वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 205
From जैनकोष
अंतरतच्चं जीवो वाहिरतच्चं हवंति सेसाणि ।
णाणविहीणं दव्वं हियाहियं णेव जाणादि ।।205।।
सर्व पदार्थों में अंतस्तत्त्व व बाह्यतत्त्व का विभाग और उसमें हित दर्शन―जगत में जितने भी सब कुछ पदार्थ हैं इन सबका दो हिस्सों में विभाग करना, अंतस्तत्त्व और बाह्य―तत्त्व । अंतस्तत्त्व तो यह आत्मा है, जीव है और बाह्यतत्त्व में सर्व पदार्थ आ जाते हैं, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल, और इनमें भी विशेष भीतरी दृष्टि करके देखें तो मेरे लिए मेरा अंतस्तत्त्व मेरा आत्मा है और मेरे को छोड्कर बाकी सर्व जीव और समस्त पुद्गल आदिक पदार्थ ये सब बाह्यतत्त्व हैं । अंतस्तत्त्व के मायने भीतरी स्वरूप और बाह्य तत्त्व के मायने बाहरी स्वरूप । दो भागों में सर्व कुछ विभक्त हो गया (1) मैं और (2) मेरे से अतिरिक्त सर्वपदार्थ अथवा (1) जीव और (2) जीव के अलावा अन्य सर्व पदार्थ । तो इसमें जीव तो है ज्ञानस्वरूप । लाह तो हित और अहित को जानता है और जीव को छोड़कर बाकी पदार्थ हित और अहित को नहीं जानते । यदि सर्व द्रव्यों के स्वरूप पर दृष्टि दें तो जीव सर्व द्रव्यों में श्रेष्ठ, उत्तम जाना जाता है । अथवा कहो कि यह जीव ही राजा है, बाकी पुद्गल आदिक जो कुछ ढेर पड़े हुए हैं सो ये ज्यों के त्यों पड़े है । इसमें ज्ञान नहीं है, व्यवस्था का माद्दा नहीं है । जीव है ऐसा कि जिसमें ज्ञानस्वरूप है और सर्वपदार्थों को जानता है, हित अहित को जानता है ।
वर्तमान साधन की कल्याण का उपाय बनाने के लिये अनुकूलता―अब इस समय का मौका अगर सही दृष्टि से देखो तो अपने आपको कितना सुंदर मिला हुआ है । अगर चाहे तो सदा के लिए इन संकटों को मेट लें । और न चाहें तो बाहरी बातों में फंसकर अपना रागद्वेष मोह में जीवन बिताये और जैसे अन्य भव पाये वैसे ही यह भी भव बीत लेगा । अपने आत्मा का उद्धार करने के लिए यहाँ बहुत बड़ी तैयारी करनी होगी, हिम्मत बनानी होगी और हिम्मत भी क्या? जब सर्व चीजें अपने से निराली हैं तो दृढ़ता से निराला समझ लें । कुछ-कुछ जब समझ में आता है कि घर परिवार भी क्या, धन वैभव भी क्या? सब कुछ परवस्तु है, और यह सब पुण्य पाप का संयोग है, और की तो बात क्या? यह मेरा देह भी मेरा साथी नहीं है, यह भी मेरे लिए निःसार है, यह सर्व रोगों का घर है, सारी चिंताओं का यह साधन है । जब यह देह लगा है, हमारा आकार बना है, नाक कान आदिक रचनायें हैं तो एक आधार मिल गया ना यहाँ ही रमने का । यह ही मैं हूँ और इस मुझको सब लोग जानते हैं । जो नहीं जानते वे भी मुझ को जान जायें ऐसी भीतर में आकांक्षा जगती है, और है कोई नहीं समझने वाला, किसी से कोई संबंध नहीं । जैसे भाव करता है उसके अनुसार फल इस अकेले को ही भोगना पड़ता है, बाहरी जो ठाठ हैं, जो घर में जीव बस गए हैं वे सबके सब मुझ से अत्यंत निराले हैं, तत्त्व निरखें और अपने आपमें जो सहज स्वरूप है । ज्ञानस्वरूप है उसकी दृष्टि करें तो केवल ऐसा अनुभव जगेगा कि जो इस कर्मबंधन को तोड़ देगा । हम मात्र बाहरी मन वचन काय की चेष्टाओं को करके हम चाहें कि इन कर्मकलंकों को तोड़ दें तो केवल इन बाहरी चेष्टाओं से ये कर्म नहीं टूटते । इन कर्मों के फल से जब वैराग्य जगेगा और अपने आपके सहजस्वरूप में अपना ज्ञान जगेगा तो उस अलौकिक अनुभूति से कर्म कटते हैं ।
धर्मपालन की कर्मविच्छेदनप्रयोजकता―कर्मों के काटने के लिए हमने ये साधन जुटाये हैं कि भाई रोज देवदर्शन करें । यहाँ आकर गुणस्मरण करें, अपने आपकी सुध भी होगी तो सीखना है यहाँ भेदविज्ञान । मैं सबसे निराला हूँ, देह से भी निराला हूँ, यह ज्ञान सीखना है मंदिर में पूजा में, दर्शन में, धर्म के प्रसंग में, यह अनुभव करना है, यह अभ्यास बनाना है कि देह जड़ है, नष्ट होगा, जला दिया जायगा, यह दुर्गंधित है, सारहीन है । मैं आत्मा एक चैतन्य भावरूप हूँ, पवित्र हूँ ऐसा यह मैं ज्ञानपुंज आत्मा इन सर्व समागमों से निराला हूँ । मेरी कहीं भी हानि नहीं, कहीं अरक्षा नहीं । जब तक राग है तब तुक अरक्षा का दिमाग बनता है । जब ज्ञान ज्ञान में आ जाय, ज्ञान का सही स्वरूप समझ ले तो यह अनुभव करेगा कि मेरा कोई विनाश कर सकने वाला ही नहीं है । मेरा जो सहज ज्ञानस्वरूप है उसमें कोई बाधा डाल सकने वाला ही नहीं है । अपने को निराकुल अनुभव करें । पर यहाँ भीतर की दृष्टि नहीं रहती है तो बाहर के उपयोग में तो विडंबना ही है । हम भगवान की मुद्रा को निरखकर उसकी उपासना करते हैं तो मुद्रा में हम सीखे क्या ? इनका ठाठ हम से हजारों गुना था, तीर्थंकर थे, चक्रवर्ती थे, करोड़ों गुना ठाठ था, पर वह ठाठ, वह सारा समागम उनकी शांति का कारण न बना, उसको असार जानकर सर्व कुछ त्यागकर सारभूत अपने आत्मा के ध्यान में लग गए । मुद्रा भी देख लो, पैर में पैर फँसाकर बैठे हैं । जो आसन हमें दिखाता है कि अब हमें कहीं जाने का काम ही नहीं है । हाथ पर हाथ धरे बैठे है प्रभु, जों हमें दिखाते हैं कि जगत में अन्य कुछ कर्तव्य ही करने लायक नहीं है । श्रेष्ठतम कर्तव्य तो एक आत्मसाधना है ।
ज्ञानसाधनारुचि की परमवैभवता―जिन जीवों के इस आत्मज्ञान की साधना में रुचि जगी है वे चाहे दरिद्र भी हों फिर भी वे अपने में तृप्त रहते, संतुष्ट रहते और अपने को अमीर अनुभव करते हैं । दर्शन में पढ़ते हैं कि इस जिनधर्म को छोड़कर मैं चक्रवर्ती भी नहीं होता चाहता और जिनधर्म से वासित होकर मैं किसी का नौकर रहा जाऊँ, दरिद्र भी रहा आऊँ यह हमें मंजूर है । इस बात को, इस भाव को परखें कि मेरा ज्ञानस्वरूप आत्मा मेरे ज्ञान में रहे और फिर मैं चाहे दरिद्र भी रहूं, किसी का सेवक भी रहूं तो वह भली बात है क्योंकि एक ज्ञानस्वरूप आत्मा का दर्शन तो बनता रहता है और एक अपने आत्मा की सुध न हो सके मिथ्यात्वमय, हिंसामय, नीचकुल में जन्म हो और -वहां वे ही झगड़े के विकल्प निरंतर रहा करें और वहाँ चाहे श्रीमान बन जायें, लखपति बन जायें तो भी वहाँ सार कुछ नहीं है । जब जैसा जो मिलेगा वह सब छोड़कर जाना है । चाहे कोई, धनिक हो अथवा कोई साधारण स्थिति का हो, छोड़कर जाने में समानता है । सब कुछ छोड़कर यहाँ से जाना होगा । अब यहाँ से छोड़कर जाने वाले को आगे किस प्रकार क्या बीतेगा, यह तो उसके किए हुए कर्मों पर निर्भर है । एक जन्म में किसी तरह दुनिया को अपना पोजीशन बता दिया, दुनिया को कुछ भी दिखा दिया तो उससे दुनिया हमारी साथी न बन जायगी, वे सभी स्वार्थ निरत हैं । स्वरूप भी ऐसा ही है कि कोई किसी दूसरे का क्या करेगा? तो यहाँ दूसरे के लिए हमें क्या करना? स्वयं के लिए ही कुछ करना है ।
स्वयं ही स्वयं पर बिछाई हुई आपत्ति के न होने पर सुविधा का सौगम्य―आज यदि समाज में एक दहेज प्रथा की आपत्ति न होती तो जैनदर्शन का पाने वाला यह समाज चाहे किसी भी परिस्थिति में होता सुखी रहता । दरिद्रता हो तो कोई दुःख की चीज नहीं, अथवा अपनी इज्जत न हो तो यह भी कोई दु:ख की चीज नहीं । कितनी बड़ी यह दुनिया है, उसमें थोड़े क्षेत्र का हमारा निवास है, अनादि अनंत समय है, उसमें ये 100-50 वर्ष क्या कीमत रखते हैं? जो हो सो हो, सर्व बातों को सहन कर सकते हैं, पर विवेक हो तब ना, पर एक खुद ही खुद की समाज ने जो एक आपत्ति बिछा दी है इससे परेशानी है । अन्य बातों में हम आप अपने मन को बहुत संभाल सकते हैं, जो भी स्थितियां आयें उनमें गुजारा कर सकते हैं । कर्तव्य तो धनिक बनने का नहीं है जीवन में । आखिर सब कुछ यहाँ से छोड़कर जाना होगा । इज्जतवान, पोजीशनवान बनना भी हमारा कर्तव्य नहीं है जीवन में, पोजीशन बनाकर मिलेगा क्या, आखिर सब कुछ छोड़कर जाना होगा, बस अपने आत्मस्वरूप का अनुभव हो जाय यही काम जीवन में करने का है । यह काम नियम से आगे बहुत बड़ी मदद देगा । बाकी और काम हमारा कुछ भी साथ न देंगे, बल्कि दुःख के ही साधन बन रहे हैं ।
अपनी अविनश्वरता व भावों पर भविष्य की निर्भरता जानकर आत्मकरुणा में भलाई―हम जीव हैं, हम अपने को मिटा कहां सकते हैं? अनादि से हैं, अनंत काल तक रहेंगे, इस मुझ का कभी विनाश हो नहीं सकता, तब यह किसी न किसी हालत में रहेगा । जैसे मैं आज इस मनुष्य की पर्याय में हूँ और जो-जो परिस्थितियां बना रखी हैं उन परिस्थितियों में हूँ तो आगे भी किसी न किसी हालत में रहूंगा । यदि यह अपने स्वरूप का ज्ञान कर लेता है, एक बार अनुभव कर लेता है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, केवल चैतन्यस्वरूप हूँ, सबसे निराला हूँ, मुझमें केवल मैं ही हूँ, अखंड हूँ, सदा सुरक्षित हूँ; अविनाशी सत् हूँ । किसी दूसरे से इसका रंच भी संबंध नहीं है । केवल ज्ञानमात्र, अपनी सत्तामात्र अपने को अनुभव कर लिया जाय तो उससे बढ़कर इस जगत में कोई अमीर है क्या ? ये व्यर्थ की बुद्धियां जरा-जरा से राग मोह में हम बहुत बड़ी समस्यायें मान करके हम अपने जीवन में चिंतित हो जाते हैं । साहस यह बनाना चाहिए कि ये तो कोई समस्यायें ही नहीं हैं । अपने घर के स्त्रीपुत्रादिक को धर्म की ये बातें सिखा देना चाहिए कि सब कुछ निराला है, किसी भी बात में भय, चिंता न रखना चाहिए । अपने स्वरूप को देखो उसमें बड़ा वैभव भरा है, अपने स्वरूप के ध्यान के प्रताप से ही अरहंत हुए हैं, सिद्ध हुए है, जिनकी हम आप रोज उपासना करते हैं । बाहर में कहीं कुछ नहीं रखा है । अपना सब कुछ अपने अंदर ही पड़ा हुआ है, उसकी धुन बनायें, उसके लिए प्रेमी बने, यह बात यदि घर में सबको सिखा दें तब संकट क्या रहा? घर में सभी लोग धर्मप्रेमी हो गये, अब बाहरी संकोच भी नहीं रहा । जो स्थितियाँ हैं वे सब झेली जा सकती हैं । स्वयं सीख लो―अपने आपके ज्ञान में ही शांति का मार्ग मिलेगा, बाहरी पदार्थों के सुधार बिगाड़ में शांति नहीं मिल सकती ।
ज्ञानमय जीवद्रव्य में हिताहित जानने की वृत्ति―मैं हूँ, ज्ञानमय हूँ, अंतस्तत्त्व हूँ, जाननहार हूँ, हित अहित का विवेक कर सकता हूँ, पर ज्ञानरहित जो बाहरी यह सारा विश्व है यह हित, अहित नहीं जानता । आश्चर्य की बात यह है स्वयं प्रभु होकर, स्वयं एक उत्तम द्रव्य होकर, एक ज्ञानमय पदार्थ होकर इन जड़ असार पदार्थों में यह जीव रमना चाहता है और इनमें ही यह संतुष्ट रहना चाहता है, जो कभी भी संभव नहीं है, बस यह वृत्ति चल रही है । भगवत्भक्ति यथार्थ ढंग से की जाय तो, यह सब ज्ञानप्रकाश सामने आता है । तो यह ज्ञान, यह अंतस्तत्त्व, यह जीव, इसके लिए यही सर्व कुछ है, इस कारण सर्वद्रव्यों में उत्तम द्रव्य जीवद्रव्य है, सर्व उत्तम गुणों का घर यह जीव है, तत्वों में परमतत्त्व यह जीव है, उसका आदर करें । बाहरी पदार्थों का आदर जो चित्त में समाया हुआ है यह विषपान है, इसमें निरंतर जलन है, आकुलता है और, अपने आपके ज्ञानस्वरूप पर जो अपना उपयोग जाय, दृष्टि जाय, अपने की पहिचान कि मैं सिर्फ ज्ञानमय हूँ, ज्ञान के सिवाय अन्य कोई मेरे रूप नहीं है । मैं हर जगह इस ज्ञान को ही करता हूँ, इस ज्ञान को ही भोगता हूँ । यह तो उपचार कथन है कि मैं घर को करता हूँ, कुटुंब का पालन करता हूँ आदि । मैं तो सदा ही अपने विकल्पों को ही किया करता हूँ । अब दूसरे जीवों का पुण्य का उदय है तो आप निमित्त होंगे, धनार्जन होगा, उनकी सेवा बनेगी तो आप यदि धनार्जन करते हैं तो समझो कि आप तो उन पुण्यवंतों के नौकर बने हुए हैं । आपको तो रातदिन जुतना पड़ता है और घर के लोग आराम से उस धन का उपभोग करते हैं तो तुम व्यर्थ ही विकल्प करते हो कि मैं परिवार का पालन पोषण करता हूँ । आप तो अपने ज्ञान को ही करते हो, ज्ञान को ही भोगते हो । ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ नहीं करते । एक ऐसी अंतःदृष्टि तो बनाओ ।
भगवत्प्रज्ञप्त रत्नत्रयमार्ग से ही परमशांति की संभवता―शांति का उपाय दुनिया के सभी लोग सभी प्रकार से बताते हैं और यह भी उनका कहना बहुत अंशों में ठीक है कि सबसे पहिले तो घर गृहस्थी के व्यापार भोजनपान आदिक का सामर्थ्य होना चाहिए । तो ठीक है, पर पुण्यकर्म के उदय से जब हम मनुष्य हुए हैं तो हमारा उदय इतना अवश्य है कि इतने साधन मिलते रहेंगे, पर मुख्य काम तो ऐसा मार्ग ढूँढ लेने का है कि जिससे नियम से शांति ही प्राप्त हो, वहाँ कोई दूसरी ही बात नहीं, वह मार्ग है जिनेंद्र देव के द्वारा बताया गया सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप । जब इन बाहरी विकल्पों को त्यागकर हम इस ओर आते हैं कि प्रभु ने जो उपदेश दिया है और जिन प्रभु को हम आपने पूज्य माना है तो प्रभु के उपदेश में बल । अवश्य है, सार अवश्य है, और यही सारभूत काम आता है कि हम सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त करें । अपने को जाने मानें और अपने में रम जायें । ज्ञानी पुरुष बड़ा साहसी पुरुष होता है । जब धनंजय सेठ भगवान की पूजा कर रहे थे और उसी समय धनंजय के बच्चे को साँप ने डस लिया तो बच्चे की माँ ने सेठ के पास खबर भिजाया कि बच्चे को सर्प ने डस लिया है, लेकिन वह प्रभुभक्ति में इतना मग्न थे कि कुछ भी न सुना, दुबारा फिर खबर भिजाया पर धनंजय ने अनुकूल कर दी । तो गुस्से में आकर धनंजय की स्त्री ने उस अधमरे बच्चे को मंदिर में पहुंचा दिया और यह कहकर कि बच्चा मरे चाहे जिए, तुम जानो, छोड़कर चली गई । आखिर धनंजय सेठ प्रभुभक्ति में लीन रहे । आखिर उपयोग ही तो है । वहीं स्तवन भी रच डाला, और उनकी भक्ति का ऐसा माहात्म्य हुआ कि वह बच्चा स्वयं निर्विष हो गया और खड़ा हो गया । तो यह बात तो पुण्योदय की है, अलग बात है लेकिन ज्ञानी की धुन तो देखिये―कितना महान साहस है कि कोई भय नहीं, कोई घबड़ाहट नहीं, कोई विकल्प नहीं, और एक अपने ज्ञानमार्ग में ही लगा हुआ है तो साहस बिना इस जीव का कोई साथी नहीं हो सकता है । यहाँ कौन मददगार है? हमारा ज्ञान विवेक भीतरी साहस यही हमारा साथी बनेगा, दूसरा कोई हमारा साथी नहीं । पवित्र भाव रखें ।
हितार्थी का एक मात्र कर्तव्य―एक दृष्टि से निहारने पर विदित होगा कि जो होना है वह होकर रहेगा । अवधिज्ञानी ने, प्रभु ने जो जान रखा है, हम जानते नहीं हैं, होगा विधिविधानपूर्वक, मगर होने को कौन रोकेगा? होकर रहेगा । तब हम उसके करने वाले क्या? जिस जीव का जैसा उदय है उसके अनुसार उसे सर्व सामग्रियां प्राप्त होती हैं । मैं कुछ भी करने वाला नहीं हूँ । मेरा तो वह स्वरूप है जैसा कि प्रभु का है । जैसे प्रभु में ज्ञानदर्शन आनंद प्रकट है वैसे ही ज्ञान, दर्शन, आनंद मुझ में शक्तिरूप है । जाति एक है, आत्मा ही तो प्रभु है, आत्मा ही हम हैं । जो स्वरूप प्रभु का है वही मेरा है । पर अंतर यह हो गया कि प्रभु ने तो ज्ञान वैराग्य का उपाय बनाकर कर्मों का नाश किया, प्रभुता पायी और यहाँ हम ज्ञान वैराग्य का सहारा नहीं ले रहे, इसी कारण जन्म मरण करते हैं । आज मनुष्य हैं तो इतना ख्याल है, इतना परिचय है, कुछ विचार भी है और मनुष्य न रहे, मरकर पशु पक्षी कीट पतंगा आदि हो गए तब तो समझिये कि हम क्या करें? यह जीव जैसी स्थिति में है उस ही में यह बड़ा दुःख मानता है, मगर इससे भी करोड़ों गुना दुःखमयी स्थितियां हैं अनेक भवों में । जीव तो भैंसा, बैल आदिक भी हैं जो कि गाड़ी में जोते जाते हैं, चलते नहीं बनता फिर भी पिटते जाते हैं । उनको पूछने वाला यहाँ कौन है? जीव हम भी हैं, जीव जाति तो समान हैं । हम आज अच्छी स्थिति में आकर भी अपने को दुःखमय अनुभव करते हैं । कोई भी हो बड़े से बड़ा, करोड़पति भी यही अनुभव करते हैं कि अभी मेरी ऊंची स्थिति नहीं है इस कारण वे आकुलता मानते हैं पर उससे और नीची स्थिति हो किसी की तो क्या उसका जीवन नहीं चलता है तो अनेक दुःखमय स्थितियां हैं जगत में । यहाँ के समागमों से सुख की आशा करना व्यर्थ है, शांति की आशा करें तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से करें । मैं अपने स्वरूप को जान लूँ, पहिचान लूँ; वहीं रमकर रह जाऊं, ऐसी धुन ऐसा विचार, ऐसा यत्न बनायें, इस ओर लक्ष्य दें कि करने योग्य काम केवल एक ही है, बाकी सब काम असार हैं । कुछ भी काम कर डालो उससे आप यह अनुभव न कर पायेंगे कि जो कुछ हमें करना था वह सब कर चुके । किसी बाहरी दशा में बढ़कर देख लो । आपको यह संतोष न होगा कि जो कुछ मुझे करना था सब कर चुके, अब कुछ नहीं करना है, लेकिन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में बहुत संतोष पायेंगे । समझो कि जो कुछ हमें करना था वह सब कर लिया । अब मुझे कुछ करने को बाकी नहीं है । तो इस अपने निरपेक्ष सहज ज्ञानमय स्वरूप को समझें और
उसमें ही मग्न रहकर अपना कल्याण करें ।