वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 211
From जैनकोष
का वि अउव्वा दीसदि पुग्गल-दव्वस्स एरिसी सत्ती ।
केवल-णाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ।।211।।
पुद्गल के स्वरूप और सामर्थ्य का वर्णन―यहां पुद्गल का वर्णन चल रहा है कि पुद्गल द्रव्य कैसे होते हैं, कितने भेद वाले हैं? जगत में जो कुछ दिख रहा है ये सब पुद्गल है, और ऐसे भी पुद्गल हैं जो आंखों दिखते नहीं । जिन में रूप, रस, गंध स्पर्श पाया जाय उसे पुद्गल कहते हैं । उनमें कोई पुद्गल दिखते हैं कोई पुद्गल आँखों नहीं दिखते । जैसे कर्म ये भी पुद्गल हैं । कर्मों की बात सभी लोग कहते हैं, कर्म, तकदीर, भाग्य, देव आदि किंतु कर्म का क्या स्वरूप होता है, इस बात का वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता । कर्म पौद्गलिक हैं, उनमें रूप, रस, गंध, स्पर्श पाया जाता है, ऐसे कर्म कैसी शक्ति रखते हैं और ये दिखने वाले पदार्थ कैसी शक्ति रखते हैं उस बात का इस गाथा में वर्णन है । कहते हैं कि पुद्गल द्रव्य की कोई अपूर्व ऐसी शक्ति मालूम होती है कि जिसके कारण जीव का केवल ज्ञानस्वभाव नष्ट हो गया है । जीव में ज्ञान का स्वभाव और स्वभाव के कारण ज्ञान में इतना विशाल स्वभाव पड़ा है कि जगत में जो कुछ भी था, है, और होगा वह सब कुछ ज्ञान जान लेता है । तो इतने समस्त पदार्थों को जानने का स्वभाव होने पर भी आज जीव में यह ज्ञानस्वभाव प्रकट नहीं देखा जा रहा है । केवलज्ञान यदि होता तो कोई झगड़ा न था । यह मोह इस कम ज्ञान में ही तो बनता है । कम ज्ञान है, समझ में नहीं आता, स्वरूप का बोध नहीं, कुछ आगे पीछे की मालूम नहीं, तो विकल्प करते हैं, पर से लगाव रखते हैं, केवलज्ञान होता है तब जब रागद्वेष मिट जायें, और केवल ज्ञान होने पर तीनों काल, तीनों लोक के सर्व पदार्थ स्पष्ट ज्ञान में आते हैं, उनके अज्ञान ही नहीं है, विकल्पों का वहाँ किसी भी प्रकार मौका नहीं है, ऐसा ज्ञान हम आपके आज तो नहीं है ।
आत्मस्वभाव को विपरिणत कर देने में पुद्गलद्रव्य की विलक्षण शक्ति का विवरण―सकलज्ञान हम आपके क्यों नहीं है? कोई दूसरी चीज हम आपमें साथ ऐसी लगी है कि जिसका निमित्त पाकर हम आप शुद्ध ज्ञान, नहीं हैं । तो ऐसा अंतरंग निमित्त है कर्म । कर्म का उदय होने से, ज्ञानावरण कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव का ज्ञानस्वभाव ढक गया है, और दिखने वाले जो ये पदार्थ हैं, सोना, रत्न, हीरा माणिक, धन, धान्य, शरीर स्त्रीपुरुष, चेतन, अचेतन पदार्थ, इनमें भी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि जिसका आश्रय लेने से ज्ञानस्वभाव हमारा ढक गया है । जीव जब रागद्वेष करता है तो इसे जो वस्तु अच्छी लगती है उसमें राग करता है, क्यों अच्छी लगती है कि इसको अपने ज्ञानस्वभाव का पता नहीं है और न आत्मा का शुद्ध स्वभाव क्या है, इसकी वास्तविक करनी क्या है, न इसका भान है, तो बाहरी पदार्थों में लग रहा है, कहीं तो रमेगा यह जीव । जब खुद का धाम इसको रमने के लिए न मिले तो यह बाह्य पदार्थों में रमता है । इष्ट वस्तु में राग और अनिष्ट वस्तु में द्वेष करने से कर्म का बंध होता है और उस कर्मबंध के कारण उनका उदय आने पर नये-नये कर्म बाँधता रहता है, नये-नये जन्म और मरण करता रहता है । मरण में शरीर मिलता है शरीर में इंद्रियाँ होती हैं । इंद्रियों के द्वारा फिर इन विषयों का उपभोग करता, उससे फिर इसे इष्ट वस्तु में राग और अनिष्ट वस्तु में द्वेष होता है, बस रागद्वेष से कर्मबंध, कर्मोदय से रागद्वेष यह परंपरा अनादिकाल से चली आयी है । इससे इस जीव का जो वैभव है वह सब विकृत हो गया है ।
विकल्प करके स्वयं के द्वारा शांति का विघात―आज यह स्थिति है कि शांति नहीं है, इस जीव को शांति नहीं है सो अशांति कोई दूसरी चीज नहीं पैदा कर रही, यह खुद ही कल्पनायें बनाता है और अशांत हो जाता है । पड़ोस के लोग, बिरादरी के लोग, देश के लोग हमें कुछ समझें, हमारी इज्जत करें, इनमें मेरी पोजीशन रहे आदि ये सब व्यर्थ के ख्याल बनाये जाते हैं । अरे इस जीवतत्त्व को समझने वाला यहाँ है कौन? मुझ को समझने वाला यहाँ कोई नहीं है । और मान लो आज मनुष्य न होते, अन्य किसी भव में होते, जैसे कि ये कीड़ा, मकौड़ा, वृक्ष, पृथ्वी आदिक, तो फिर ये कौन मनुष्य मुझे समझता? तो आज मनुष्य होनेपर भी जो मेरा अंत:स्वरूप है उसको समझने वाला यहाँ कोई नहीं है, बाहरी नाक, आँख, कान आदिक को देखकर ही लोग नाम रखते हैं । तो यहाँ कोई हमारा जानने समझने वाला नहीं है । किसको क्या पोजीशन दिखाना, किसको क्या करना? परिग्रह परिमाण व्रत में बताया है कि दूसरे विशेष पुण्यवानों का वैभव देखकर अपने में पोजीशन बढ़ाने की भावना करना और ऐश आराम के साधन जुटाने की अभिलाषा करना इसको पाप बताया है । इससे अशांति मिली है । यह अधर्म है ।
पर का व्यामोह छोड़कर अपनी सम्हाल करने का अनुरोध―जैनशासन का उपदेश है कि गृहस्थजन न्यायवृत्ति से काम करें और पुण्यानुसार जो उन्हें लाभ होता है उसके ही अंदर अपनी व्यवस्था बनायें, लोकलाज को छोड़ दें कि लोग क्या कहेंगे ये बड़े गरीब हैं, इनकी पोजीशन साधारण है । अरे कहने वाले हैं, उनका मुख है, उनका भाव है, उनसे मेरे में क्या बिगड़ होता है? यदि अपने धर्म से हम डिग गए, स्वभाव से हम चिग गए तो इसका फल यहाँ कोई दूसरा भोगेगा क्या? पाप करने का बुरा फल होगा, जिनके लिए पाप किया जा रहा है अथवा जिनका लक्ष्य करके पाप किया जा रहा है वे कोई मददगार नहीं हो सकते । अपनी बात अपने को सम्हालनी है । अगर सत्य बोध हो तो अशांति का कोई कारण नहीं । अशांत होता है यह जीव परिग्रह के संबंध से । और, परिग्रह का संबंध जुटाया है इस जीव ने पर्यायबुद्धि से । पर्याय से भिन्न अपने आत्मा के स्वरूप को निरख लिया जाय तो वहाँ अशांति नहीं है । दुनिया में कहीं कुछ भी हो, कैसे ही परिणमन हों, वैभव आये अथवा जाये, कुछ भी बाह्य बात हो, उस परिणमन से मेरा क्या सुधार बिगाड़ है, क्या संबंध है? ऐसा अपने आपके स्वरूप की ओर दृढ़ तो रहे, उसे अशांति नहीं हो सकती । तो यह ज्ञान नहीं है, रागद्वेष की बुद्धि है उससे ये सब विडंबनायें लग गई हैं, जो कठिन बन गई हैं, शरीर में बँधे हैं, राग होता है, मरण होता
है, जन्म लेना पड़ता है, नई-नई विपत्तियाँ आती रहती हैं, ये सब विडंबनायें अज्ञान के कारण ही तो हमने बनायी । उस अज्ञान को नहीं मिटाना चाहते । उपादान दृष्टि से तो जीव स्वयं अपने अपराध से अज्ञानी बना है, लेकिन निमित्त दृष्टि से यही बात निर्णीत है कि कर्मोदय से यह जीव ज्ञानस्वभाव को प्रकट नहीं कर पा रहा । तो पुद्गल द्रव्य में ऐसी कैसी अपूर्व शक्ति है कि जिसके कारण जीव का ज्ञानस्वभाव नष्ट किया गया है । अर्थात् केवल ज्ञानावरण कर्म के उदय से जीव अज्ञानी बना है । तो इस पुद्गल में कैसी अपूर्व शक्ति है । यहाँ तक पुद्गल द्रव्य का वर्णन किया । द्रव्य की 6 जातियाँ बतायी गई हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । तो पूर्व के दो द्रव्यों का वर्णन करके अब धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का वर्णन करते हैं ।