वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 294
From जैनकोष
अह होदि सोलजुत्तों तो विण पावेइ साहु-संसग्गं ।
अह तं पि कह वि पावदि सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ।।294।।
साधुसंसर्ग व सम्यक्लाभ की दुर्लभता―यह जीव शीलयुक्त भी हो गया, ब्रह्मचर्य से भी रह रहा, अच्छे आचरण से रह रहा, कुछ व्रत भी धारण कर रहा तो भी यह जीव साधु संसर्ग को न प्राप्त हुआ । मन में कुछ बात आयी है सो व्रत कर रहा है, पर जब तक साधुपुरुषों का समागम न प्राप्त हो, जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हैं ऐसे संत पुरुषों का समागम न प्राप्त हो तो वे व्रत तप आदिक के लिए की जाने वाली सारी क्रियायें थोथी रह जाती हैं । भीतर परिणामों में उत्कर्षत्व नहीं उत्पन्न होता । तो साधुजनों का संसर्ग पाना बड़ा दुर्लभ है । इस सत्संग का तो सभी जगह बड़ा महत्त्व दिया है । सत्संग पाने की कोशिश होना चाहिए और कदाचित् सत्संग भी मिल गया तो सम्यक्त्व की प्राप्ति अति दुर्लभ है । अपना जैसा वास्तविक स्वरूप है अपने सत्व के कारण अपने आपका जो वास्तविक ढंग हैं वह सहज स्वरूप अनुभव में न आये उसी को कहते हैं सम्यक्त्व नहीं मिला । तो सम्यक्त्व की प्राप्ति इतनी दुर्लभ है ।
गृहस्थ के षट् आवश्यकों का ध्येय―उस सम्यग्दर्शन को पाने के लिए ही तो ये सब उद्यम किए जा रहे हैं । देवदर्शन, गुरुपासना, स्वाध्याय, आदिक । भगवान के गुणों का स्मरण करके ज्ञानपद्धति से अपने और भगवान के बीच की बात निरखना । जो भगवान का स्वरूप है वैसा ही मेरा स्वरूप है, पर अंतर यह आ गया है कि भगवान का उपयोग तो बिल्कुल निर्मल है और हम आपका उपयोग रागद्वेष मोहादिक के रंग से रंगा हुआ है । अर्थात् रागद्वेषमोहादिक के भावों से कलंकित हो रहा है । और इसी वीतरागता और सरागता के कारण इतना बड़ा अंतर हो गया है कि प्रभु तो अनंत आनंद में मग्न रहते हैं और हम आप यहाँ संसार में जन्म मरण करते हैं, भटकते हैं । इतना महान अंतर है इस सम्यग्दर्शन के न होने से इस पर कुछ विचार करना है कि जिस ढंग में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है । हम गुरु पूजा करते हैं तो गुरुवों के वैराग्यभाव को निरखें, शरीर का क्या निरखना? इस आत्मा में क्या गुण है, कैसा ज्ञान है, कितनी वीतरागता की परिणति है । धन्य है इनका जीवनं और ज्ञान जो वैराग्य के मार्ग में लगे हुए हैं । इस ज्ञान और वैराग्य के स्वरूप को निहारो, वह सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का कारण बनेगा । तो गुरुजनों का वैसे तो एक सेवा भाव कुछ धर्मवृत्ति पर ही किया जा रहा है, पर वास्तविकता तो उनके रत्नत्रय की साधना से है । गुरुपासना भी रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए है, स्वाध्याय भी रत्नत्रय की प्राप्ति का बड़ा अच्छा साधन है । ऋषि संतों में वचन इतने निष्पक्ष होते हैं कि वे निजपर का कल्याण करने वाले हैं । उन वचनों के अंदर धोखे का काम ही नहीं है । स्वाध्याय, यह भी एक सम्यक्त्व की उत्पत्ति का साधक बने, इस ढंग से अपने आप पर अनेक बातें घटाते हुए स्वाध्याय करें । संयम―इन इंद्रियों को संयमित करें, जो भी ये इंद्रियां चाहती हैं उनकी इच्छा के मुताबिक न बह जायें । संयम करना, त्याग करना और जीवों की रक्षा करना ये सब संयम के वातावरण भी हमारे निज ज्ञानस्वभाव की
अनुभूति के कारण बन सकेंगे ।
धनिकों में उदारता का अभाव होने से देश में संकट प्रसंग―यदि उदार पद्धति से हम चलें, तप (इच्छा निरोध) करें, दान करें, रागद्वेष, मोहादिक पर विजय प्राप्त करें तो हमारा कल्याण अवश्य होगा । देखिये―इसी विवेक के न होने से आज देश में, विदेश में सभी जगह कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हो रहा है । यदि सभी लोग ऐसा सोच लें कि यह धन तो हमें उदयानुसार प्राप्त हुआ है । हमारे उपयोग में लिए जो आवश्यक है वह हम करते हैं पर जो विशेष धन आया हुआ है वह इतने आराम के साधन बढ़ाने में और इस झूठी इज्जत के बनाने में यह दुरुपयोग किया जा रहा है । अगर दीन दुखियों के उपकार में धन खर्च किया जाता, और-और भी धार्मिक कार्यों में इस धन को लगाया जाता तो आज जो यह कम्युनिस्ट पार्टी इतनी तेजी से बढ़ रही है उसका उदय न होता । लेकिन धनिक लोग हो गए कृपण । सिवाय अपने विषय आराम बढ़ाने के और किसी परोपकार आदि के काम में धन लगाते नहीं, तो फिर जिनके पास धन नहीं है वे कहाँ तक इस बात को देख सकेंगे । उनका यह दृश्य न देखा जायगा । हाँ अगर धनिक लोग परोपकार में अपने धन का व्यय करते न कि भोगविषयों में, तब तो फिर वे ही निर्धनजन उनके कृतज्ञ होते । इन तप, दान आदिक कार्यों से आत्मा की शुद्धि होती है, परंपरया ये सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण भी हो सकते हैं । तो इन सब कार्यों के करते हुए में विवेक होना चाहिए ।
ज्ञानार्जन के अनुद्यम का चित्रण―अब देखिये―किसी की उम्र तो 60-70 वर्ष की हो गयी पर देखने में यह आता है कि इतनी उम्र बीत जाने पर भी अभी वैसे के ही वैसे हैं जैसे कि 10 वर्ष की उम्र में थे । सारे जीवनभर धर्म भी किया फिर भी ज्यों के त्यों है । याने जितनी समझ 10 वर्ष की उम्र में होती थी उतनी ही अब भी है । एक लाइन भी उससे अधिक समझ नहीं बनी । तो बतलाओ क्या किया धर्ममार्ग में? जीवनभर परद्रव्यों का संचय करने की ही धुन बनी रही, परद्रव्यों से रागद्वेष की ही बात बनी रही, पर ये सब व्यर्थ की बातें हैं जिनमें कि कुछ भी तत्त्व नहीं है । जो असली चीजें थी ज्ञानार्जन की, उसके लिए तो दो चार मिनट का भी समय नहीं लगाया जा सकता । सम्यक के पुरुषार्थ की बात क्या कहें । सम्यक्त्व की प्राप्ति अति दुर्लभ है । सब कुछ मिला, पर एक सम्यक्त्वलाभ न मिला तो समझिये कि कुछ भी न मिला । यह अंधकारमय संसार है । यदि यहाँ जन्ममरण ही करते रहे, उसी में ही बेसुध रहे तो फिर मिला क्या? कुछ भी नहीं । जिस उपाय से शांति मिलती है वह उपाय मिले तो समझिये कि हमने कुछ पाया । तो सम्यक्त्व की प्राप्ति अति दुर्लभ है । यदि सत्संग भी मिले, पर सम्यक्त्व न मिले तो यह कुछ लाभ की चीज न हुई । सम्यक्त्वलाभ दुर्लभ चीज है ।