वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 204
From जैनकोष
उत्तम-गुणाण धामं सव्व-सव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परम तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदे ।।204।।
जीव की उत्तमगुणाधाररूपता―उत्तम गुणों का घर यह जीव है । पदार्थ अनेक हैं और प्रत्येक पदार्थ में अनंत गुण होते हैं । जैसे पुद्गल हैं, जो दिख रहे हैं उनमें जो एक-एक परमाणु हैं उनमें रूप रस गंध स्पर्श आदिक अनेक गुण हैं किंतु उन गुणों की महिमा जीव हित में नहीं है और जीव में ज्ञान दर्शन चारित्र आदिक अनंत गुण है, तो इन गुणों की बड़ी महिमा है । कारण यह है कि जीव जानने वाला है इसलिए लोक में जितने भी पदार्थ हैं सभी पदार्थों में प्रमुख द्रव्य जीव है । जीव न हो तो यह पता कैसे लगे कि लोक में क्या-क्या है? है जो कुछ है सो है । और देखिये यदि जीव न होता गे ये सब जो किवाड़ भींत, चौकी, दरी आदिक पदार्थ दिख रहे हैं ये भी न होते । जैसे यह जो काठ है तो आखिर पहिले वृक्ष था, तभी तो यह काठ बना । यह वृक्ष की सकल कैसे बनी? वहाँ जब जीव आया और जीव ने आहरण किया तो उसका रूप बना, वृक्ष बना । ये जो ईंट भींट आदिक दिख रहे हैं ये पृथ्वी जीव ही तो थे । जो-जो भी चीजें यहाँ दिख रही हैं वे सब इस जीव के संबंध से ही बनी हैं । यदि यह जीव न होता तो ये कोई भी चीजें न होती । सर्व जगत शून्य होता । तो सर्वजीवों में जीव पदार्थ की इतनी बड़ी महिमा है, अंत: देखिये कि जितने भी लोग क्लेश मान रहे हैं वे सब इस अज्ञान से हैं, तो ऐसी स्थितियां कि जिनको आज के लोग कहते हैं कि कैसे छोड़ा जाय, कच्ची गृहस्थी है, क्या करेंगे ये बच्चे लोग? कैसे होगा घर का काम पर पुराने ऋषि संतों को देखो जब वे विरक्त हुए तो सब कुछ छोड़कर चल दिए । सुकौशल स्वामी की स्त्री के पहिला ही गर्भ था, पर जब उन्हें वैराग्य हुआ तो छोड़ छाड़कर चल दिए । लोगों ने बहुत समझाया कि अभी कच्ची गृहस्थी है, संतान हो जाने दीजिए, उसका राज्य अभिषेक कर दीजिए, परंतु उन्होंने एक भी न सुनी । इस जीव को जब ज्ञानज्योति जगती है तो फिर वहाँ अदया नहीं कह सकते । दया और अदया का प्रश्न तो वहाँ है, जहाँ कषाय है, जहाँ केवलज्ञान है और यह जान भी लिया गया कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, वे अपने उत्पाद व्यय ध्रौव्य से परिणमते रहते हैं, उनका कोई दूसरा रचने वाला नहीं है । तो जब यों सम्यक् ज्ञान का उदय आयेगा तो वहाँ अदा का कोई क्षण अवसर नहीं । जान लिया कि मैं मैं हूँ, पर पर है, मेरा भविष्य मेरे पर ही निर्भर है, सत्यज्ञान हो गया, विरक्त हो गए ।
बाह्य व्यवसाय की अनर्थकता―लोग तो सोचते हैं कि खूब धन कमाओ, किसलिए? तो वहाँ दो उत्तर मिलते हैं एक तो यह कि इस लोक से मेरी इज्जत बढ़ेगी, जहाँ जायेंगे समाज में अग्रस्थान मिलेगा, मेरी पूछताछ होगी, दूसरा उत्तर यह होगा कि हमारे लड़के लोग सुखपूर्वक रहेंगे । दोनो के उत्तर की बात सोचें कि जिन लोगों में हम इज्जत चाहते हैं वे लोग हैं क्या? संसारी प्राणी, जन्म मरण के प्रेरे, महादु:खी लोग हैं और उनमें मैं अपनेलिए कोई पोजीशन चाहूं तो यह अज्ञान है । यहाँ किसको पोजीशन रही?
चक्रवर्ती जब छह खंड पर विजय प्राप्त करमे वृषभाचल पर्वत पर आता है अपना नाम खोदने के लिए तो उसको जगह नहीं मिलती । उसे विवश होकर किसी नाम को वहाँ से हटाकर उस जगह अपना नाम लिखता पड़ता है, 40-50 कोश का वह विस्तार है पर कहीं अपना नाम खोदने के लिए उस चक्रवर्ती को जगह नहीं मिलती। तो देखिये न जाने कितने ही चक्रवर्ती हो गए, पर सभी को यहाँ का सब कुछ छोड़कर जाना पड़ा । तो यह सांसारिक इज्जत पोजीशन कुछ सारभूत चीज नहीं है । हम यदि अपने आत्मा का सही स्वरूप का ज्ञानानुभव कर लेते हैं निर्विकल्प बुद्धि से गुप्त होकर, बाहर से किसी में भी कुछ अपनी बात न जताने का भाव रखकर यदि भीतर वह अपने ज्ञानस्वरूप को देखकर उसमें मग्न होकर एक बार भी अनुभव कर लें, जिसे स्वानुभव कहते हैं, सम्यग्दर्शन कहते हैं, वह अनुभव अगर प्राप्त हो तो सच्चा मार्ग उसे मिलेगा और वह जानेगा कि आनंद का उपाय यहीं अपने अंदर है । बाहर में आनंद का उपाय नहीं है । जिन्होंने यह जान लिया उनको मोह उत्पन्न नहीं होता । दूसरी बात घर में जितने भी कुटुंबी जन हैं वे सब जीव ठीक उतने ही जुदे है जितने कि जगत के अनंत जीव । खूब तर्क-पूर्वक विचार लीजिए । जब सत्ता न्यारी-न्यारी है, प्रत्येक जीव अपने ही भाग्य से जन्म मरण करता है, सुखी दुःखी होता है, मेरी व्यवस्था मेरे ही साथ है, उसका सत्व उस ही में है, उसका कोई गुण मेरे में नहीं है । तो अपने से भिन्न जैसे जगत के अनंत जीव हैं उसी प्रकार भिन्न ये घर में बसे हुए जीव हैं । इनका उदय है । कोई चाहे कि हम इन बच्चों का ऐसा साधन बना जायें कि ये सदा सुखी रहें तो जीवनभर बड़ा श्रम करके अपना जीवन बिताया, पर होगा वैसा जैसा कि उनका उदय है । तो आप कुछ भी काम कर लें, पर परिजनों का जैसा उदय है उसके अनुसार चीजें प्राप्त होंगी । अगर परिजनों का उदय अनुकूल नहीं है तो चाहो आप कितना ही कुछ जोड़कर धर जायें, सब निकल जायगा ।
सागारजीवन में सही योजना―आपकी जो योजना अभी तक चल रही है वह कोई सही योजना नहीं है । जैन धर्म में यह बताया है कि गृहस्थजनों का कर्तव्य है कि वें न्यायनीति से धनोपार्जन करें, उसमें उदयानुसार जो भी आय हो उसमें व्यवस्था बना लें । आय का कुछ भाग गृहस्थी के खर्च के लिए, कुछ भाग धार्मिक कार्यों के लिए, कुछ भाग परोपकार के लिए, कुछ बचत के लिए, यों विभाग बनाकर धन का उपयोग करें । जब जैसी स्थिति हो उसी माफिक उसका विभाजन करके अपनी व्यवस्था बना लें । स्थिति कैसी भी आये उसमें घबड़ाये नहीं । कभी यह आकांक्षा न रखें कि हमारे पास इतना धन हो जाये तव हम स्वतंत्र होकर धर्मपालन में लग जायेंगे । अरे इस धर्मपालन के कार्य को अभी से करने लगना चाहिए, क्योंकि जब आपकी पूर्व में चाही हुई स्थिति आ भी जायेगी तो वहाँ आपके और ढंग के विकल्प बन जायेंगे, वहाँ भी आप अपने को फंसा हुआ अनुभव करेंगे और धर्मपालन में लगने का काल और भी लंबा होता जायगा । इस धर्मपालन के कार्य को फिर कभी कर भी न सकेंगे । देखिये-अनेक घटनायें सुनने में आती हैं कि चलते फिरते अचानक ही किसी का मरण हो गया । तो ऐसी स्थिति में अपना कर्तव्य यह है कि अपने आत्मा की सुध लें । अपने आपकी सम्हाल करें, अपनी सम्हाल अगर बन जायगी तो बाहरी बातें अनायास बन जायेंगी । जब तक संसार में हैं तब तक स्थितियाँ अच्छी मिलेंगी । एक अपने आपकी सम्हाल न हो पायी तो बाहरी स्थितियाँ भी ठीक न रहेंगी और अपना भविष्य भी ठीक न रहेगा, इस कारण सम्यक्त्व लाभ पर आचार्य संतों का प्रमुख अनुरोध रहा कि किसी भी प्रकार इस सम्यक्त्व की प्राप्ति हो ।
सम्यक्त्वलाभ का परिचय और महत्त्व―सम्यक प्राप्त हुआ या नहीं इसको यदि जानना है तो अपने अनुभव से जान भी सकते हैं । हमको किसी भी समय क्या ऐसी स्थिति आयी, क्या कभी ऐसी ज्ञानानुभूति हुई कि जहाँ किसी भी परपदार्थ का विकल्प न हो और ज्ञान में ज्ञान समा गया हो? केवल ज्ञान ज्योति ही ज्ञान में आयी हो, ऐसी अनुभूति हुई हो कभी जो एक अनुपम आनंद को उत्पन्न करता हुआ होती है, तो समझिये कि हमें सम्यक्त्व का लाभ हुआ है । अपने आपके ज्ञानस्वरूप की अनुभूति पा लेना यह सबसे बड़ा भारी काम है । अनेक मुनिराज ऐसे हुए हैं जिनको उनके जमाने में कोई जाने वाला भी न था, लेकिन वे भी सिद्ध हुए हैं और सिद्ध होने पर उनका ज्ञान, उनका आनंद वैसा ही है जैसा कि बड़े-बड़े प्रसिद्ध पुरुष आदिनाथ जैसे तीर्थंकर सिद्ध हुए हैं, तो जगत में कोई मुझे समझे, पूछे, जाने, ये सब विकल्प तो इस अज्ञान की नींव पर होते हैं । पवित्र जैन शासन को पाकर असली कमाई यह करना है कि हम अपने आपमें एक बार भी बाहरी पदार्थों का ख्याल तजकर, निर्विकल्प रहकर ज्ञानस्वरूप की अनुभूति को प्राप्त करें । यह काम जताने से नहीं होता, यह काम दिखाने से नहीं होता । जहाँ भी हों, अपने आप पर यदि दया हुई हो कि ये जन्ममरण तो संसार के झंझट हैं और हमें इस जन्म मरण से छुटकारा बनाने के उपाय में ही लाभ हैं । यदि ऐसी करुणा और रुचि जगी हो तब तो सम्यक्त्व का उपाय बन सकता है अन्यथा नहीं । तो आप यह निर्णय कर लें कि ये बाहरी समागम मेरे कब तक साथी हैं? क्या अब भी साथी हैं? क्या मेरे को सुख शांति के साधन हैं या आकुलता के साधन हैं या विकार के साधन हैं? यह ही निर्णय करके देख लो । यदि यह बात सत्य समझ में आये कि सर्व जीव अजीव यहाँ तक कि यह देह भी मेरे स्वरूप से अलग चीज है और इसके लगाव में मेरे को शांति नहीं सन्मार्ग नहीं है । यदि ऐसा निर्णय बने तो चाहे आप विशेष न कर सकें पर कोई समय आप उपेक्षा करके अपनी उस निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप अनुभूति को पा सकते हैं । हैं । वह अनुभूति यदि मिले तब तो समझिये कि हमारा यह मनुष्यभव पाना सार्थक है । और वह अनुभूति अगर न मिली तो जैसे अनेक भव पाये, मरण किया, जन्म लिया, बस उसी परंपरा में यह भव भी पाया, जन्म लिया, मरण किया मगर हाथ कुछ न लगेगा । एक अपने इस जीवतत्त्व को देखें, अपने अंत: वैभव को देखें कि मेरे में वास्तविक विभूति क्या बसी हुई है? अनुपम प्रतिभासमात्र, ज्ञान ज्योति स्वरूप, जिसकी उपमा देने के लिए जगत में कोई पदार्थ न मिलेगा। आप आकाश का उदाहरण दे सकेंगे क्या? यद्यपि आकाश अनंतप्रदेशी है लेकिन वह अचेतन है । जितना यह आकाश है यह सब तो इस चेतन के एक कोने में पड़ा रहता है । जब ज्ञान का विकास होता है तो तीन लोक और तीन काल के सर्वपदार्थ इसके ज्ञान में समाये रहते हैं ।
जीव की सर्वद्रव्यों में साररूपता―यह जीव उत्तम गुणों का घर है । सर्वद्रव्यों में उत्कृष्ट यह जीवतत्त्व है । जहाँ समयसार की व्याख्या की है तो वहाँ अर्थ बताया है कि समय नाम हैं सर्व पदार्थों का । समय में दो शब्द हैं―सम और अय् । अय् के मायने हैं प्राप्त होना । जो अपने गुण पर्यायों को प्राप्त करे उसको समय कहते हैं । तो समय मायने-चीज, वस्तु, पदार्थ । तो समय 6 प्रकार के हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । और, इन सब समयों में मायने सर्वपदार्थों में सारभूत पदार्थ है जीव । तो समय नाम जीव का भी है । जो एक साथ सर्व गुण पर्यायों को जाने उसे समय कहते हैं । तो इन सब पदार्थों में श्रेष्ठ है जीव, और इस जीव में भी सारभूत चीज क्या है? तो जीव के रूप बहुत विस्तृत हैं । देव, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, एकेंद्रिय, दो इंद्रिय आदिक बहुत विस्तार हैं । और, भावों की दृष्टि में अनेक प्रकार के क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनेक विस्तार हैं जीव में, लेकिन उन सब विस्तारों में कुछ सार नहीं है । सारभूत तो एक वह ज्ञानमात्र स्वरूप है । उसका कितना विस्तार है, मूल में तो कोई एक बात है, अनेक बातें तो आयी हुई होती हैं और मूल बात कोई एक होती है । तो जीव में मूल बात एक चेतना है, फिर रागद्वेष मोह आदि ये सब तो आयी हुई बातें हैं । तो जो स्वाभाविक है, सहजस्वरूप है ऐसा जो चेतना धर्म है चैतन्य, वही सार है । अपने आपको हर एक जीव किसी न किसी रूप में श्रद्धान किए हुए है―मैं अमुक चंद हूँ, अमुक प्रसाद हूँ, अमुक लाल हूँ, समझदार हूँ, कम समझदार हूँ आदि । मैं क्या हूं? हर एक के वित्त में इसका कोई न कोई उत्तर मिलता है । जब यह अंत: उत्तर आने लगे कि मैं विशुद्ध चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व हूँ तब समझिये कि हाँ अब मैंने अपने आपको पहिचाना । पर अपने आपकी बात माने कैसे? इसके लिये तत्त्वज्ञान का अभ्यास करके उसका दृढ़ श्रद्धान बनाइये । जब यह श्रद्धान बनता है कि मैं चैतन्यमात्र हूँ तब समझिये कि हमने अब सारभूत चीज प्राप्त की ।
जीव में सार स्वरूप के लाभ का उद्यम―जीव में भी सारभूत बात ज्ञानसाधना है, उसकी प्राप्ति के लिए ही यह उपाय है कि देवदर्शन करें, भगवान की रोज-पूजा करें । उसमें हम क्या सीखते हैं? वहाँ गुणों का स्मरण तो करते हैं, पढ़ करके, चरित्र बाँच करके हम प्रभु के गुणों का स्मरण करते हैं, क्यों करते हैं कि उनका स्मरण करने से हमें अपनी अनुभूति की खबर आ जाय कि मैं भी ऐसा एक श्रेष्ठ तत्त्व हूँ ज्ञानस्वरूप । इसे न मानकर और अन्य-अन्य रूप अपने को मानकर यह जगत में भटकना बन रहा है । आज यहाँ हैं तो यहाँ के प्राप्त समागमों को अपना मानते हैं, उन्हें ही अपना सर्वस्व समझते हैं, इस भव के पहिले जब किन्हीं अन्य भवों में थे तो वहाँ के प्राप्त, समागमों को अपना मान रहे थे, उनको ही अपना सर्वस्व समझ रहे थे, परंतु जैसे पूर्वभवों के प्राप्त समागम आज अपने लिए कुछ नहीं हैं ऐसे ही आज के ये प्राप्त समागम भी सब विघट जायेंगे। मेरे लिए ये कुछ भी न रहेंगे । यह जीव इस ममता के कारण इन प्राप्त समागमों को नया और अपूर्वसा समझता है । जब तक यह ममता इस जीव के साथ रहेगी तब तक यह प्राप्त होने वाले समागमों को नई चीज और एक अपूर्व चीज मानता रहेगा । धन्य हैं वे जीव जो कि इस ममता की धारा को तोड़ देते हैं । अपने सत्यस्वरूप के परिज्ञान से यही फायदा मिलता है कि यह मोह टूट जाता है ।
मोह से निवृत्त होने में ही भलाई―इस मोह को मोही लोग बड़े प्रशंसा के रूप में लेते हैं, जैसे इसको अपने घर से बड़ा मोह है, यह अपने घर का बड़ा ख्याल रखता है आदि, पर ये स्वार्थीजन ही इसको प्रशंसा के रूप में लेते हैं । मोह टूट जाने में कोई हानि नहीं है । मोहरहित होकर घर में रहने में शांति का उदय है । मोह और राग में अंतर है । घर में रहते हुए राग न करें यह बात न बन सकेगी । अगर राग नहीं कर रहा है तो वह घर में रह नहीं सकता, स्थिति ही ऐसी है, पर मोह न रहे घर में फिर भी वह घर में रह सकता है, उसकी सीमा है । मोह और राग में यह अंतर है कि मोह में तो भरा है अज्ञान । जैसे―यही लोग मेरे लिए सर्वस्व है, इनके बिना मेरी जिंदगी नहीं, इनको छोड़कर अन्य कोई मेरे लिए शरण नहीं, मेरा सर्वस्व प्राण ये ही हैं । मोह में अपने आपके स्वरूप की सुध नहीं रहती, पर राग रहते हुए भी अपने स्वरूप की सुध रह सकती है, यदि मोह न हो । घर में है, संहनन भी वैसा नहीं है, परिस्थिति ऐसी नहीं कि हम सर्व का परित्याग कर दें, रहना पड़ता है तो राग तो करना ही होगा, धनार्जन भी करना होगा, सबकी खबर लेना ही होगा, लेकिन उसको मोह नहीं है । उसे सत्य ज्ञान है कि ये जीव उतने ही जुदे हैं जितने कि जगत के अन्य जीव जुदे हैं, यह देह भी मेरा मेरे से ऐसा जुदा है जैसा कि अनेक पुरुषों को मरण के बाद देखा भी है कि देह उनका वहीं पड़ा रह गया, बिछुड़ गया, जीव निकल गया, ये सब उदाहरण उसके सामने रहते हैं, तो उसके मोह नहीं रहता । मोह और राग में अंतर है । मोह और राग का अंतर इस तरह भी जान सकते हैं कि जैसे कोई सेठ रोगी हो जाय तो उसके लिए घर में आराम के बड़े साधन बड़ा दिए जाते हैं, अच्छा कमरा, अच्छा पलंग, दो चार नौकर, समय पर डाक्टर लोग दवा भी देते, दवा देने में जरा देर हो गई तो वह सेठ झुँझला भी जाता है, तो देखिये उस सेठ को उस औषधि में राग है, पर मोह नहीं है । मोह के मायने अंधेरा, वह रोगी सेठ नहीं चाहता कि मुझे आज जो आराम मिल रहा है वैसा आराम जिंदगीभर मिले । यद्यपि उस सेठ को उस औषधि से राग है फिर भी उसके चित्त में यह बात बसी हुई है कि कब यह औषधि छूटे और मैं दो चार मील दौड़ प्रतिदिन लगा सकूं । तो ऐसे ही समझिये कि हम आप गृहस्थी के अंदर रहकर भी ऐसा विवेक बना सकते हैं कि वहाँ राग तो रहे पर मोह न रहे । तो देखिये भीतर की बात अपनी समझ से, अपने ज्ञान से अपने आपमें घटित करके यदि एक इस अंधेरे को दूर कर दिया जाय तो घर वही है, परिजन वहीं हैं पर खुद का जीवन उजेले में आयगा । और, एक मोह न हटा तो जीवन उजेले में न रहा, जीवन अंधकार है, शांति का रास्ता नहीं पाया जा सकता ।
ज्ञानोद्यमन की अपूर्वता―जो ज्ञानी पुरुष हैं उनके बाह्यपदार्थों की परिणति में कुछ उल्झन नहीं है । बाह्य में जो कुछ होता है उसके ज्ञातादृष्टा रहते हैं । धन कम हुआ तो क्या है, न कोई बाह्य पदार्थ मेरा कुछ था, न है,
न होगा, उसके प्रति क्या दुःखी होना? कोई इष्ट वियोग हों गया तो क्या है ? जगत में तो यह बात होती ही रहती है, जिसके आयु का क्षय जब होना था हो गया, उसके पीछे क्या दुःखी होना? यों ज्ञानी पुरुष बाह्यपरिणतियों से अपनी कुछ हानि नहीं समझते हैं । बस यही फर्क रहता है निर्मोही और मोही गृहस्थ में । यदि तत्त्वज्ञान जगाकर एक इस मोह को दूर कर लिया जाय तो समझिये कि मैंने अपने जीवन में सब कुछ पा लिया । यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि देखो तो अपने स्वरूप को । यह उत्तम गुणों का घर है । सर्वद्रव्यों में उत्तम है और तत्वों में यह परम तत्त्व है, एक अपने स्वरूप को निहारकर अपने आपमें वह घटित करता है कि मेरे लिए मैं ही सब कुछ हूँ, मेरी ही करतूत मुझे सुख दुःख देती है । जैसा मेरा ज्ञान होगा उसी प्रकार का मेरा भविष्य बनेगा । इस बंधन से मुक्त करने के लिए भी कोई दूसरा न आयेगा, खुद को ही करना होगा । तो अपने आप पर कुछ दया करके इस जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त करने का उपाय प्राप्त हो, ऐसा मन में निर्णय करना और उसके अनुसार चलना, भगवान की भक्ति करके, स्वाध्याय करके अपने आपको अकेला अनुभव करना है, जिस किसी भी प्रकार से पर का विकल्प छूटकर एक बार भी ज्ञानस्वरूप का अनुभव पा लेना यही अपने जीवन का एक प्रधान उद्यम होना चाहिए ।