वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 40
From जैनकोष
अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभावगं जीवं ।
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चा वि जीवो त्ति ।।40।।
20. तीव्रमंदानुभावग अध्यवसान में जीवत्व की कल्पना―अन्य अज्ञानी जीव अध्यवसानों में तीव्र मंद अनुभावों में गत जो है उसे जीव मानते हैं तथा अन्य अज्ञानी जीव नोकर्म (शरीर) को जीव मानते हैं । यह एक तीसरा विमूढ़ पुरुष है जो जरा और चतुर-सा है । इसके आशय में यह बैठा है कि अध्यवसान कोई तीव्र अनुभाग वाला है, कोई मंद अनुभाग वाला है, तो ये विशेष अनुभव तो मिटते चले जाते हैं, तभी तो तीव्र से मंद और मंद से तीव्र होगा, परंतु मैं (आत्मा) तो मिटने वाला नहीं, सो अध्यवसान ही जीव नहीं है, किंतु अध्यवसान की संतान जीव है । इसको भी अध्यवसान के अतिरिक्त तो कुछ मिला नहीं और अध्यवसान कुछ बदलते दिखे, साथ ही अध्यवसान अनादि अनंत दिखे, ऐसी स्थिति में अध्यवसान की संतान को जीव मान लेना प्राकृतिक बात है । कालिमा के अतिरिक्त कोयला क्या, कालिमा के अतिरिक्त आकार क्या? इसी तरह अध्यवसान की संतान के अतिरिक्त आत्मा भी कुछ नहीं है ।
21. प्रभुता के भान बिना अध्यवसानसंतान में जीवत्व की कल्पना―भैया ! विज्ञानघन परमानंदमय निज प्रभु की प्रभुता भूलकर यह जीव, कैसी-कैसी पर्यायों को धारण करता है, कैसा-कैसा बरबाद होता है? मुफ्त भ्रम में दुःखी होता है यह । आत्मन् ! अब तो दृष्टि करो अपने प्रभु की ओर । पूर्व गाथा में बतलाया था कितने ही मोही जीव अध्यवसान को आत्मा मानते हैं । कितने ही लोग कुछ जरा विवेक करते हैं, सोचते हैं कि अध्यवसान परिणाम बदलते रहते हैं यह तो जीव नहीं है, परंतु उन परिणामों में जो तीव्र मंद विपाक होते हैं, उनमें जो रहता है, वह जीव है । तीव्रमंद फलों की जो परंपरा है वह जीव है । क्रोध जीव नहीं है, परंतु क्रोध की जो संतति है, वह जीव है । तीव्रमंद और मध्यम जो फल है, इन तरीकों से होने वाले नाना प्रकार के अध्यवसान हैं, उनमें रहने वाला जो संतान है वह जीव है । क्योंकि राग-द्वेष आदि विभाव की संतति से भिन्न कोई जीव नहीं है । राग-द्वेष से भिन्न जीव मिल सकता है, परंतु राग द्वेष की संतान के अतिरिक्त जीव नहीं है, ऐसा लोग कहते हैं । जैसे क्षणिकवादी लोग कहते हैं कि आत्मा नया-नया पैदा होता रहता है, एक ही आत्मा लगातार नहीं रहता है । वर्तमान में जितनी हालतें हैं उनका उतना ही आत्मा है, विचारों का नाम ही आत्मा है । उनसे यह पूछा जाये कि जब विचारों का नाम ही आत्मा है तो एक क्षण के बाद दूसरे ही क्षण एकदम विरुद्धविचार क्यों नहीं चलते अनुकूल विचार ही क्यों आते हैं? जैसे दीपक जल रहा है, वह अनेक है । जितनी तेल की बूंद हैं उतने ही दीपक हैं । एक बूँद जली वह एक ज्योति है, दूसरी बूंद जली, वह दूसरी ज्योति है । वे ज्योति अनेक हैं । परंतु वे एक ही क्यों मालूम पड़ती है? लोग दिया जलाते हैं कि लगातार वे बूँदें जलने लगती हैं । लगातार जलने के कारण वे एक मालूम पड़ती हैं । तो इसमें लगातारपने का अर्थात संतान भी तो जानता है इसी प्रकार विचारों का नाम आत्मा है । एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरे के क्रम से विचार आते रहते हैं, अत: मालूम पड़ता है कि विचार एक ही आया । इस प्रकार विचार अनेक होते हैं । उन विचारों की जो संतान है वह जीव है, ऐसा भी कोई कहते हैं । विचार, राग, मोह आदि को देख-देख मोही जीव कहता है कि राग की जो संतान चलती है, वही जीव है । इस प्रकार आत्मा को न जानने वाले मोही जीव आत्मा के विषय में कहते हैं कि अध्यवसान की संतानें ही जीव हैं, क्योंकि इनके अतिरिक्त हमें कोई जीव नहीं दिखता है । कितने ही मोही कहते हैं कि शरीर ही जीव है । शरीर से भिन्न कोई जीव नहीं है । जो नया बने, जो पुराना बने―इस प्रकार प्रवर्तमान जो शरीर है, वही जीव है, इसके अतिरिक्त जीव नहीं है―ऐसा आत्मा को न जानने वाले कहते हैं ।
22. अध्यवसान-वेगात्मवादिता―पढ़े लिखे मिथ्यादृष्टि लोग अध्यवसानों में जो तीव्र मंद अनुभाग को प्राप्त होते हैं उसे जीव कहते हैं । रागद्वेष भाव को जीव कहा, एक तो यह परिणाम और दूसरे रागद्वेष भावों में जो अनुभाग पड़ा है, फलदानशक्ति पड़ी है, तीव्र मंद अनुभाग है उस शक्ति को जीव माना । तो कोई जीव इस नोकर्म को ही जीव समझता है । शरीर का जो नया बनना है, पुराना बनना है उसे यह मानता है कि मैं अब पैदा हुआ अथवा मैं अब मरा ।
23. मोही की शरीर में जीवत्व की कल्पना―यह एक चौथे प्रकार का विमूढ़ पुरुष है । यह शरीर को ही जीव मानता । उनमें भी कोई ठक्के के मूढ़ हैं, कोई चतुर मूढ़ हैं । भोले मूढ़ तो इस शरीर को ही जीव मानते हैं । शरीर मिट गया तो जीव मिट गया, शरीर हो गया तो लो जीव हो गया, ऐसी बुद्धि इनकी है । परंतु जो चतुर चौथे विमूढ़ हैं वे कहते हैं कि नई पुरानी अवस्था में प्रवर्तमान जो नोकर्म (शरीर) है वह जीव है । यह शरीर सामान्य को जीव कह रहा है । उसके नए-नए प्रादुर्भाव अथवा विकास चलते रहते हैं । उन विशिष्ट शरीरों का संतानभूत अथवा उन विशिष्ट शरीरों में व्यापक जो नोकर्म (शरीर) है वह जीव है इसके आशय में । सो जैसे कृष्णता के अतिरिक्त कोयला और कुछ चीज नहीं है, इसी तरह नोकर्म के अतिरिक्त और कुछ जीव नहीं है । भैया ! यह तो ज्ञानियों की भाषा में अज्ञानियों की बात बताई जा रहीं है । अज्ञानी थोड़े ही जानता है कि यह नोकर्म है, यही जीव है । वह तो उसको लक्षित करके यही मैं हूँ ऐसा अनुभव करता है । यदि कोई नोकर्म समझे तो कर्म भी समझना होगा और फिर आगे बढ़ना होगा । प्रिय आत्मन् ! अपने पर अब तो दया करो, इस शरीर विडंबना को ही आत्मसर्वस्व मानकर क्यों अपार कष्ट उठा रहे हो? बाह्य से नेत्र बंद करो, अपने में ज्ञाननेत्र खोलो, आत्मा स्वसंवेद्य चीज है । यहाँ लौकिक तर्कों से और इंद्रियों से आत्मा को जानना चाहते हैं । शरीर का नाम नोकर्म इसलिए कहा गया कि सुख दु:ख के खास कारण कर्म हैं, उसी प्रकार प्राय: दु:ख का कारण शरीर पड़ता है । नो=ईषत् थोड़ा । जैसे कर्म सुख दु:ख के कारण है, उस प्रकार शरीर भी सुख दुःख का कारण है । ऐसा नहीं कि नोकर्म के बिना सुख दु:ख का कर्म को पूरा अधिकार हो जाये । सहयोग संबंधी जैसे कार्य नोकर्म (शरीर) करता है । नोकर्म से भिन्न हमें कोई जीव दिखता ही नहीं, ऐसा किन्हीं लोगों का कहना है ।
24. दृष्ट शरीर में जीवत्व की कल्पना―शरीर 5 प्रकार का हैः―औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण । शंकाकार जो कह रहा है, उसके लक्ष्य में अंतिम चार शरीर नहीं हैं, केवल औदारिक शरीर है । शंकाकार तो औदारिक शरीर को ही लक्ष्य करके कहता है कि शरीर ही जीव है । कोई यदि चतुर शंकाकार होता वह कहता कि तैजस और कार्माण शरीर रूप सूक्ष्म नोकर्म जीव है जो कि जीव के साथ प्रति समय लगा रहता है, वह स्थूल शरीर प्राप्त होने के कारण बनते हैं, वह निरंतर रहता है अत: शरीर से भिन्न जीव है ही नहीं । जो पुनर्जन्म मानने वाले हैं वे कहते हैं कि तैजस और कार्माण के अलावा जीव रहता ही नहीं है । जो पुनर्जन्म नहीं मानते हैं, वे कहते हैं कि शरीर नष्ट हो जाता है और शरीर के उत्पन्न होने पर जीव भी उत्पन्न हो जाता है । पंचतत्त्व (भूमि जल, पावक गगन, समीर) से अलावा कोई शरीर नहीं है । शरीर ही जीव है, ऐसा कितने ही आत्मा को न मानने वाले जीव कहते हैं । अभी तक आचार्य महाराज वे बातें बता रहे हैं कि जिन्हें मोही जीव सोच सकता है । आत्मतत्त्व के अनभिज्ञ किसी-किसी प्राणी की मान्यता है:―