वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 293
From जैनकोष
अह णीरोओ होदि हु तह वि ण पावेदि जीवियं सुइरं ।
अह चिर-कालं जीवदि तो सीलं णेव पावेदि ।।293।।
नीरोग शरीर पाने पर भी सुचिर जीवन पाने की दुर्लभता―यह जीव अनेक स्थितियों को पार करके मनुष्य हुआ है । तो मनुष्य में भी कितनी दुर्लभता की बातें पायी हैं । आर्यक्षेत्र में जन्म हो गया यह भी कठिन चीज थी क्योंकि म्लेच्छखंड में जन्म होता तो वहाँ हिंसात्मक कार्यों में ही समय व्यतीत होता । आर्यक्षेत्र में रहकर भी उत्तम कुल में न हुए, चांडाल आदिक के कुल में हो जाते तो वहाँ अभक्ष्यभक्षण में व अनेक दुराचार में ही समय व्यतीत होता । तो हम आपको ऐसा उत्तम कुल मिल गया । उत्तम कुल मिलने पर भी अगर धनहीन होते तो वहाँ भी मलिनता का ही अवसर था । तो देखिये हम आपको धन भी प्राप्त हुआ है । धन उतने का नाम है जितने में इस शरीर का निर्वाह हो सकता है । भूख, प्यास, सर्दी गर्मी आदिक वेदनाओं से बचाव किया जा सके, बस इस स्थिति को धनिक कहो अन्यथा तो कोई धनिक नहीं हो सकता । आज जो लखपति करोड़पति लोग दिखते हैं वे भी अपने से अधिक धनिक लोगों पर दृष्टि डालकर अपने को निर्धन अनुभव किया करते हैं । तो धनिक उतने को कहते हैं जितने से भूख प्यास ठंडी गर्मी आदिक वेदनाओं से बचत की जा सके । तो देखिये हम आप धनिक भी हो गए । धनिक होकर भी अगर इंद्रियों की पूर्णता न हो तो भी वहाँ धर्मपालन के लिए सुविधा नहीं बन सकती । देखिये―हम आपको सब इंद्रियां भी मिली हुई हैं । और इंद्रियों की पूर्णता होने पर भी शरीर का निरोग मिलना दुर्लभ है । हम आपको निरोग दशा भी आज प्राप्त है । अब इस गाथा में यह बतलाते हैं कि जिस किसी पुरुष ने ये सब बातें पा लीं, निरोग शरीर भी मिल गया, मगर जीवन अल्प मिला तो उससे भी क्या लाभ? बहुत से लोगों का मरण तो छोटी उमर में ही हो जाता है । अब देखिये हम आपने काफी बड़ी उमर भी पा लिया । अभी तक जीवित हैं तो समझिये कि यह कितनी दुर्लभ सी बात हो रही है ।
संसार में मनुष्य के सुचिर जीवन पर आश्चर्य―मनुष्य के भट मर जाने में तो कोई आश्चर्य नहीं है, पर बहुत दिनों तक जिंदा बने रहें इसमें आश्चर्य है । जैसे लोग किसी के मृत्यु की खबर पाकर कहते हैं अरे बड़ा आश्चर्य हो गया, और इसमें आश्चर्य नहीं मानते कि हम अभी तक जिंदा हैं । आश्चर्य तो इस बात पर होना चाहिए कि हम अभी तक जीवित बने हैं । मरण का क्या आश्चर्य? जैसे बरसात में ऊपर से पानी गिरता है तो नीचे बबूले उठ जाते हैं । उनको बच्चे लोग देखते हैं तो वे इस पर बड़ा आश्चर्य प्रकट करते हैं कि देखिये―अब तक यह बना हुआ है । बबूले के फूट जाने का आश्चर्य नहीं करते हैं । और वे बच्चे बबूले का बना रहना देखकर बड़े खुश होते हैं और वे बच्चे यह मेरा है यह मेरा है ऐसा भी कहते हैं अरे तेरा बबूला मिट गया मेरा अभी तक नहीं मिटा ऐसा भी वे बच्चे कहते हैं । तो जैसे बबूले के बने रहने में आश्चर्य मानते हैं, फूटने में नहीं, इसी प्रकार जीवित बने रहने में आश्चर्य है, मरण में कोई आश्चर्य नहीं ।
मनुष्यभव में सुचिर जीवन पाने की उपयोगिता―जब तक हम आप जीवित हैं तब तक कर्तव्य यह है कि कोई ऐसा उपाय बना लें कि जिससे हमें वास्तविक लाभ हो । इन बाहरी बातों के संबंध से क्या लाभ है? आज यहाँ हम आप दिख रहे हैं, आखिर यहाँ से मरण करके परभव में जाना होगा । तो परभव में साथ ले जाने के लिए कुछ भले काम करके अच्छी कमाई कर लें, इस बात की दृष्टि रखें । बाहरी चीजें तो सब यही पड़ी रह जायेंगी । अपनी वास्तविक कमाई है धर्म की, ज्ञान की । तो उस ज्ञान को, उस धर्म को हम विशेष महत्त्व दें और उसको अपने जीवन में उतारें । तो इस जीव ने यदि निरोग शरीर भी पाया, पर जीवन अधिक न पाया तो क्या लाभ? और जीवन भी काफी पा लिया पर शील, सदाचार न बनाया, राग का द्वेष मोहादिक का ही काम किया तब फिर वहाँ ज्ञान का, धर्म का क्या अवकाश? इतना विवेक रखें कि मेरे लिए यह तो करने योग्य बात है और यह न करने योग्य बात है । वहाँ तो इसे कुछ शांति प्राप्त होगी, पर जो मन में सोचा वही कर बैठे, क्योंकि शक्ति मिली है ना, पुण्य का उदय भी है, कुछ इज्जत भी मिली हुई है । तो जो सोचा वह कर बैठे, ऐसी मन की स्वच्छंदता में तो जीवन की सफलता नहीं है । चिरकाल तक यह जीवित भी रहा, पर इसने
शीलस्वभाव नहीं प्राप्त किया । तो शीलयुक्त होना यह और भी दुर्लभ बात है ।