वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 41
From जैनकोष
कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति ।
तिव्वत्तणमंदत्तण गुणेहिं जो सो हवदि जीवो ।।41।।
25. कर्मोदय में जीवत्व की कल्पना―अन्य कोई कर्म के उदय को ही जीव मानते हैं तो अन्य कोई कर्म के अनुभाग को जीव मानते हैं कि तीव्र मंद गुणों से नानारूप है । कितने ही जीव कर्म के उदय को ही जीव मानते हैं । कैसा है वह उदय याने फल? जो पुण्य और पाप के उदय में आकर जीव पर आक्रमण करता है, उसी को कितने ही लोग जीव कहते हैं । पुण्य पाप के माने शुभ और अशुभ भाव से है । शुभ और अशुभ भावों के अतिरिक्त हमें कोई जीव नजर नहीं आता है । इन भावों के अतिरिक्त भी क्या कोई जीव है? पुण्य और पाप के अतिरिक्त कोई जीव नहीं है, ऐसा वह कहता है । कर्म का उदय, कर्म का विपाक ही जीव है ।
26. कर्मानुभाग में जीवत्व की कल्पना―कितने ही जीव मानते हैं कि सुख-दु:ख का अनुभवन ही जीव है, इसके अतिरिक्त कोई जीव नहीं है, सुख-दु:ख के अलावा मोही जीवों को कोई चीज समझ में नहीं आती है । साता-असाता रूप परिणाम में व्याप्त जो तीव्र मंद गुण, उन गुणों से भेद को प्राप्त होने वाला जो कर्मों का अनुभवन है, वही जीव है । सुख-दुःख में न्यूनाधिक जो संतान चल रही है, उसे जीव कहते हैं । परंतु ये सब यथार्थ बात नहीं हैं । सुख दुःख क्या हैं? यह आत्मा के विकार हैं, आनंद गुण की पर्यायें हैं । आनंद गुण की तीन पर्याय हैं―सुख, दुःख और आनंद । आनंद निर्विकार पर्याय है । आनंद गुण की विकृत पर्यायें सुख दुःख हैं । जो इंद्रियों को सुहावना लगे, उसे सुख कहते हैं और जो इंद्रियों को सुहावना न लगे, उसे दुःख कहते हैं । आ समंतात् नंदति आत्मानम् इति आनंद: अर्थात् जो आत्मा को चारों ओर से समृद्ध करे, उसे आनंद कहते हैं । शंकाकार की दृष्टि निर्विकार पर्याय आनंद तक भी नहीं पहुंच पाई है । वह कहता है कि सुख दु:ख रूप जो पर्याय हैं―वही जीव है, इसके अलावा जीव नहीं है । परंतु आत्मा न सुख रूप है और न दुःख रूप है तथा न निर्विकार आनंदरूप परिणमन ही जीव है, क्योंकि निर्विकार आनंद तो बाद की अवस्था है, जीव तो इनसे पहले से ही जीव था । नहीं तो जीव प्रारंभ से अंत तक निर्विकार होना चाहिए था? आनंद गुण भी जीव नहीं है । यदि आनंद गुण मात्र ही जीव होता तो आनंदमात्र ही जीव नजर आना चाहिए था । दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि अनेक गुणों का समुदाय भी जीव नहीं है । सुख दुःख तो विकृत अवस्था है, वह जीव नहीं है, यह तो जल्दी स्पष्ट हो जाता है । तुम्हारी समझ में आने वाले अनेक गुणों का एक नाम जीव है । “समगुण-पर्यायं द्रव्यम् ।” जैसे पत्ता, कोपल, फल, फूल, बीज, शाखा-―इन सबका एक नाम एक वृक्ष है । वास्तव में यह भाषा गलत है कि वृक्ष में फूल लगे हैं । अरे, इन सबका नाम ही तो वृक्ष है । इसी प्रकार यहाँ जितने भी अनेक गुण हैं, उन सब गुणों का जो एक पर्यायवाची शब्द है, उसका नाम आत्मा है । आत्मा तो अभेदरूप है । उसके गुणरूप भी भेद नहीं किये जा सकते हैं । इस तरह आत्मा और स्वभाव ही वह गुण के भेदरूप भी जीव नहीं कहा जा सकता है । यहाँ कोई यह कहता है कि विचारों के समूह का नाम ही जीव है । यहाँ पर दृष्टियों के समूह का नाम ही जीव कहा गया है, ऐसी उनकी मान्यता है । जीवों का यह अनुभव है कि सुख दुःख के अलावा जीव है ही क्या? मालूम पड़ता है आचार्य महाराज जिनको सुना रहे हैं, उनके मन में यह श्रद्धा जमी हो, परंतु कह न पा रहे हों कि सुख दुःख के अलावा कोई जीव नहीं है । जीव कोई भौतिक चीज तो है नहीं, जो सामने लाकर रख दिया जाये, यह स्वसंवेद्य है ।
27. शुभ, अशुभ भाव में मी जीवत्व का अभाव―कोई कहते हैं कि तीव्र मंद गुणोंकर भेद को प्राप्त हुए नाना-प्रकार के शुभ अशुभ भाव जीव हैं । विषय पोषने के भाव व उन्हीं से संबंधित कषाय भाव के उपयोग को अशुभभाव कहते हैं और सेवा, सद्विचार, लोकहित भावना आदि मंदकषाय से होने वाले उपयोग को शुभ भाव कहते हैं । सातारूप (राजी होने रूप) परिणाम को सुख कहते हैं और असातारूप परिणाम को दुःख कहते हैं । जैसे शुभ अशुभ कर्म के उदय हैं अत: जीव नहीं है, इसी प्रकार सुख दुःख भी कर्म के विपाक हैं अत: जीव नहीं है । शुभ अशुभ भाव और सुख दु:ख में क्या अंतर है? इसको दिखाने के लिए पूज्य श्रीमद् अमृतचंद्र जी सूरि ने शुभ अशुभ भाव के लिए कर्म का उदय शब्द दिया है और सुख दुःख के लिए कर्म का अनुभाग शब्द दिया है । शुभ अशुभ भाव में तो कर्तव्य की भाव चलता है व सुख दुःख में भोक्तृत्व का भाव चलता है । उदय अल्पस्पर्शी है, अनुभाग दृढ़स्पर्शी है । यह एक पाँचवें प्रकार का विग्रह पुरुष है जिसकी मान्यता है कि कर्मविपाक ही जीव है । कर्मविपाक शुभ और अशुभ भाव है जो कि पुण्य और पापरूप से सारे विश्व को व्याप रहा है, आक्रांत कर रहा है । इसने भीतर देखा तो कुछ और खाली राग द्वेष व अध्यवसान भाव में जीव माने जाने का संतोष नहीं हुआ इसे । यह कुछ उपयोग के समीप आ रहा है? किंतु उपयोग की स्वच्छता के मर्म को नहीं पा सका है । इसी कारण शुभोपयोग और अशुभोपयोग से अतिरिक्त कुछ जीव न दिखा ।
28. कर्मानुभाग में आत्मत्व का मोह―अब छट᳭ठे प्रकार के विरुद्ध पुरुष का मंतव्य देखें―वह कर्म के अनुभव को जीव मानता है । यहाँ अनुभव कहने से सुख दुःख का ग्रहण करना है । सुख दुःख के अतिरिक्त कोई जीव नहीं, सुख दुःख रूप अनुभव ही जीव है । सुख दुःख रूप में जो कर्म का अनुभव चलता है वह जीव है, यह अनुभव ही तीव्र मंदत्त्व गुणों (डिग्रियों) के कारण नाना भेदरूप है । सो नाना रहो किंतु साता असातारूप से सदा अभिव्याप्त है । इसकी मान्यता में सुख दुःख के अलावा कुछ जीव है ही नहीं । अहो आत्मन् ! तुम चैतन्यपिंड, सहजानंदस्वरूप हो । यह क्या तेरी गति हो रही है, मति हो रही है कि विकल्प विडंबना की परेशानी से छुट्टी ही नहीं पाते । ऐहिक सुख दुःख में इतने आसक्त हो गए हो कि सुख दुःख के अतिरिक्त तुम कुछ सहज विलक्षण स्वरूप वाले हो, यह सुनने को भी तैयार नहीं होते । यह छटा छटाया छट्ठा मूढ़ सुख दुःख के अतिरिक्त कुछ जीव ही नहीं मानता ।
29. कर्मोदय व कर्मानुभाग में अनात्मवादिता―कोई अज्ञानी कर्म के उदय को ही जीव समझते हैं । कर्म का उदय हुआ और उसमें जो कुछ भी अपने में प्रभाव हुआ उसका भी नाम उदय है और द्रव्यकर्म प्रकृति का उदय हो, निकलना हो, उसका भी नाम उदय है । तो प्राय: कर्मोदय से प्रभाव उत्पन्न होने में प्रभावरूप उदय को समझता है कि यह मैं हूं, मैं इससे निराला कोई ज्ञानमात्र स्वरूप हूँ ऐसी उस अज्ञानी की बुद्धि नहीं जगती । कोई कर्म के अनुभाग को ही जीव मानते हैं । जो फलदान शक्ति है वही मैं जीव हूँ, ऐसी बातें कुछ लोग मानते हैं । क्योंकि जो निपट मूर्ख लोग हैं वे अनुभाग को क्या जानें, वे फलशक्ति को क्या समझें, किंतु जो कुछ पढ़े लिखे लोग हैं, कुछ शब्दों का परिज्ञान रखते हैं और न प्राप्त हो अपने आत्मा का स्वरूप तो जब अपना ठिकाना अपने को न मिला तो बाहर भटकते हैं और अपने चैतन्यस्वरूप से बाहर जो कुछ उन्हें आत्मरूप से विदित हो उसे आत्मा मानते हैं ।