वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 196
From जैनकोष
साक्य गुणेहिं जुत्ता पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति ।
जिण-वयणे अणुरत्ता उवसम सीला महासत्ता ।।196।।
मध्यम अंतरात्मा का स्वरूप―जो महात्मा श्रावक के गुणों से युक्त है अथवा प्रमत्तविरत है वह मध्यम अंतरात्मा कहलाता है । छहढाला में कहा गया है कि ‘‘मध्यम अंतरआतम हैं जे देशव्रती अनगारी ।’’ कुछ लोग आगारी पढ़ा करते हैं, उनकी दृष्टि में यह बात समाई होगी कि मुनि कैसे मध्यम होंगे, वे तो उत्तम कहलाते हैं लेकिन मुनि जब तक प्रमाद में तब तक वह मध्यम अंतरात्मा है, उत्कृष्ट नहीं । तो श्रावक और प्रमत्तविरत ये दो मध्यम अंतरात्मा कहलाते हैं । ये प्रमाद में अवश्य हैं, किंतु इनका प्रमाद अज्ञानी जनों की भाँति का नहीं है । स्वाध्याय करना, शिक्षा देना, चर्चा करना ऐसा प्रमाद उनके रहता है । जिसे हम आप कहते हैं कि यह अच्छी बात है और प्रमाद छोड़कर स्वाध्याय करे, दूसरे के सुनाये, दूसरे को नियम दिलावे, शिक्षा, दीक्षा दे, जिसे क्षमा कहते हैं प्रमादरहित होकर ऐसा करे वह सब प्रमाद का काम है । आत्मा की अप्रमत्त अवस्था तो यह है कि जैसे यह आत्मा विशुद्ध ज्ञान दर्शनस्वरूप ज्ञाताद्रष्टा है उस प्रकार का उपयोग रहे तो है उसकी अप्रमत्त दशा और किन्हीं व्यवहार धर्म कार्यों में लग रहा है तो वह प्रमाद है, और लौकिक जन जिसे प्रमाद कहते हैं वह तो सारा अज्ञान है । प्रमाद तो वह कहलायेगा कि जहां थोड़ी असावधानी हो, वह तो पूरी ही असावधानी की बात है । तो आत्महित की दृष्टि से यह बात कही जा रही है कि अपना जिसमें कल्याण है ऐसे भाव में प्रमाद हो तो उसे प्रमाद कहा गयाहै । तो मध्यम अंतरात्मा देशव्रती श्रावक और प्रमत्तविरत मुनि है ।
देशविरत श्रावक के ग्यारह स्थान―देशविरत के 11 स्थान हैं, जिन्हें 11 प्रतिमा के नाम से कहा गया है । प्रथम प्रतिमा में सम्यग्दर्शन का निरतिचार धारण और अभक्ष्य अन्याय का परित्याग होता है । यों कहिये मिथ्यात्व अन्याय अभक्ष्य का त्याग होने पर पहिली प्रतिमा में प्रवेश कहलाता है । दूसरी प्रतिमा में 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षाव्रत हो जाते हैं । इन व्रतों को विकल्प बढ़ाने के लिए नहीं लिया जाता है, किंतु उस त्याग की स्थिति में ज्ञान की ओर उपयोग अधिक लगायेगा । यह प्रयत्न किया गया है अन्यथा कोई त्याग-त्याग में ही रहा करे यह चीज छोड़ो, इसे हटाओ, इसकी एवज में यह चीज लावो ऐसी दृष्टि करे, हमको सोला रखना है, हमको ऐसा ही पवित्र बनना है, केवल बनने-बनने की ओर ही विकल्प चले तो निश्चयत: उसका अंतःव्रत न रहा, वह बाहरी विकल्पों में ही रहा, जिसे कर्मनिर्जरा में हेतु कहा गया ऐसा परिणाम न रहा । तो यह ध्यान में रखना चाहिए कि बाहरी जितने भी नियम हैं उन नियमों का उद्देश्य यही है कि मैं बहुत से विकल्पों से छूटकर अपने को ऐसा पात्र बनाये रहूं कि अधिकाधिक समय हम ज्ञानप्रभाव की उपासना में बिता सकें, ध्येय उसका यह होता है और जिसका अपने ज्ञान की उपासना का ध्येय होता है उसके ये 5 पाप छूटते ही हैं । वह हिंसा क्या करेगा? वह छूट जायगा । कुशील में क्या रमेगा? जिसकी धुन लग गई है अपने आत्मा के श्रेयोलाभ की, उसका तो जीवन ही बदल जाता है । यह देशव्रती श्रावक दूसरी प्रतिमा में 12 व्रतों के धारी होता है । उन व्रतों की उत्कृष्टता के लिए आगे की प्रतिमायें चलती हैं । सामायिक प्रतिमा में सामायिक व्रत का निरतिचार पालन होता है । प्रोषधप्रतिमा में प्रोषध का निरतिचार पालन होता है । सचित्त त्याग प्रतिमा में सचित्त के भक्षण का त्याग होने से दया का उदय विशेष होता है और अहिंसाव्रत की उत्कृष्टता होती है । रात्रिभोजन त्याग में भी अहिंसाव्रत की उत्कृष्टता है । ब्रह्मचर्य प्रतिमा में ब्रह्मचर्य की पूर्णता, आरंभ त्याग में अहिंसाव्रत की श्रेष्ठता है । उनका विकास और उत्कृष्ट बढ़ता जाता है । यों परिग्रहत्याग प्रतिमा जब आती है तब यह जीव इतना निर्मल बन जाता है कि घर के, संबंध के, कुटुंब के कोई मरें, जन्म में तो उसे सूतक नहीं लगता है । केवल थोड़े कपड़े और भोजन के कुछ पात्रों के सिवाय और कुछ नहीं रख रहा है । परिग्रहत्याग प्रतिमा वाला 10 वीं प्रतिमा में अपने आहार आदिक की अनुमोदना भी नहीं करता और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा में उद्दिष्ट भोजन न करना । यदि उसे यह मालूम हो जाय कि यह भोजन सिर्फ मेरे लिए बनाया गया है तो उसे वह नहीं लेता ।
उदि्दष्टताहारत्याग का तथ्य―उद्दिष्ट त्याग के विषय में कुछ लोग भ्रांत धारणायें बनाते हैं, सोचते हैं कि साधु का ख्याल करके ही तो लोग साधु का आहार बनाते हैं, तब दोष लगता होगा, लेकिन उद्दिष्ट दोष के संबंध में मुख्य बात यह जानना चाहिए कि यदि घर में केवल साधु के लायक भोजन अलग बना लिया जाय और सबके लिए अशुद्ध भोजन बनाया जाय जैसा कि रोज-रोज भोजन बनता रहता है अलग चूल्हे पर, तो वहाँ उद्दिष्ट दोष आता है । यदि एक दिन भी और ऐसा संकल्प करके भी कि मैं साधु को आहार दूंगा और सभी लोग शुद्ध भोजन करें, किसी दूसरे चूल्हे पर अलग से भोजन न बने तो उस भोजन में उद्दिष्ट का दोष नहीं आता । इतना सोच लेने पर भी कि मुझे आज साधु को भोजन कराना है, उद्दिष्ट दोष नहीं होता । अतिथि सम्विभाग व्रत जब दूसरी प्रतिमा में लिया गया है तो वहाँ सोचता ही है वह व्रती कि मैं अतिथि को आहार देकर भोजन करूँगा तो क्या सोचने मात्र से उद्दिष्ट दोष होता है? जिसने अतिथि सम्विभाग व्रत लिया वह रोज ही सोचता है, रोज ही संकल्प करता है वह तो उसका व्रत है । दोष की बात होती तो व्रत क्यों कहलाता? तो उद्दिष्ट दोष का मूल-साधन यह है कि वह केवल साधु को भोजन अलग से बनाये । और अपने लिए, परिजनों के लिये अलग बने तब उसके लिए बना हुआ भी उद्दिष्ट है । जिस भोजन को सब करेंगे, लेकिन यह नियम न रखें कि यह चीज साधु को ही दी जायगी, वहाँ दोष नहीं है । वहाँ तो यह विचार है कि आज यह भोजन तो सभी के लिए है । हाँ आज इतनी विशेषता कर दी कि सारा भोजन शुद्ध बनेगा । तो ऐसा करने में उस श्रावक को दोष न आयगा । जो भोजन केवल साधु के लिए बनता है वह उद्दिष्ट दोषयुक्त भोजन है ।
प्रमत्तविरत मध्यम अंतरात्मा―जब वह व्रती और आगे बढ़ता है तब फिर पंच महाव्रत का धारण होता है, तो मुनि हुआ और यह मुनि जब तक प्रमत्त रहता है, प्रमत्त-विरत है और मध्यम अंतरात्मा कहलाता है, ये मध्यम अंतरात्मा जिनेंद्र भगवान के वचनों का बड़ा प्रेमी होता है । सर्वज्ञ देव द्वारा प्रणीत 6 द्रव्य, 5 अस्तिकाय, 9 पदार्थ, 7 तत्त्व इन सबकी चर्चा में इस सबके मर्म में निश्चयनय व्यवहारनय स्याद्वाद सर्वविधियों से इसके स्वरूप का विवेक करके इस तत्त्वज्ञान में प्रसन्न रहा करते हैं ये मध्यम अंतरात्मा हैं । ये श्रमशील हैं, क्षमाशील हैं, क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायों में इनकी तीव्रता नहीं है इसलिए ये मध्यम अंतरात्मा कहलाते हैं । ये बड़े आंतरिक बल की धारी हैं । उपसर्ग और परिग्रह आ जायें तब भी अपने व्रत का खंडन नहीं करते । चूँकि ज्ञाताद्रष्टा की विधि से जरा वे अभी हटे हुए हैं अतएव इतने ऊँचे तपश्चरण करने पर भी ये मध्यम अंतरात्मा कहलाते हैं ।