष्ट किया । ज्ञान को इसमें तनिक भी परिश्रम नहीं करना पड़ा । ये सारी बातें ज्ञान की सीधीसादी मुद्रा से ही प्रकट हो गई । अत: कहा गया है कि यह ज्ञान का विलास है । विलास मानें जिस कार्य के करने में तनिक भी कष्ट न हो और कार्य हो जाये । यह ज्ञान यहाँ प्रकट हुआ । इस अधिकार की पहली गाथा में आचार्य महाराज इस ज्ञान की छत्रछाया में रहकर दूसरों को सम्बोध रहे हैं:―
अप्पाणमयाणंता मूढा हु, परप्पवादिणो केई ।
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविंति ।।39।।
4. अज्ञानी की अध्यवसान में आत्मत्व की मान्यता―आत्मा को न जानने वाले व पर को आत्मा कहने वाले ही मूढ़ पुरुष अध्यवसान को ही जीव कहते हैं तथा कितने ही मूढ़ कर्म को ही जीव प्ररूपित करते हैं । अधि=आत्मा में जो कुछ भी निश्चय कर लिया जाता है उसे कहते हैं अध्यवसान । यह अध्यवसान शब्द सर्व विभावों को अविशेषतया सूचित करने वाला है अथवा विभावों को वासना को अध्यवसान कहते हैं । यह पर्यायमुग्ध प्राणी अध्यवसान को व और भी अन्य भाव व द्रव्यों को, जिनका वर्णन इस प्रसंग में चार गाथाओं में है, आत्मा मानता है । क्यों इन सबको आत्मा मानता है यह ? इसलिए मानता है कि उसके उपयोग में आत्मा का असाधारण लक्षण तो आता ही नहीं, इसलिए आत्मा के तथ्य को समझने में क्लीव है, अयोग्य है, अतएव वह अपने में गुजरने वाले विभावों में मुग्ध हो गया, विमूढ़ हो गया । अब वह तात्त्विक आत्मा को न जानता हुआ नाना प्रकार के परपदार्थ व परभावों को आत्मा बकता है । उनमें से एक मूढ़ यह है जो अध्यवसान को आत्मा बता रहा है । इसका मंतव्य है कि नैसर्गिक राग, द्वेष से कल्माषित जो अध्यवसान है वह जीव है । इसकी दृष्टि में रागद्वेष का पुंज ही यह जीव है तभी तो इसे राग-द्वेष नैसर्गिक दिख रहे हैं । इन राग द्वेषों से मलीमस जो भीतरी निश्चय है, संस्कार है, वासना है वह ही जीव हैं । ये मोही लोग परपदार्थ को आत्मा समझने वाले हैं, सो आत्मा को न जानते हुए अध्यवसान और राग द्वेष कर्म आदि को जीव कह बैठते हैं । जीव से अपरिचित कोई नहीं है । कोई आत्मा से किसी रूप में परिचित है, कोई किसी रूप में । यह मैं हूँ, शरीर मैं हूं―ऐसे ज्ञान में कुछ विवेक तो आया । दो बात तो कह दी, सो ऐसा नहीं । इसे देखते ही मैं हूं―यह प्रतीति होने में मोह का जकड़ाव हुआ । यह मोह उन्हें क्यों बना? इसलिए कि उन्हें जीव की पहिचान तो थी ही नहीं । जो गेहूं और कूड़ा को समझ नहीं पाया, उसके लिए कूड़ा भी गेहूं है और सारा गेहूं भी कूड़ा है । इन गाथाओं में आगे अनेक और सूक्ष्म भी आशंकायें होंगी । तीव्र और मंद जो आत्मा में गुण हैं, वह तो आत्मा होगा, यहाँ तक शिष्य प्रश्न करेगा ।
5. अध्यवसानात्मवादिता―जो जन आत्मा को नहीं जानते, पर को आत्मा कहते हैं वे पुरुष जीव को किस-किस रूप में निरखा करते हैं, इसकी चर्चा इस गाथा में की है । जो पर को आत्मा मानते हैं वे अपने ज्ञायकस्वभाव से भिन्न अन्यत्र दृष्टि ही तो रख रहे हैं । आत्मा में उत्पन्न होने वाले जो अध्यवसान भाव हैं, रागद्वेषादि से कलुषित जो कुछ आत्मा का परिणाम है उस परिणाम को ही जीव मानते हैं । अपने बारे में यह कल्पना तक भी नहीं जगती कि मैं एक विशुद्ध ज्ञानमात्र हूँ और उसी कारण न यह कल्पना जग सकती―मैं एक विशुद्ध ज्ञानमात्र प्रकट भी हो सकूँगा । उनके मत में कुछ नहीं । और कदाचित मोक्ष का नाम भी तो लें, यों समझिये कि जैसे भोगभूमिया, स्वर्ग; यह नाम ले लिया जाता है कि इसमें बड़ा सुख है तो इससे कुछ और ऊँचा सुख मोक्ष में है, इतनी तक बुद्धि रहती है । ऐसी उनको, अध्यवसान में आत्मा की प्रतीति हुई । जैसे कि कोयले में कालापन । कोयले का कालापन जैसे अलग नहीं किया जा सकता, कोयला और कालापन एक है, कालिमा से भिन्न कोयला और कुछ नहीं प्राप्त होता है । इसी प्रकार अध्यवसान से भिन्न कोई आत्मा अलग प्राप्त नहीं होंता । यों निज सहज ज्ञायकस्वभाव से अपरिचित बाह्य भाव में ही भटकने की आदत रखने वाले मूढ़ अज्ञानी जन अध्यवसान को आत्मा मानते हैं ।
6. अज्ञानी की कर्म में आत्मत्व की मान्यता―अब दूसरा विमूढ़ महानुभाव कहता है कि कर्म ही जीव है, कर्म से अतिरिक्त कोई जीव नहीं है । देखो भैया ! क्या इसने, अत्यंत सूक्ष्म इस पौद्गलिक कर्म का अवगम कर लिया? नहीं, उसको लक्ष्य करके यह ऐसा नहीं कह रहा, किंतु यत्किमपि कुछ तो कर्म के नाम पर मान रहा है । वह उसी विकल्पित कर्म को आत्मा मान रहा है । जिस कर्म को यह मोही जीव जीव मान रहा है उसे यह अनादि अनंत समझता है । अनादि अनंत समझे बिना किसी को जीव माना ही नहीं जा सकता, क्योंकि अपने को अध्रुव कोई नहीं मानता । अध्रुव को भी आत्मा माने तो उसे ध्रुवत्वरूप से अंगीकार किए बिना आत्मा नहीं मान सकता । अनादि अनंत जिसके पूर्व और अपर अवयव हैं ऐसे एक संसरण रूप क्रिया से खेलता, लीला करता, विलास करता, जो कर्म है वही जीव है । इसे भी ऐसा ही दिखता कि जैसे कृष्णता से अतिरिक्त कोई अंगार फंगार कुछ नहीं, इसी तरह इस कर्म से अतिरिक्त आत्मा फात्मा और कुछ नहीं है । ज्ञानचेतना का अनुभव न कर सकने से कितने ही मोही जीव किस किसको आत्मा मान बैठे हैं, कोई अध्यवसान को आत्मा कहता है तो कोई कर्म को आत्मा कहता है ।
7. कर्मात्मवादिता―कोई कोई पुरुष कर्म को ही आत्मा मानते हैं । कर्म का नाम सब लेते हैं―दैव, भाग्य, विधि, तकदीर, कर्म आदिक शब्दों से प्राय: मनुष्यव्यवहार करते हैं, लेकिन सही पता कर्म का भी नहीं है अज्ञानी जीवों को । जैसे सही पता नहीं अपना, इसी प्रकार कर्म का भी किसी भी परतत्त्व का भी पता नहीं होता । हाँ इतना अवश्य वे अज्ञानी जन कर्म और तकदीर के बारे में अंदाजा रखते हैं कि कोई कर्म है जो मुझे सुखी करता, दुःखी करता, जन्म देता, मरण कराता । इतना भी ज्ञान हो तो थोड़ा वहाँ भी भेद आ गया । कर्म कराते हैं, मुझे कराते हैं । किंतु ऐसा अज्ञान गहरा पड़ा हुआ है कि इतना भी भेद नहीं है । उनकी दृष्टि में तो जो कर्म है सो ही मैं हूँ । कर्म से भिन्न और कुछ मैं नहीं हूँ ।
8. अध्यवसान व कर्म की सकलानात्मत्व प्रतीकता―इस गाथा में एक ऐसा सामान्य कथन आ गया कि जितने भी आत्मा के बारे में भूलें बतायी जायेंगी उन सबकी दशा इन दो में समा गयी । जो अपने से संबंधित हैं, आत्मा के प्रदेशों में होने वाले जो कुछ भी परभाव हैं जिसे कि यह अज्ञानी आत्मा मानेगा, उसका तो अंतर्भाव हो गया अध्यवसान में और जो परतत्त्व हैं जिन्हें यह आत्मा मानेगा उन सब पर का प्रतीक यह कर्म है । यों अज्ञानी जीव अध्यवसान और कर्म को आत्मा समझता है । अध्यवसान शब्द से शब्दार्थ की दृष्टि से यह भाव निकलता है कि जो मुझमें नहीं है, जो मेरे स्वरूप में, स्वभाव में पाया नहीं जाता, उससे अधिक किसी भाव का निर्णय रखना आत्मस्वरूप के रूप में इसको अध्यवसान कहते हैं । अधि + अवसान । अपने स्वरूप से अधिक अवसान अतिरिक्त भाव में ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसे निश्चयरूप विकल्प को अध्यवसान कहते हैं, उनमें जो भी परिणाम आत्मा के स्वभाव से अतिरिक्त हैं वे सब अध्यवसान कहलाते हैं । आत्मा में आत्मा का स्वभावत: परिणाम है चेतन । उस चेतनभाव से अतिरिक्त जो परिणाम है, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय-कषाय आदिक, वे सब अध्यवसान कहलाते हैं । उन अध्यवसानों को यह मूढ़ जीव आत्मा मानता है । यह मैं हूँ, इसी कारण अध्यवसान भाव में जब कभी कोई विघ्न सा आता है तो उस समय इसे बड़ी हैरानी होती है । यह अपनी हानि समझता है और अध्यवसान की तरक्की में अध्यवसान के लगाव में संतोष मानता है । इसी प्रकार कर्म के संबंध में भी कोई तो इस सागररूप में जो चल रहा है ऐसे भाव को आत्मा मानकर संतुष्ट होता है और कोई सुने हुए कर्म तकदीर दैव आदिक नाम से जिनका परिचय दिया है बुद्धि के अनुसार उन्हें आत्मा मान करके संतुष्ट होता है । ये सब परात्मवादी जीव हैं जो कि अजीव को जीव मानते हैं ।
9. अज्ञानी को शांतिनिधि ज्ञानचेतन का अपरिचय―ज्ञानचेतना वह स्थिति है, जिसमें रागादि विकल्पों का अनुभव नहीं होता है । निर्विकल्प जानना निजचैतन्य तत्त्व को ही मैं देखता हूँ और करता हूँ, इस प्रकार का अनुभवनमात्र ही ज्ञानचेतना है । ज्ञान के विकल्प को ज्ञानचेतना का अविरोधी भाव कह सकते हैं । विकल्प दो प्रकार के होते है―(1) ज्ञान का विकल्प और (2) राग का विकल्प । जगत में जो जैसे पदार्थ हैं उस तरह का प्रतिवेदन हो जाना जानने का विकल्प कहलाता है । ज्ञान का विकल्प ज्ञान का लक्षण है । राग का विकल्प आत्मा का लक्षण नहीं है । राग का विकल्प ज्ञानचेतना में बाधक है । स्नेह, मोह होना भी ज्ञान चेतना में बाधक है । ज्ञान का विकल्प सभी आत्माओं के साथ चलता है । राग का विकल्प मोह और राग में चलता है । जितने काल ज्ञानचेतना की अनुभूति रहती है, उतने काल उपयोग बदलता याने विषम होता नहीं है । अत: वह उपयोग भी निर्विकल्प है । जीव का साथी ब्रह्मज्ञान है । आत्मा का ज्ञान होना, यह स्थिति जीव का मित्र है । इसके अतिरिक्त दुनिया में अपना कोई साथी नहीं है । मोह में ऐसा विश्वास हो जाता है कि पुत्र, मित्र, कलत्र आदि सब मेरे हैं, मेरे आज्ञाकारी हैं और मेरा कल्याण करने वाले हैं । परंतु उस मोही को यह मालूम नहीं कि वे सब स्वतंत्र पदार्थ हैं, उनका परिणमन उनमें ही होता है, उनका परिणमन मेरे में नहीं हो सकता है । उनके स्वार्थ में जब कोई बाधा आती है, फिर कोई ध्यान नहीं ला है । अपनी निर्विकल्प परिस्थिति में स्थित आत्मा आत्मा में ही रमे तो इस जीव का आत्मा स्वयं साथी है । पर के स्मरण से, कभी कहीं शांति नहीं मिलेगी, शांति मिलेगी तो अपने ही आप में मिलेगी । सर्वत्र चले जाओ, आपके लिये आप ही जिम्मेवार हैं । इस जगत में मेरे सिवाय मेरा कुछ नहीं है । ऐसी वस्तु की स्थिति है । जो धन के झुकाव में है, उसे क्लेश ही क्लेश है । जो अपनी ओर झुका हुआ है, उसे शांति, संतोष व धैर्य है ।
10. ज्ञानी जीव के ज्ञानचेतना―यदि यह विश्वास हो जाये कि मैं अमुक का कर्ता हूँ तो जीव की ज्ञानचेतना छूट जायेगी । यदि ऐसा मिथ्या विश्वास नहीं है तो जीव की ज्ञानचेतना ज्यों की त्यों बनी रहती है, उसका लेश भी नहीं बिगड़ता है । यदि कोई यह प्रतीति करे कि मैं पर का स्वामी हूँ, पर का कर्ता, भोक्ता हूँ तो उसकी ज्ञानचेतना नष्ट हो जायेगी । परंतु जब तक यह आत्मा अपना विश्वास सही रखता है तब तक उसे कैसे परबुद्धि कहा जा सकता है । यदि यह ज्ञानी पर का भी ज्ञान व राग करे तो भी इसकी ज्ञानचेतना लुप्त नहीं होती । जो आनंद अपने अनुभव में है, वह आनंद संसार के सब संग्रहों में भी नहीं है । प्रश्न―ऐसी स्थिति में जब कि सम्यग्दृष्टि बाह्य की स्थिति में है, तो क्या जीव के उपयोग में बाह्य अर्थ नहीं होता है? समाधान-―ज्ञानोपयोग का स्वरूप ही ऐसा है, ज्ञानोपयोग की महिमा ही ऐसी है कि निश्चय से वह केवल स्व का प्रकाशक है, पर का नहीं । व्यवहार से वह ज्ञानोपयोग स्व और पर दोनों का प्रकाशक है । कभी-कभी सम्यग्दृष्टि का उपयोग बाह्य में भी जाता है, परंतु उसका उस समय भी आत्मा की ओर उपयोग है, अत: उसे बाह्य में आसक्ति नहीं रह सकती है । सम्यग्दृष्टि जीव के सम्यक्त्व के माहात्म्य से सम्यक्त्व उत्पन्न रहता है । सम्यग्दृष्टि के ज्ञान में एक प्रकार की ऐसी विशुद्धता आ जाती है कि उसको विपरीत विश्वास बनाये भी नहीं बनता । जैसे किसी से कहा जाये कि तुम एक मिनट को मान लो यह चीज हमारी नहीं है, मिथ्यादृष्टि कहेगा कि कैसे मान लें कि यह चीज हमारी नहीं है, किंतु ज्ञानी में इसके विपरीत होता है । देखो, दोनों में कितना अंतर है? अत: ज्ञानी न स्व के विषय में और न पर के विषय में उल्टा विश्वास करता है । ज्ञानी के भी विश्वास है कि मेरी संपत्ति मेरे लिए ही है, मित्र के लिये नहीं है । और करता है मित्रों से अनुराग । सम्यग्दृष्टि जीव के विश्वास भी रहे और पुत्र में राग भी रहे तो क्या ऐसा नहीं हो सकता है? उल्टी बात जिस दिन आ पड़ेगी कि यह पुत्रादि के बिना कुछ नहीं है, उस दिन ज्ञानचेतना नष्ट हो जायेगी ।
11. सम्यक्त्व का लाभ―जब तक सम्यक्त्व है, तब तक क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक सम्यक्त्व के लाभ प्राय: एक से हैं । उपशम सम्यक्त्व की अंतर्मुहूर्त स्थिति है । क्षायिक सम्यक्त्व की संसार में 33 सागर स्थिति है । क्षयोपशम सम्यक्त्व में सूक्ष्म चलादि दोष हैं । इतना ही अंतर है । जिस प्रकार जिस समय आत्मा अपने विषय में उपयोग करता है, उस समय आत्मा का आत्मज्ञान कहलाने लगता है और आत्मा प्रेय हो जाता है, वहाँ पर भी वह स्व को जानता है । पर में उपयोग हो तब भी वह स्व की प्रतीति से च्युत नहीं होता है । प्रेय वहां पर वही खुद होता है । जैसे देहातों में बच्चे खेलने चले जाते हैं, रात होने पर घर आना ही पड़ता है । जब वे खेल में थे, तब भी उनकी प्रतीति थी कि हमारा घर यहाँ नहीं है, परंतु उपयोग खेल में था, यदि उनकी प्रतीति ही नष्ट हो जाती तो उनको घर की याद आना ही नहीं चाहिये थी । यही बात सम्यग्दृष्टि जीव के हैं, प्रतीति बनी रहती है और उनका उपयोग अन्यत्र रहता है । सम्यग्दृष्टि के राग होता रहता है, परंतु उनके प्रतीति ऐसी है कि हमारा राग नहीं है । जैसे कोई किसी के मर जाता है, उसको प्रतीति तो बनी रहती है कि यह हमारा कुछ था ही नहीं, परंतु आँसू तो बहाने ही पड़ते हैं । वैसे ही इस ज्ञानी आत्मा को प्रतीति तो बनी रहती है कि रागादि अब मेरा नहीं है, मेरे स्वरसत: उत्पन्न नहीं हुआ है तथापि उस प्रकार के उपादान निमित्त का ऐसा ही मेल है कि कर्मोदय उपाधि को निमित्तमात्र करके यह मलीमस योग्यतावाला जीव रागादिरूप परिणम जाता है । जीव का स्वभाव रागादि नहीं है तब बाह्य पदार्थ जो रागादि भाव के विषय पड़ते हैं वे जीव के क्या हो सकते हैं? आत्मा पर से राग नहीं करता । आत्मा पर को क्या रंगेगा, चाहे निज को जानो या पर को, परंतु जिनका यथार्थ विश्वास है, उनका आशय शुद्ध ही है । आत्मा पर को जाने या स्व को जाने―इससे आत्मा में कोई बिगाड़ नहीं है, परंतु आत्मा में प्रतीति बदलने पर हानि होती है । विपरीत श्रद्धा होने पर अधिक हानि कुछ न हो तो उत्कर्ष भी नहीं होता है । जानने में कुछ भी आओ, यदि उसमें उपराग अथवा उपयोग नहीं है तो आत्मा का उससे कोई बिगाड़ नहीं है । अपनी उपयोग भूमि को निर्मल बनाना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य है ।
12. वस्तुस्वातंत्र्य के श्रद्धान से ही जीव का कल्याण―हे आत्मन् ! तू चाहता तो यह था कि मैं सदा निराकुल रहूँ, परंतु तुझे विपरीत श्रद्धा हो गई, अत: तू दुःखी हो रहा है । अत: सुख पाने के लिए तू इन सातों तत्त्वों को तो देख । सातों तत्त्वों के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है । मोक्ष मार्ग के विपरीत तत्त्वों पर आत्मरूप व हित रूप श्रद्धा करने का नाम मिथ्या दर्शन है । हे आत्मन् ! तू अपने से विपरीत तत्त्वों में श्रद्धा न कर । जैसा जो पदार्थ है उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, विपरीत श्रद्धा करना मिथ्या दर्शन है । मेरा कोई कुछ नहीं है, ऐसी श्रद्धा करने में आनंद मिलेगा । क यदि यह बात श्रद्धा में आ गई कि निज का निज है और पर का पर है तो आत्मा का कभी कोई बिगाड़ नहीं होना है । प्रत्येक पदार्थ केवल अपने आपकी परिणति से ही परिणमता चला जाता है । यदि तुम अपना जीवन सत्य की श्रद्धा के अनुकूल बनाओ तो तुम्हारा जीवन ठीक चलेगा । तुम्हारा किसी ने कुछ नहीं किया । सबकी दुकानें अलग-अलग चल रही हैं, वे ही ग्राहक हैं, वे ही विक्रेता है, उसी में से उनको माल मिल जाता है, उसी में से माल चला जाता है―ऐसी दुकान सबकी अपनी-अपनी चल रही है । ऐसी प्रतीति करो कि सारे संसार में मैं स्वतंत्र एक हूँ । सबसे अपरिचित रहकर भी अपने आपमें परिणमता रहता हूँ । यह भी हमारा भ्रम है कि यह मुझे पहिचानता है । किसी के द्वारा कोई पहिचानने में नहीं आता है । ऐसे अपरिचय में रहकर यह आत्मा अपने आपमें परिणमता चला जा रहा है । अपने आप में इसका उपयोग जम जाये तो इस जीव का कल्याण हो जाए । ज्ञाता का स्वभाव जानना है । हम और आपका ज्ञान इतना कमजोर है कि अपने ज्ञान में इष्टानिष्ट कल्पना कर लेते हैं । परंतु इससे श्रद्धा में कोई विशिष्ट गुण हानि नहीं होती है । जितना भी बंध होता है वह प्रतीति के अनुसार होता है । आपका विश्वास आपके अनुसार नहीं हो पाया तो चाहे कितनी भी तपस्या करते रहो, सब व्यर्थ है । बंध को रोकने वाला आत्मा का स्पर्श याने अनुभव ही है ।
13. अध्यवसान में जीवत्व की प्रतीति का मूल अज्ञान―यहाँ आत्मा के असाधारण लक्षण न जानने वाले एवं पर को ही आत्मा समझने वाले एक पर्यायमुग्ध की मान्यता बताई जा रही है कि वह अध्यवसान से पृथक् कोई आत्मतत्त्व ही नहीं मान रहा है । उसका यह ठोक बजाकर कहना हो रहा है कि अध्यवसान ही जीव है । क्योंकि इससे अतिरिक्त अन्य कोई जीव पाया ही नहीं जाता, जैसे कि कृष्णता (कालिमा ) से अतिरिक्त अन्य कुछ अंगार है ही नहीं । यह दृष्टांत भी इस चतुर ने कितना बढ़िया दिया है जिसमें अपना सारा भाव झलका दिया । अथवा यहाँ अन्य कोई कहने वाला है ही नहीं, सो श्री पूज्य अमृतचंद जी सूरि का कौशल देखो । अमृतचंदजी सूरि सम्यग्दृष्टि, स्वानुभावी महापुरुष थे । तभी मिथ्यात्व में हो सकने वाली गलतियों का भी ठीक-ठीक वर्णन व उदाहरण दे रहे हैं । सुलझा हुआ ही पुरुष उलझन व सुलझनों को यथार्थ प्रतिपादन कर सकता । पर्यायमूढ़ प्राणी मिथ्यात्व का यथार्थ वर्णन क्या करेगा? वह तो बेहोश है । देखो यहाँ अंगार द्रव्यस्थानीय है और कृष्णता विकारस्थानीय है । मूढ़ की मान्यता है कि जैसे कृष्णता से अतिरिक्त अंगार कुछ नहीं है इसी तरह अध्यवसान से अतिरिक्त आत्मा कुछ नहीं है । अंगार को बुझाकर देख लो कालिमा मिलेगी, सो जलते अंगार में भी कालिमा के अतिरिक्त कुछ नहीं है । कोयला के सारे पर्दे खोल लो, धो-धो करके देख लो, कलिमा से अतिरिक्त कुछ नहीं है । अंगार जलते को भी कहते हैं, बुझे को, अधजलते को भी कहते हैं । कहीं भी देख लो, कालिमा से अतिरिक्त वह कुछ नहीं । सो जैसे कृष्णता के सिवाय अंगार फंगार कुछ नहीं, इसी तरह अध्यवसान के अतिरिक्त आत्मा-फात्मा कुछ नहीं, ऐसी विभावमूढ की मान्यता है । वह खुलासे में इस तरह नहीं कह पाता किंतु झुकता इसी कुतत्त्व की ओर है ।
14. ज्ञानविकल्प से सम्यक्त्व की क्षति का अभाव―सम्यक्त्व में बाधा ज्ञान के विकल्पों से नहीं आती है । ज्ञान का विकल्प मायने चीज ज्ञान में आना । चीज के ज्ञान में आने से सम्यक्त्व को क्षति नहीं पहुंचती हैं । सम्यक्त्व की क्षति यही है कि या तो सम्यक्त्व मिट जाये या संवर और निर्जरा की हानि हो जाये । आत्मा में रागद्वेष कषायायि भी होते रहें, मगर इनसे सम्यक्त्व की हानि नहीं होती है । यह बात जरूर है कि राग-द्वेष मोह के आत्मा में परिणमन से आत्मा का विकास रुक जाता है, रागादि आत्मा के विकास को नहीं होने देते, उसमें बाधक होते हैं―परंतु सम्यक्त्व को इनके होने से कोई हानि नहीं पहुँचती है । कषाय भी सम्यक्त्व का नाश नहीं करती हैं । कषाय होती रहें, बार-बार होती रहें, यह परंपरा सम्यक्त्व के नाश का कारण बन सकती है, वहाँ भी उनसे सम्यक्त्व में बाधा नहीं पहुंची । विपरीत अभिप्राय से ही सम्यक्त्व की क्षति हुई । रागादिक बाधक अवश्य हैं आत्मोत्कर्ष में । यहाँ तो केवल स्वरूप की दृष्टि रखकर वर्णन हो रहा है कि राग चरित्र गुण का विकार है, वह सम्यक्त्व का विपक्षी नहीं । केवल सम्यग्दर्शन ही आत्मा के उत्कर्ष का कारण नहीं है, अपितु चारित्र भी तो आत्मा के सुविकास के उत्कर्ष में कारण है । कितने ही जीव जो विपरीत अभिप्राय में पड़े हुए हैं, वे कहते हैं―अध्यवसान ही जीव है । रागद्वेष आदि विभावों से कलुषित परिणमन अध्यवसान कहलाता है । रागादि परिणामों से सम्यक्त्व का नाश नहीं होता, इनसे चारित्र की क्षति है । सम्यक्त्व के कारण जो संवर निर्जरा होती हैं, वह रागादि के होने पर भी होती रहती है । सम्यक्त्व के रहने पर राग का रहना एक दोष है । परंतु राग चारित्र पर आक्रमण करता है, सम्यक्त्व का घात नहीं कर सकता है । आत्मा में जो रागादि परिणाम पाये जाते हैं उन्हें अध्यवसान कहते हैं, रागादि भाव बुद्धिपूर्वक हों या अबुद्धिपूर्वक हों, समझमें आते हों या न आते हों―रागादि से कलुषित जो परिणाम है, उसे अध्यवसान कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अध्यवसान के जीव मार्ग बैठा है । क्रोध मान-माया-लोभ-राग-द्वेष, मद मोह भय करते हुए उन्हें यह प्रतीति रहती है कि यही ( क्रोधादि) मैं हू । उसके आगे पीछे रहने वाला भी कोई है, यह भी उन्हें खबर नहीं रहती है । सम्यक्त्व में चैतन्यमात्र की ही प्रतीति होती है, रागादिक परिणाम मैं हूँ, यह प्रतीति सम्यक्त्व में नहीं होती है ।
15. चिद्भाव की प्रतीति होने पर भी रागादि की संभावना पर शंका समाधान―शंका-―आत्मा में चैतन्य की प्रतीति होने पर रागादि कैसे हो सकते हैं? समाधान―जैसे जब किसी का कोई इष्ट गुजर जाता है, वह भोजन भी करता है, सोता भी है, परंतु प्रत्येक समय इष्ट की ओर चित्त रहता है । भोजन करते हुए भी उसे इष्ट की प्रतीति है, लेकिन भोजन भी करता ही है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के प्रतीति तो चैतन्य स्वभाव की है, कदाचित् आत्मा में रागादि भाव भी आये, परंतु उनसे आत्मा का विशेष बिगाड़ नहीं है । आत्मा का बिगाड़ है तो विपरीत अभिप्राय से है । वह राग जिस समय घनिष्ठ हो जाये कि विपरीत अभिप्राय उत्पन्न करने लगे तो सम्यक्त्व में तब बाधा होती है । रागादि भाव चार जाति के होते है―(1) अनंतानुबंधी, (2) अप्रत्याख्यानावरण, (3) प्रत्याख्यानावरण, (4) संचलन । अनंतानुबंधी राग तो मिथ्यात्व को पोषता है, संसारबंधन कराता है । शेष राग उपभोग के हेतु तो है परंतु संसार-बंधन नहीं कराते अर्थात् मिथ्यात्व को नहीं पोषते । अनंतानुबंधी राग आदि परिणाम विपरीत अभिप्राय के उद्भावक ही हुए, लेकिन सम्यक्त्व का बाधक विपरीत अभिप्राय ही है । ऐसा संबंध होने से अनंतानुबंधी भी सम्यक्त्व की घातक हुई ।
16. मोह में रागद्वेषकल्माषितभाव में जीवत्व की कल्पना―राग-द्वेष-मोहादि जो अध्यवसान है, उनमें ही मानना कि यही मैं हूँ, यही विपरीत अभिप्राय है । राग भी विपरीत अभिप्राय है, परंतु राग मिथ्याश्रद्धा नहीं है । स्वरूप पर दृष्टि दो?, राग मिथ्या श्रद्धा नहीं । राग राग है, राग चारित्र गुण का विकार हैं, परंतु वह मिथ्या श्रद्धा रूप नहीं हैं । जीव का स्वरूप अध्यवसान मानने पर मुक्ति कैसे हो? कोई कहता है कि अध्यवसान ही जीव हैं । जैसे हमको उसने ऐसा क्यों कह दिया? ऐसा विषाद किया तो इसमें रागद्वेष रूप परिणमन ही “हम” हैं, यह श्रद्धा निश्चित समझी गई । असमानजातीय व्यंजन पर्याय ही उसका हम हैं । रागद्वेष से कलुषित जो परिणाम है, वही जीव है, ऐसी मोहियों की कल्पना है । वे कहते हैं, जैसे कोयले से कालापन अलग नहीं है, उसी प्रकार राग-द्वेष-मोह से अलग आत्मा है ही क्या? अत: राग द्वेष होना ही तो जीव है । कोई लोग कहते हैं कि रागादिक मल के रूप से ज्ञान होना ही जीव है । जैसे अंगारे से “कालापन” कोई अलग चीज नहीं है, इसी तरह आत्मा से भिन्न राग-द्वेष-मोह नहीं हैं और रागादि से भिन्न आत्मा नहीं है । अत: मैं जानता हूँ कि रागादि परिणाम ही आत्मा है । एक बार देहली में जब हम थे तो किसी आचार्य श्री सूर्यसागरजी महाराज से जिक्र किया कि―“राग द्वेष आत्मा से कतई नहीं छूटते हैं और राग-द्वेष के मंद पड़ने पर मोक्ष हो जाता है ।” यद्यपि प्रश्नकर्ता ने यह प्रश्न हंस करके किया, परंतु यह जंचा कि उन्हें यह प्रतीति है कि आत्मा से रागद्वेष कभी छूटते नहीं हैं । जब रागादि अत्यंत कम हो जाते हैं, यही मोक्ष है । उनकी ऐसी प्रतीति बनी थी, अतएव वे इस भूल पर भ्रष्ट हो गए ।
17. स्वभावभान के बिना पर्यायबुद्धि का विलास―ज्ञानस्वभाव की झलक बिना पर्यायबुद्धि ही रहती है । उस अवस्था में यही श्रद्धा हो जाती है कि रागादि से अलग जीव है ही नहीं । सम्यक्त्व के लिए हानि यही है और यही सम्यक्त्व का दोष है । राग द्वेष भाव सम्यक्त्व के दोष नहीं हैं, और न ज्ञान के विकल्प ही सम्यक्त्व के दोष हैं । सम्यक्त्व का दोष, सम्यक्त्व का पूर्णतया विनाश हो जाना या कुछ क्षति हो जाना ही सम्यक्त्व का दोष है । संवर निर्जरा न होना, यही सम्यक्त्व का दोष है । यह तो सम्यक्त्व का सीधा दोष है । पापबंध की अपेक्षा पुण्यबंध भी कम होने लगना यह भी सम्यक्त्व का दोष है । सम्यक्त्व के रहते जो बंध होता है, वह विशेषत: पुण्यबंध है । यदि पृष्ठबंध की कदाचित् कमी हो जाये और पापबंध हो जाये, एतावतापि भैया ! सम्यक्त्व में कोई हानि नहीं है । पापबंध होने से सम्यक्त्व में कोई हानि नहीं है, मगर जहाँ पुण्य कम होने लगा और पाप अधिक होने लगा, इससे सम्यक्त्व की हानि है । एक बार गिर जाना उतना बुरा नहीं, जितना गिरते जाना बुरा है । गिरते जाना माने निरंतर गिरना है । गिरते जाने में बेहोशी है । अत: निरंतर गिरने से सम्यक्त्व में हानि है । जैसे बरसात में पैर फिसलना गिरना है । मगर फिसलते जाना यह निरंतर गिरते जाना है । पाप सम्यग्दृष्टि के भी होता है, मगर पाप निरंतर होते रहने और पुण्य कम होने में सम्यक्त्व की हानि है । पुण्य का निरंतर अपकर्ष होने लगे, यह भी सम्यक्त्व की हानि का कारण है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति होना या सम्यक्त्व में किन्हीं अंशों का बढ़ना, या निर्जरा संवर विशेष रूप से होने लगना―ये सब सम्यक्त्व के गुण हैं । क्षयोपशम सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व हो गया यह सम्यक्त्व का गुण है ।
18. ज्ञानोपयोग में स्वयं में विकार की अकारणता―ज्ञानोपयोग में आकार बनता है । इस आकार के बनने से सम्यक्त्व की क्षति नहीं होती । ज्ञानोपयोग न सम्यक्त्व के गुण का कारण है, और न दोष का कारण । क्योंकि ज्ञान और सम्यक्त्व गुण न्यारे-न्यारे हैं । ज्ञान की क्रिया से सम्यक्त्व में गुण दोष नहीं पड़ता है सम्यक्त्व की हानि होना, पाप बढ़ने लगना, पुण्य घटने लगना―ये सब सम्यक्त्व के दोष है, सम्यक्त्व की क्षति के कारण हैं । दर्शनमोहनीय के नष्ट होने से जो परिणाम होता है, वह सम्यक्त्व है । जैसे एक दर्पण में तैल लगा है, कुछ मटमैला सा हो रहा है, उसकी सफाई कर दी तो वह सफाई क्या चीज है? सफाई जो स्वच्छता है, उसके -होने पर जो चमक आई, उसे सफाई कहते हैं । सम्यक्त्व आत्मा की सफाई हैः―जिस सफाई के होने पर ज्ञान गुण प्रकट होता है, वह सफाई दर्शनमोहनीय के अस्त होने पर होती है । ज्ञान न सम्यक्त्वरूप परिणमता, न मिथ्यारूप । सम्यक्त्व के साथ रहने वाले ज्ञान को सम्यक् कहते हैं, और मिथ्यात्व के साथ रहने वाले ज्ञान को मिथ्या कहते हैं । जैसे काँच के हरे गिलास में पानी हरा मालूम पड़ता है लेकिन पानी हरा नहीं है । उसी प्रकार ज्ञान मिथ्यात्व के साथ मिथ्यारूप मालूम पड़ता है और सम्यक्त्व के साथ सम्यक्रूप । ज्ञान का काम है, जानना । जैसे कोई मुनि है, उसके सामने उसका गृहस्थावस्था का पुत्र जाये तो वह उसे जान मात्र लेगा, उसमें विकल्प नहीं करता । यदि कोई गृहस्थ हो तो वह पुत्र को पुत्र तो जान जाता है, परंतु उसके साथ वह विकल्प भी करता है कि यह मेरा पुत्र है । भगवान का काम तो ज्ञाता द्रष्टा रहना है, लेकिन मोहियों के मिथ्या श्रद्धा विशेष है । ज्ञान तो बेचारा सरल है, उसका काम तो जानना मात्र था, लेकिन जानकर उसमें विकल्पादि होना मिथ्याज्ञान के व्यपदेश का कारण हो जाता है । भगवान् में और हममें कम बढ़ का फर्क है । भगवान् तो पदार्थ को जानते मात्र है, हम उसमें विकल्प भी तो करते हैं यही हमारा विशेष जानना है । जीव का कल्याण अकल्याण अस्तित्त्व गुण के परिणमन से नहीं है । आत्मद्रव्य के साधारण गुणों के कारण आत्मा का भला बुरा नहीं है । योग के परिणमन से भी आत्मा की भलाई-बुराई नहीं है । अरहंत भगवान का कितना योग चलता है, परंतु योग के परिणमन होने से उनमें कोई हानि नहीं पहुंचती । आत्मा के अन्य गुणों के परिणमन से भी आत्मा की बुराई नहीं है । आत्मा की बुराई सम्यक्त्व और चारित्रगुण के विकार से है । सम्यक्त्व और चारित्र के बिगड़ने पर आत्मा की हानि हुई । जहाँ सम्यक्त्व की हानि हुई, वहाँ राग द्वेष मोहादि ही परिणमते हैं । वहाँ वे स्वयं वह है ऐसी प्रतीति होती है । जैसे बच्चा धाय या ठगिनी के द्वारा पाला गया, वह उसी धाय को या ठगिनी को अपनी माँ समझता है और कहता है । परंतु कुछ बड़ा होने पर मालूम पड़ा कि किसी ठगिनी ने हमें पाला पोसा है, तो उस धाय या ठगिनी के प्रति प्रतीति हो जाएगी, कि यह मेरी माँ नहीं है, परंतु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं उससे वह तुरंत नहीं छूट सकता और उसे मां भी कहता रहेगा, मगर ज्ञान होते ही उसकी यह प्रतीति बदल गई कि यह मेरी माँ नहीं है । इसी प्रकार इस संसार में रहने वाले जीव की जब प्रतीति बदल गई कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, चैतन्य मात्र आत्मा हूँ, जानना-देखना मेरा स्वभाव है, दुनिया के समस्त पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, उन जीवों की परपदार्थ से बुद्धि हट जाती है और स्व की प्रतीति होने लगती है । फिर भी कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं कि इनका त्याग नहीं हो पाता । राग द्वेष की परिणतियां आत्मा में होती रहें, परंतु इससे सम्यक्त्व का बिगाड़ होने वाला नहीं है ।
19. मिथ्या अभिप्राय के विकल्प―सम्यक्त्व की क्षति मिथ्या अभिप्राय से होती है । रागद्वेष का होने लगना मिथ्या अभिप्राय का कारण बन जाता है । अत: राग-द्वेष भी नहीं करना । कोई कहता है कि कर्म विधना, ब्रह्मा, विधि―यही एक जीव है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं है । जो लगातार संसार की परंपरा से कीड़ा करता हुआ चला आया है, वही जीव है । यह कर्म संसार में खेलता हुआ चला आया, इसमें कर्म का क्या बिगाड़? क्षति तो आत्मा की हुई तभी तो यह कर्म की कीड़ा कहलाई । बहुत से जीव कहते हैं कि कर्म के अतिरिक्त हमें चेतन वगैरह दिखाई नहीं देता है । भैया ! सम्यक्त्व की हानि होने पर जीव के कैसे भाव हुए―इसका ही तो वर्णन चल रहा है ।