वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 286
From जैनकोष
वियलिंदियेसु जायदि तत्थवि अच्छेदि पुव्वकोडीओ
तत्तो णिस्सरिदूणं कहमवि पंचिदिओ होदि ।।286।।
दुर्लभता से एकेंद्रिय से निकलकर विकलेंद्रिय व पंचेंद्रिय में जन्मलाभ―यह जीव अनंतकाल तक निगोद में रहा था, वहाँ से निकला तो असंख्यातकाल तक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येकवनस्पति में रहा । वहाँ से बड़ी दुर्लभता से है इसने निकलकर त्रसपर्याय प्राप्त की । सो त्रस में दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय आदिक जीव हुआ । इन्हें विकलेंद्रिय कहते हैं, विकल मायने अधूरी । ऐसी अधूरी इंद्रिय वाले तो एकेंद्रिय भी हैं लेकिन एकेंद्रिय को यहाँ ग्रहण न करना । एकेंद्रिय, विकलेंद्रिय, सकलेंद्रिय यों तीन भेद किये गये हैं । सो एकेंद्रिय से ऊपर जितने भी जीव ऐसे हैं कि जिनके पाँचों इंद्रियाँ नहीं हैं उन्हें विकलेंद्रिय कहते हैं । इसी जीव के जब रसनेंद्रियावरण का क्षयोपशम हुआ, वीर्यांतराय का क्षयोपशम हुआ, अंगोपांग का उदय आया, ऐसा जीव दो इंद्रिय में जन्म लेता है । दोइंद्रिय जीव के रसनाइंद्रिय हो जाने से ज्ञान में कितना अंतर आ गया । एकेंद्रिय का ज्ञान और रसनाइंद्रिय का ज्ञान । इसके व्यावहारिक रूप में कुछ समझ आयी, स्वाद की समझ आयी । पहिले उस जीव में स्वाद लेने की कोई बात न थी । आहार बिना कोई जीवित नहीं रहता, आहार तो एकेंद्रिय जीव के भी रहा किंतु उसका अपने ढंग से रहा । जैसे पेड़ में खाद दिया, पानी दिया तो जड़ों से उसने आहार ग्रहण किया । यहाँ दोइंद्रिय होने पर यह मुख द्वारा आहार ग्रहण करने लगता है तो बनावट से देखें, उसकी व्यावहारिकता से देखें, भीतर के ज्ञान से देखें तो एकेंद्रिय से दोइंद्रिय में विशेषता पायी जाती है । दोइंद्रिय जीव के बाद यह तीनइंद्रिय हुआ । वहाँ नासिक इंद्रिय और प्राप्त हो गयी । अब तो वह जीव गंध का भी ज्ञान करने लगा । देखिये ये कीड़ा कीड़ी गंध का ज्ञान करके कैसा बाहर निकल पड़ती हैं और एक सीधी लाइनसी बना लेती हैं । तो समझिये कि उन तीन इंद्रिय जीवों में कितनी समझ बढ़ गई । यह जीव और आगे बढ़ा तो चारइंद्रिय जीव हो गया । आखें और मिल गई, अब रूप का भी ज्ञान होने लगा । यों एकेंद्रिय से लेकर चारइंद्रिय तक यह जीव कोटि पूर्व पर्यंत रहा । वहाँ से निकला तो किसी भी प्रकार यह जीव पंचेंद्रिय हुआ । तो असैनी पंचेंद्रिय हुआ, तो वहाँ मन के बिना कल्याण का पात्र भी नहीं है ।
दुर्लभ समागम पाने के वर्णन के प्रसंग में अपने लिये शिक्षा की ओर दृष्टि―यहां यह अपने आप पर घटित करना कि हम कितनी-कितनी निकृष्ट स्थितियों को पार करके आज मनुष्य हुए हैं, कितना अवसर है कि हम अपने उपयोग को संभालें, विवेकपूर्वक रहें, जरा मन को समझायें और अपने घर में ही रहकर तृप्त होने की प्रकृति बना लें । तो कितना सुंदर अवसर है कि हम अपने आत्मा का कल्याण कर लें । इसके विरुद्ध जो कुछ हम करते हैं उसमें सार कुछ नहीं है । किन्हीं परजीवों में, परपदार्थों में हम अपने उपयोग को लगाते हैं, स्नेह करते हैं तो उन मोही जीवों की ओर से बात यह मिलती है कि वे मोहवश उनकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं । तो यह मोह के आकर्षण की दुनिया है यह तो है दुनिया की दुनिया । और अपने आपके ज्ञानस्वभाव को निरखकर तृप्त होने वाली दुनिया खुद की दुनिया है और यही अपनी पारलौकिक दुनिया है, इन दोनों दुनिया में कितना अंतर है? यहाँ तो एक जगह संतोष है, दूसरी जगह असंतोष है, निज में तो आनंद का योग है और बाहर में क्लेश का योग है । तिस पर भी ऐसा मोह छाया है कि क्लेश पाते हैं और क्लेश के ही कारणों में जुटे रहते हैं । जिन घरों में स्त्री पुत्रादिक की ओर से कलह होते रहते हैं और झुंझला जाते हैं, दु:खी हो जाते हैं, पर यह साहस नहीं कर सकते कि जब इनसे हमें क्लेश होता है तो हम इन्हें छोड़ दे और कोई दूसरा ढंग बना लें । जिस मोह से कष्ट मिलता है उसी मोह को करते जाते हैं और दुःखी होते रहते हैं । यहाँ इतनी विपरीत मार्ग वाली स्थिति है । यदि कुछ सावधानी बर्ती जाय, जिसका कि साधन आजकल स्वाध्याय और सत्संग है और प्रधानतया अपने आपका ज्ञानध्यान है । सभी उपायों द्वारा अपने आपकी ओर रहकर तृप्त रहने की प्रकृति बना ली जाय तो यहाँ कुछ सार मिलेगा और बाहर में नहीं कुछ भी सार नहीं है ।
विकलेंद्रियों से निकलकर पंचेंद्रियत्व की प्राप्ति की दुर्लभता―तो एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय तक हम पार कर चुके हैं, पर इतना यह पार होना कोई इस तरह का पार नहीं है कि अब ये गतियां कभी न मिल सकेंगी । अरे अगर सावधान न रहेंगे तो वहीं फिर जाना होगा । फिर वही अज्ञानभरी, वही अल्प ज्ञान वाली स्थिति मिल जायगी । किसी प्रकार हम इन सबसे निकले तो बड़ी दुर्लभता से पंचेंद्रिय जीव हुए । तो असैनी पंचेंद्रिय हुए । अब पंचेंद्रिय जीवों में यह देखें कि कितनी तरह के संसारी जीव हैं और उन सब पंचेंद्रियों में हम आप पंचेंद्रियों की स्थितियां कितनी दुर्लभ हैं ।