वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 212
From जैनकोष
धम्ममधम्मं दव्वं गमण-ट्ठाणाण कारणं कमसो ।
जीवाण पुग्गलाणं विण्णि वि लोग-प्पमाणाणि ।।212।।
धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का स्वरूप―धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ये पदार्थ हैं―पुण्य पाप का यहाँ नाम नहीं है । जैसे पुद्गल कोई पदार्थ है ऐसे ही एक धर्मद्रव्य नाम का भी पदार्थ है और अधर्मद्रव्य नाम का भी पदार्थ है । ये पदार्थ बहुत सूक्ष्म हैं, इनका वर्णन करना बहुत कठिन है । यह स्वयं मैं नहीं हूँ इस कारण अनुभव से भी इसे नहीं जान सकते । और यह अमूर्त है इस कारण इसे नहीं जान सकते । तब उपकार और कार्य निमित्त की बात कहकर धर्मद्रव्य अर अधर्मद्रव्य का स्वरूप बताया जाता है । धर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो जीव पुद्गल के गमन में सहकारी हो । अधर्मद्रव्य उसे कहते हैं जो जीव पुद्गल के ठहरने में सहकारी हो अर्थात् धर्मद्रव्य का उपकार है कि यह गमन और स्थिति में कारण होता है । धर्मद्रव्य एक है और उतना बड़ा है, जितना कि लोकाकाश है, लोकाकाश में सर्व प्रदेशों में एक-एक प्रदेश व्यापकर धर्मद्रव्य फैला हुआ है । इसी प्रकार अधर्मद्रव्य भी उतना बड़ा है बस यह उदासीन रूप से अपना सत्त्व रखता है और अपनी सत्ता से है, अपने में उत्पादव्ययध्रौव्य करता रहता है । अव उनका निमित्त पाकर जीव पुदगल चलते हैं और ठहरते हैं । तो इस जीवपुद्गल के चलने और ठहरने के निमित्त से उत्पादव्यय का ज्ञान कराया जाता और वस्तुत: उनमें द्रव्य होने के नाते स्वयं ही उत्पादव्यय है । प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप है, जैसे जीव है, मनुष्य है, आज तो मनुष्य रूप में है और मरण करके देव हो गए तो मनुष्यरूप का तो विनाश हो गया और देवरूप का उत्पाद हो गया, फिर भी जीव वही रहा । तो ऐसे ही जो भी पदार्थ हैं, सबका स्वरूप है; वह अपने में नई अवस्था बनाता है पुरानी अवस्था विलीन करता है और दोनों अवस्थाओं में भी ध्रुव रहता है । ऐसे ही धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं ।
धर्मद्रव्य की गतिहेतुता―धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी कारण होता है । जैसे―मछलियों के चलने में जल सहकारी कारण है लेकिन जल मछली को जबरदस्ती नहीं चलाता । मछली अगर ठहरे तो जल जबरदस्ती ढकेलता नहीं है कि तू ठहरी क्यों है? मैं तो तेरे चलने में कारण यहाँ मौजूद हूँ । इससे मालूम होता है कि जल उदासीन कारण है, प्रेरक नहीं, मगर जल के बिना मछली चल नहीं सकती । इस कारण उसे कारण कहा है । तो ऐसे ही धर्मद्रव्य जीव पुदगल को जबरदस्ती चलाता नहीं है कि तेरे गमन का कारणभूत मैं यहाँ मौजूद हूँ, तू चलती क्यों नहीं है? लेकिन धर्मद्रव्य के अभाव में जीव पुद्गल चल नहीं सकता । अलोकाकाश में धर्मद्रव्य नहीं है तो वहाँ जीव पुद्गल नहीं जा पाया है । इसी प्रकार एक अलौकिक दृष्टांत भी सुनो कि जैसे भव्य जीवों को सिद्धगति प्राप्त करने के लिए भगवान का स्मरण कारण है, सिद्धगति कोई गति, भेद नहीं है, किंतु चारों गतियों से रहित, जो अवस्था है उसको सिद्धगति कह लीजिए । निश्चयनय से तो जो निर्विकल्प समाधि में परिणत हुये जीव है, अर्थात् अपने उपादान कारण में आये हुए जो जीव हैं उनको सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है, फिर भी व्यवहार से देखा जाय तो जब वे सिद्धभक्ति कर रहे हैं, सिद्ध प्रभु का स्मरण कर रहे हैं उस सिद्ध के समान अनंत ज्ञानादिक गुणस्वरूप हूँ यह भावना भी तो निरर्थक नहीं जाती, परंपरा से यही भावना शुद्ध अवस्था का कारण बनती है, तो जैसे सिद्ध भगवान अमूर्त हैं, वे मुझ से क्रिया नहीं कराते, मेरे को प्रेरणा नहीं देते, पर मैं सिद्धगति के योग्य परिणति करूँ तो मेरी उस सिद्ध अवस्था की प्राप्ति में, सिद्ध गति में वह सहकारी कारण बनता है, इसी प्रकार यह धर्मद्रव्य निष्क्रिय है, अमूर्त है, प्रेरणा नहीं करता, फिर यह जीव पुद्गल अपने ही उपादान कारण से चले तो उनकी गति में सहकारी कारण होता है ।
अधर्मद्रव्य की स्थितिहेतुता―धर्मद्रव्य की तरह अधर्मद्रव्य भी लोकाकाश में व्याप्त है और वह जीव पुद्गल के ठहरने में सहकारी कारण है । जैसे मुसाफिर के ठहरने में वृक्ष की छाया सहकारी कारण है । गर्मी के दिन हैं तेज धूप है, गर्मी खूब सता रही है, मुसाफिर चलते हुए में यह इच्छा करता है कि कहीं मुझे छायादार पेड़ दिखे तो मैं उसके नीचे पहुंचकर आराम करूँ । कोई छायादार वृक्ष मिलता है, तो उसके नीचे वह ठहर जाता है । अब उस मुसाफिर को वृक्ष ने जबरदस्ती नहीं ठहराया कि मैं तेरे ठहरने का कारण यहाँ मौजूद हूँ, तुझे ठहरना पड़ेगा, किंतु उस मुसाफिर को स्वयं ही ठहरने की इच्छा थी तो उस मुसाफिर के ठहरने में वह वृक्ष कारण बन गया । ऐसे ही अधर्मद्रव्य जीव पुद्गल को जबरदस्ती ठहराता नहीं हैं कि तू चल क्यों रहा है, तेरे ठहरने का कारण मैं यहाँ मौजूद हूँ, तुझे ठहरना पड़ेगा, किंतु जो जी पुद्गल चलते हुए ठहरना चाहते हैं, ठहर रहे हैं उनके ठहरने में सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है । अथवा एक अलौकिक दृष्टांत सुनो―वास्तविक स्वास्थ्य, वास्तविक कल्याण तो अपने स्वरूप में ठहरने में है । यह जीव यदि अपने स्वरूप में ठहर जाय तो इसके सारे संकट समाप्त हो जायें । कोई विकार न रहे कोई इच्छा न रहे, फिर कोई अशांति नहीं, घबड़ाहट नहीं । किसी भी परद्रव्य को अपने चित्त में बसाना योग्य नहीं, अपने ही स्वरूप में ठहरना चाहिए । तो यह जीव अपने स्वरूप में ठहरे उसका कारण है स्वसम्वेदन ज्ञान से उत्पन्न हुए आनंद का अनुभव । मैं सिद्ध समान शक्ति से शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, अनंतज्ञान आदिक से समृद्ध हूँ, इस तरह का जो सिद्ध प्रभु का ध्यान है वह भव्यजीवों को अपने स्वरूप में ठहरने का कारण बनता है । तो वे सिद्ध प्रभु प्रेरक नहीं हैं । जबरदस्ती नहीं करते, वे स्वयं चलकर ठहरने वाले नहीं हैं लेकिन भव्य जीवों को अपने स्वरूप में ठहरने के लिए सिद्धस्मरण सहकारी कारण है, ऐसे ही समझिये―अधर्मद्रव्य ठहरते हुए जीव पुद्गल के ठहराने में सहकारी कारण है । ठहर तो रहे हैं अपने ही उपादान कारण से, अगर अधर्मद्रव्य न हो तो ये ठहर नहीं सकते । जैसे कि अलोकाकाश में अधर्मद्रव्य नहीं है तो वहाँ यह जीव पुद्गल की स्थिति भी नहीं पायी जाती ।
धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का ऋषि संतों की वाणी में प्रामाणिक वर्णन―दोनों द्रव्य (धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य) अमूर्त
हैं । लोकाकाश के प्रदेश के बराबर हैं, असंख्यातप्रदेशी हैं । ऐसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य का लोगों ने ज्ञान तो नहीं किया, वैज्ञानिक भी स्पष्ट नहीं बता पा रहे हैं, हाँ गतिक्रिया में हेतुभूत किसी ईथर मेटर का अनुमान करते हैं, किंतु वीतराग सर्वज्ञदेव के ज्ञान से कुछ भी चीज बाहर नहीं । उनके उपदेश परंपरा से आचार्यसंतों ने बताया है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य इस लोक में है और वे जीव पुद्गल के गमन कराने में और ठहराने में सहकारी कारण होते हैं । यहाँ तक जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म से इन चार द्रव्यों का स्वरूप कहा । अब आकाशद्रव्य का स्वरूप कहते हैं ।