वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 299
From जैनकोष
मणुव-गईए वि तओ मणवु-गईए महव्वदं, सयलं ।
मणुव-गदीए झाणं मणुव-गदीए वि णिव्वाणं ।।299।।
मनुष्यगति में तपश्चरण का अवसर―मनुष्यगति में ही तपश्चरण संयम, निर्वाण आदि हुआ करते हैं, इस कारण से चारों गतियों में मनुष्यगति का महत्त्व है । अब कोई यहाँ यह सोचे कि इस काल में तो मोक्ष होता नहीं तब फिर इस काल में मनुष्यगति का क्या महत्त्व है । तो ऐसी भी शंका न करना चाहिए, कारण यह है कि इस मनुष्यगति से आज निर्वाण नहीं है लेकिन मन इतना श्रेष्ठ मिला है कि वस्तुस्वरूप का हम सही विचार कर सकते हैं और शुद्धज्ञान बना सकते हैं । शुद्धज्ञान वह है जहाँ यह स्पष्ट बोध हो कि प्रत्येकपदार्थ की सत्ता अत्यंत जुदी-जुदी है और प्रत्येक पदार्थ में बाकी सबका अत्यंताभाव है, किसी प्रकार का संबंध नहीं हैं । यदि कोई पदार्थ विकाररूप भी परिणम जाता है तो वह पदार्थ स्वयं अपनी परिणति से विकाररूप परिणमा, इतनी बात वहां अवश्य है कि निमित्तभूत पदार्थ होने पर ही वह परिणमा, तो बात वहाँ क्या होती है कि अनुकूल निमित्त का सन्निधान होने पर पदार्थ स्वयं विकाररूप परिणम जाता है । तो यों वस्तुस्वरूप को निरखने का सामर्थ्य इस मनुष्यभव में है अतएव मनुष्यभव का बहुत बड़ा महत्त्व है । मनुष्यगति में ही तपश्चरण होता है । तपश्चरण 12 प्रकार के बताये गए हैं―6 बाह्य तपश्चरण और रे अंतरंग तपश्चरण । जैसे अनशन―भूख से कम खाना, कुछ अटपट आखड़ी लेकर खाना, रस का त्याग करना, एकांत स्थान में मौन बैठना और नाना प्रकार के कायक्लेश करना, ठंड गर्मी आदिक के तपश्चरण, ये सब बाह्य तप कहलाते हैं क्योंकि लोगों को यह सब दिखता है ।
मनुष्यगति में अंतरंग तप की विशेषता―अंतरंग तप 6 प्रकार के हैं―प्रायश्चित्त करना―कोई अपराध हुआ है अब उसका प्रायश्चित्त कर रहे हैं, उस दो को मेट रहे हैं, आगामी काल में यह दोष न बने, ऐसी मन में दृढ़ता ला रहे हैं तो ये बातें दूसरों को वहाँ दिखती हैं, ऐसा यह भीतरी तप कहलाता है । विनय―विलय नाम हाथ जोड़ने भर का नहीं है, हृदय से दूसरे के गुणों में प्रीति उत्पन्न हो उसका नाम विनय है । अब यह हृदय किसको दिखता है । कहो बाहर में कोई ऐसी विनय करता हो कि जिसकी कुछ हद नहीं, किंतु अंत: विरोध है, और कोई ऐसा विनय भी होता है कि कहो बाहर से अधिक विनय की बात न जाहिर हो सके पर अंदर से बड़ा ही विनयपूर्ण भाव हो तो विनय तपश्चरण भी भीतरी भाव है, उसे दूसरा कौन जनता है । तीसरा है वैयावृत्य तप । वैयावृत्य कहते हैं सेवा करने को, लेकिन वैयावृत्त का शब्दार्थ सेवा करना नहीं है, जैसे पैर दाबना आदिक, पर यह तो फलित अर्थ है । वैयावृत्य का अर्थ है कि जो अयोग्य काम से हट गया हो उसे कहते हैं व्यावृत्त पुरुष । जो अनुचित कार्यों से हट गया हो । जो संसार से या मोहियों के संग से हट गया है उसे का नाम है व्यावृत्त अर्थात् निवृत्त, उसकी वृत्ति को वैयावृत्य कहते हैं । धर्मात्माजनों की सेवा करना इसका नाम है वैयावृत्य । यह तो वैयावृत्य का फलित अर्थ है, मगर इसका संबंध भीतरी भाव से है । स्वाध्याय―लोग तो स्वाध्याय का अर्थ लगाते हैं किसी भी पुस्तक को पढ़ लेना, पर स्वाध्याय का यह मौलिक अर्थ नहीं है । स्वाध्याय का अर्थ है अपने आपका अध्ययन करना, याने स्व का जहाँ अध्ययन हो, स्व की जहाँ दृष्टि हो उसका नाम है स्वाध्याय । तो स्वाध्याय नाम का एक तप है । में आत्मा क्या हूँ, कहाँ से आया हूँ, मुझे क्या करना है, मेरी क्या गति होगी, ऐसी बातें मन में रखकर फिर स्वाध्याय करें तो वह अंतरंग तप कहलाता है । कायोत्सर्ग तप―समस्त बाह्यपदार्थों से ममता को त्याग देना, निर्ममत्वभाव में ही शांति मिलती है । जब रागभाव का कुछ उदय होता है तो लोग कहीं शांति नहीं पाते, क्योंकि वे देखते हैं अपने से बड़ों को, धनिकों को । उनको देखकर चित्त में यह बात आती है कि हाय मैं न हुआ ऐसा, मेरी ऐसी स्थिति क्यों न हुई, लो यही सोच-सोचकर जीवन में चैन नहीं पाते हैं । आपने देश में विदेश में कहीं भी इस तरह को वृत्तियों में रहकर कोई शांत देखा हो तो बताओ । दूसरों का वैभव देखकर मन ही मन दु:खी रहा करते हैं । उस वैभव के संचय के लिए अनेक प्रकार के मायाचार भी करते हैं । यह मायाचार होता है लोभ से । लोभ न हो तो मायाचार का क्या काम? ये सब बातें तभी होती हैं जब कि रागमोह भाव रहता है । तो मोह का परित्याग करना, ममता छोड़ना यह व्युत्सर्ग तप है । यह भी आंतरिक तप है । दूसरा कोई क्या जाने कि इसने ममता छोड़ी या नहीं। कहो घर द्वार सब कुछ कोई छोड़ दे, पर ममता न त्याग सके । कहो ममता के कारण ही घरबार सब कुछ छोड़ दिया हो । वहाँ कोई यह नियम तो नहीं बना सकता कि इसने ममता त्याग दी है । घर द्वार की ममता त्याग दिया, पर उससे बड़ी ममता अपने चित्त में बसा लिया । तो ममत्व का त्याग कहाँ किया? यह बात कोई दूसरा क्या जानेगा? यह तो खुद ही जान सकते हैं । यदि उसने ममता को त्याग दिया, तब तो शांत हो जायगा नहीं तो दुःखी ही रहेगा । छठवाँ अंतरंग तप है ध्यान―अच्छे तत्त्व की ओर, हितकारी तत्त्व की ओर अपने मन को लगाये रहना यह ध्यान है । इस ध्यान को कोई दूसरा क्या जान पायगा? खुद ही के जानने में हो तो हो । इसी कारण ध्यान भी अंतरंग तप कहलाता है । तो यह तप मनुष्यभव में बनता है, देव तिर्यक आदिक अन्य भवों में नहीं बन सकता । देव अनशन ऊनोदर आदिक क्या करेंगे? उनको तो भोग सामग्री विशेष मिली हुई हैं, वे तो भोगों में ही रत रहकर अपनी जिंदगी बिताते हैं । पर उससे जीव को कुछ फायदा नहीं होता । तत्काल भी क्लेश रहता है और भविष्य में भी क्लेश रहता है । तो यह अवसर तो मनुष्यों को ही मिला है कि वे तपश्चरण करें । मनुष्यगति में ही ध्यान
है ।
मनुष्यगति में निर्वाण व निर्वाणसाधन की विशेषता―मनुष्यगति में ही निर्वाण है, अन्य गतियों में ये नहीं बनते । इंद्र भी द्वादशांग का पाठी है मगर वह श्रुतकेवली नहीं कहलाता । श्रुतकेवली तो निर्ग्रंथ दिगंबर मुनि बन सकता है । तो मनुष्य गति में श्रेष्ठज्ञान, ध्यान आदिक बनते हैं, किसी अन्य गति में ये संभव नहीं है। निर्वाण भी मनुष्यगति से ही होता है । शुक्लध्यान अन्य गतियों में नहीं होता । कुछ धर्मध्यान हो जाय मगर रागद्वेष उपयोग में न रहे और ऐसा फिर वीतराग भाव प्रकट हो जाय ऐसा ध्यान मनुष्यगति में ही हो सकता है अन्यत्र नहीं । दुर्लभ मनुष्यगति में दुर्लभ तत्त्वों की प्राप्ति का अवसर जान करके हमें अपने आपमें क्या घटित करना है कि हम कितने ही दंदफंदों को पार करके आज मनुष्य हुए है । मनुष्य हो जाना बड़ी दुर्लभ बात है और उस मनुष्यभव में भी कितनी ही बातें प्राप्त कर लीं, इंद्रियाँ पूर्ण हैं धन भी मिला, खाने पीने आदि की सारी सुविधायें मिली हैं, सम्यक्त्व भी प्राप्त है, संयम भी बनाना चाहें तो बन सकता है, ऐसा उच्च कुल भी हम आपको प्राप्त है, सब प्रकार से समर्थ भी हैं, कैसी दुर्लभ चीजें प्राप्त कर ली है । अब ऐसा अवसर पाकर यदि हमने अपनी सावधानी न बनाया, मन को विषयों में ही लगाये रहते हैं तो यह खुद की बहुत बड़ी गलती है, आगे फिर संसार में जन्म मरण करते रहना होगा ।