वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 197
From जैनकोष
अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिदं-पय-भत्ता ।
अप्पाणं णिदंता गुण-गहणें सुट्ठु अणुरत्ता ।।197।।
जघन्य अंतरात्मा का स्वरूप―जघन्य अंतरात्मा का स्वरूप इस गाथा में बता रहे हैं । जो जीव व्रतरहित हैं और सम्यग्दृष्टि हैं उन्हें जघन्य अंतरात्मा कहते हैं । सम्यग्दृष्टि हुए बिना अंतरात्मत्व नहीं प्रकट होता इसलिए जघन्य अंतरात्मा का सम्यग्दृष्टि होना सर्वप्रथम आवश्यक है । और चूँकि उसके कोई व्रत नहीं है, यद्यपि अनेक आचरण उसके उचित ही हो रहे हैं, फिर भी व्रत न होने के कारण, नियम संकल्प न करने के कारण उसे अविरत कहा गया है, इसलिए अविरत सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अंतरात्मा कहलाते हैं । ये चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव होते हैं, ये चाहे उपशम सम्यग्दृष्टि हों अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि हों या क्षायिक सम्यग्दृष्टि हों, सब प्रकार के सम्यग्दृष्टि व्रतरहित अवस्था में जघन्य अंतरात्मा कहलाते हैं । अंतरात्मत्व जिनके प्रकट हो जाता है वे बहिरात्मा सर्वज्ञ जिनेंद्र के चरणकमल में अनुरक्त हुआ करते हैं । जिसकी अपने आपके कैवल्य प्रकट करने की उत्सुकता जगी है वे जो कैवल्य प्रकट कर चुके हैं । उनकी उपासना में अनुरक्त हो जाते हैं । जिनको जिसकी चाह है वह बात जहाँ प्रकट होती है वहाँ उनका चित्त रमता है । तो जिनको अपने आपमें कैवल्य प्रकट करना है, अंतरात्मा जीव अपने आपमें यह भावना रखते हैं कि वह कब क्षण हो जब देह से, कर्म से, विभाव से, विकल्पों से निराला केवल ज्ञानमात्र जैसा कि मैं सहज सत् हूँ वैसा ही व्यक्त रूप बन जाऊँ, केवल यह ही भावना है और इस उत्सुकता के बल पर वह सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा बन गया है । तो ये अंतरात्मा जिनेंद्र चरण कमल में अनुरक्त रहा करते हैं । इनको गुणों के ग्रहण करने में बड़ी उत्सुकता लगी रहती है, गुण क्या है जिसके ग्रहण करना है? वह है केवल एक सहज शुद्ध ज्ञानानंद मात्र जो आत्मा का स्वभाव है उस स्वभाव को दृष्टि में लिए रहना । काम तो केवल एक यही करने का है । मगर यह काम बने कैसे? जब कि यह जीव नाना प्रकार के विषय कषायों में अनादि से लग रहा है और उसके संस्कार में पल रहा है तो ऐसी स्थिति वाले जीव इस विशुद्ध गुण के ग्रहण में कैसे लगें? उसके लिए जो उपाय प्रयत्न रचेंगे वे प्रयत्न होंगे अणुव्रत महाव्रत रूप । पंच पापों का त्याग करना । और-और भी अनेक तपश्चरण करना । तो ये अंतरात्मा व्रत तपश्चरण
संयम इनके ग्रहण में आसक्त रहते हैं ।
गुणग्रहण के अकृत्रिम स्नेही अंतरात्मा―अंतरात्मा का उत्कृष्ट स्नेह होता है, गुण के ग्रहण करने में याने जैसे अनेक लोग कृत्रिमता से व्रत ग्रहण कर ते हैं, वैसा कृत्रिमता से उनका जल ग्रहण नहीं है । अंतरात्मा जो व्रत ग्रहण करेंगे वे कृत्रिमता से नहीं; उनका व्रत ग्रहण उत्कृष्ट सहज और सुगम होता है । जैसे कुछ लोग ऐसा सोचकर कोई व्रत ग्रहण करते हैं कि मैं मुनिव्रत ग्रहण करूंगा, मैं इतने सब परिग्रहों का त्याग करूंगा, यथाजात लिंग धारण करूँगा । इस तरह का विधि विधान का संकल्प करके मुनि होते और कोई ज्ञानी पुरुष चूँकि उसे आत्मा की उपासना की धुन लगी हुई है इस कारण वे बाह्यसंग को बाधा जानकर उनसे दूर होते हैं । जैसे वस्त्र से बाधा आना, उसे धोना होगा, सुखाना होगा, सिलाना होगा, उसकी चिंता रखनी होगी, अथवा जो-जो भी बाह्य संग है उन सबको बाधक जानकर उन बाधाओं से हट रहे हैं, बस यही उनके व्रत का रूप बन रहा है । ज्ञानी जीव के बाह्य विकल्पमय विधिविधान का संकल्प नहीं किंतु किसी भी प्रकार बाधाओं से हटकर एक चैतन्य स्वरूप में दृष्टि को दृढ़ करने का भाव है । और उसी प्रयत्न में उसकी दिगंबर मुद्रा बनती है । तो यह ज्ञानी जीव व्रत संयम तपश्चरण को ग्रहण करने में अकृत्रिम स्नेह वाला होता है और इसको गुणों में और गुणों में (दोनों में) प्रमोद रहता है । जिनको अपने गुणविकास में प्रमोद है वे गुणविकास वाले दूसरे जीवों में भी प्रमोद रखते हैं, ऐसे ये जघन्य अंतरात्मा चतुर्थगुणस्थान में होते हैं और ये गुणस्थानों में बढ़-बढ़कर ऊँचे गुणविकास में चढ़कर अंत में ये क्षीण कषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अंतरात्मा कहलाने लगते हैं ।