वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 287
From जैनकोष
सोवि मणेण विहीणो णय अप्पाणं परंपि जाणेदि ।
अह मणसहिओ होदि दु तहवि निरिक्खो के हवे रुद्दो ।।287।।
मनरहित पंचेंद्रिय में भी आत्महित की अपात्रता―पंचेंद्रिय जीव हुए, पर मन से रहित हुए तो कल्याण की दिशा में जैसे वे विकलेंद्रिय जीव कुछ नहीं कर सकते वैसे ही ये भी कुछ नहीं कर सकते । कोने से सुनने का ज्ञान बन गया, इतनी ही विशेषता बन सकती है । मन उसे कहते हैं कि जिससे हित अहित की बात का निर्णय किया जा सके । हित में चलाये, अहित से हटाये ऐसी जिसमें योग्यता हो उसे मन कहते हैं । मन को पाकर कोई अहित से दूर न हो और हित में न लगे तो यह उसकी व्यक्तिगत बात है, पर मन का लक्षण यही है कि जिसमें इतनी योग्यता है कि वह हित पर चल सकता है और अहित से हट सकता है, हित अहित की विशेष शिक्षा का ग्रहण कर सकता है । तो ऐसा मन जब न हो तो उसने अपने को और पर को जाना ही नहीं, उसके स्वपर का विवेक नहीं है । यो तो जो अपना अस्तित्व है वह सब स्व है । जिस किसी भी प्रकार से बर्त रहा हो, यह शीत मोही, रागी, द्वेषी आदिक कैसा ही हो, सभी स्व है, लेकिन जब अपने परमार्थ स्वपर दृष्टि देते हैं कि परमार्थत: हम हैं क्या, तब वहाँ छानबीन होकर यह समाधान मिलेगा कि मैं तो एक सहज चैतन्यस्वरूप हूँ, मेरे सत्त्व से मेरे में जो कुछ बात सहज हो सकती है, वह तो हुआ मैं स्व और बाकी सब अन्य हैं पर । तो यह जीव जब मनरहित है तो न स्व को जानता है और न पर को जानता है । असंज्ञी जीव वे हैं जिनके साथ संज्ञा नहीं है, जिनके पास भली प्रकार जानने की बुद्धि नहीं है, जो मन द्वारा उत्पन्न होता है ऐसे मानसबुद्धिरहित संसारी जीवों को असंज्ञी कहते हैं । तो उसने स्व को भी नहीं जाना और पर को भी नहीं जाना । इसने यों भी स्वपर को नहीं जाना कि मैं हूं एक कारणपरमात्मतत्त्व और यहाँ पर अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये हैं पर, जिनमें कोई परमात्मा हैं, कोई परमात्मत्व की साधना में लगे हैं, इस तरह भी स्वपर को नहीं समझा। तो जब स्वपर को नहीं जाना तो ऐसी स्थिति में असंज्ञी पंचेंद्रिय का मूल्य क्या? जो विकलेंद्रिय का मूल्य है वही इनका है। अंतर इतना है कि इनके समझ इतनी बढ़ गई कि वे कर्णेंद्रिय से भी कुछ जान समझ लेते हैं। तो पंचेंद्रिय हुए, मनरहित हुए तो इससे क्या काम निकला? तब मनसहित पंचेंद्रिय होना दुर्लभ है।
संज्ञी पंचेंद्रिय में क्रूर तिर्यंच भव पाने पर भी हितवैशिष्ट्य का अभाव―हो गए मनसहित संज्ञी पंचेंद्रिय और हो गए कोई रौद्र तिर्यंच बिल्ली, चूहा, शेर, हाथी आदिक, तो वहाँ पर भी क्या साधन बना सकते हैं? यद्यपि तिर्यंचों की संज्ञा विशेष है, मायासंयम होने में मनुष्यों की अपेक्षा, लेकिन जब तिर्यंचों की सही गणना पर दृष्टि देते हैं तो उनमें कुछ बिरले ही तिर्यंच ऐसे हैं कि जो विवेक रखते हैं, जिनके सम्यक्त्व जगा है, बाकी तो सब तिर्यंचों की स्थिति देखिये―कितनी दयनीय स्थिति है, ऐसे बड़े-बड़े हाथी, जिनका इतना बड़ा शरीर होता कि यदि कोई आदमी पास में खड़ा हो जाय तो उसके एक पैर के बराबर भी आदमी मालूम पड़े। ऐसा विशाल शरीर हाथी का होता है। तो देखिये कितना बड़ा मनुष्य और कितना बड़ा हाथी, मगर मनुष्य के छोटे-छोटे बच्चे भी हाथी पर जैसा चाहे चढ़ते उतरते हैं और एक अंकुश के बल पर उसे जैसा चाहे नचाते हैं। जिस हाथी का इतना बड़ा पराक्रम होता है कि सिंह तक को भी दबोच दे। यद्यपि अपनी चंचलता के कारण सिंह हाथी को पिछाड़ देता है पर शक्ति हाथी की इतनी अधिक होती है कि यदि सूंड में लपेट पाये अथवा पैरों के नीचे ला पाये तो सिंह को भी परास्त कर दे। इतनी शक्ति वाला हाथी भी मनुष्य के बच्चों के द्वारा जैसा चाहे नचाया जाता है। तो यहाँ बताया जा रहा था कि यदि ऐसे मनसहित रौद्र तिर्यंच भी हो गए तो उससे क्या फायदा उठाया? ये स्थितियां हम आपकी भी हुइ्र हैं, और फिर हो सकती हैं। किसी पर दया आने का कारण यह है कि हमारी प्रतीति में और बुद्धि में यह भाव पड़ा हुआ है कि यही स्थिति हमारी भी तो थी या हो सकती है। जैसे―बहुत से भिक्षुक जनों को बड़ी दयनीय दशा में देखकर दया उपज जाती है तो वास्तव में उस दया करने वाले ने उस भिक्षुक पर दया नहीं की, बल्कि खुद पर दया की, क्योंकि उसने सोचा कि इस बेचारे की जैसी स्थिति कभी हमारी भी हुई होगी या हो सकती है। तो दया करने वाले लोग जब पहले उस विषयक विकल्प करके अपने आपको दु:खी कर डालते हैं तब उनके दया उत्पन्न होती है। यदि ऐसे तिर्यंच भी हो गए तो उससे क्या लाभ? किसी भी एक तिर्यंच को देख लो तो उससे संसार के दु:खों का बहुत कुछ भाव हो जाता है। घोड़ों की जिंदगी देखिये―जहां दो वर्ष के हुए बस इक्का तांगा आदि में जुतने लगे। लोग उन पर 15-20 आदमी भी बैठाल लेते हैं, जब वे चलने में कुछ कमी करते हैं तो उन पर कोड़े पड़ते हैं । इस तरह से बोझे का दुःख व कोड़ों की मार का दुःख वे बेचारे घोड़े सहते हैं । और वे ही बेचारे घोड़े जब वृद्ध हो जाते हैं, चलने में असमर्थ हो जाते हैं तो उन पर लोग इतना भी रहम नहीं करते कि चलो शेष जीवन इसे यहीं बिता लेने दो, वे कषायियों को बेच देते हैं । उन कषाइयों द्वारा उन बेचारे घोड़ों की निर्मम होकर हत्या कर दी जाती है । भला सोचो तो सही कि उन घोड़ों का कैसा जीवन है?
दुर्लभ मनुष्यभव पाने पर कर्तव्य व अकर्तव्य के विवेक की आवश्यकता―हम आप मनुष्यों को तो कितनी सुविधायें मिली हुई हैं, किंतु उन सुविधा पर दृष्टि न देकर लोग तृष्णा के वश में आकर दुःखी रहा करते हैं । वर्तमान प्राप्त सुविधा को नहीं भोग पाते । इस लालसा (तृष्णा) के कारण जो जितना धनिक है वह उतने में ही दुखी है । अरे जरा सोचो तो सही कि हमारी हजारों लाखों लोगों से भी अधिक अच्छी स्थिति है । सब प्रकार की सुविधायें मिल रही है । जीवन अच्छी प्रकार चल रहा है । संक्षेप रूप से यह कह सकते हैं कि जिसको जितना जो कुछ मिला है वह उसे जरूरत से ज्यादह मिला है । लेकिन ऐसा कोई मानता तो नहीं है कि मुझे जरूरत से ज्यादह मिला है । अब आगे ज्यादह धन वैभव बढ़ाने की जरूरत नहीं है । रही यह बात कि दुनिया के लोग वाहवाही न कर सकेंगे । क्योंकि आज अर्थ का युग है, अर्थ अधिक न होने से इन दुनियावी लोगों के बीच इज्जत न मिल सकेगी । तो आपकी यह बात मान भी लें, लेकिन जिसे सही ज्ञान जागृत हो गया है उसकी तो यही वृत्ति है कि भीख मांगकर उदर भरें, पर करें नहीं चक्री का काम । अरे जो लोग किसी की थोड़ीसी इज्जत कर देते हैं वे हैं क्या? वे तो पापी संसार में रुलने वाले, जन्ममरण करने वाले स्वार्थी प्राणी हैं । वे कोई खास चीज तो नहीं हैं कि जिनसे इज्जत मिलने की चाह की जाय । अरे अपनी दृष्टि में अपने को अच्छा तो देख लो । यही समस्त पूरी अपनी दुनिया है । अपने में अपने को अच्छा वही देख सकेगा जो दुराचार से दूर है । जो किसी को कभी धोखा न दे, किसी का कभी बुरा न विचारे, जो सबको सुखी रहने की भावना रखे, जिसने अपने को ज्ञानमार्ग में लगाया है वही संतुष्ट रहेगा । और जिसने इस सदाचार के विरुद्ध अपना कदम रखा है उसके ज्ञान जगेगा तो पछतावा करेगा और न जगेगा तो पछतावा करने की भी बुद्धि न जगेगी । खोटी स्थिति होगी । इन सब बाह्य बातों को अध्यात्मवाद दृष्टि में गौण करके अपने की निरख करके अपने में तृप्त रहने की प्रकृति बना लीजिए । स्वानुभव ज्ञानानुभव जो कि विशुद्ध आनंद का कारण है उसे कर लीजिए । बताओ अन्य कौनसा अनुभव आनंद का कारण होगा? अन्य अनुभव तो क्लेश के ही कारण बनते हैं । यह जीव किसी तरह पंचेंद्रिय जीव हुआ और मनसहित भी हुआ तो तिर्यंच हुआ । तब वहाँ भी यह जीव करेगा क्या? ऐसे अशुभ परिणाम करके आर्त रौद्र ध्यान का परिणाम जो जीव रखते हैं वे मरकर नरक में जन्म लेते हैं ।