वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 298
From जैनकोष
अहवा देवो होदि हु तत्थ दि पावेदि कह व सम्मत्तं ।
तो तव-चरणं रण लहदि देस-जमं सील-लेस पि ।।298।।
देवगति में हीन परिस्थिति―कभी किसी प्रकार यह जीव देव बन गया, मायने चारों गतियों में जो एक देवगति है उसमें आ गया, वहाँ किसी प्रकार सम्यक्त्व भी पाले तो भी इतना तो निश्चित है कि वहाँ तपश्चरण, संयम महाव्रत ये कुछ भी नहीं हो सकते । ऐसी हीन दशा रहती है देवगति के जीवों की । लोग यहाँ घबड़ाते हैं कि कितना उपद्रव हो गया, उपसर्ग हो गया, न जाने अब कैसे क्या होगा? अरे ये उपद्रव ये उपसर्ग भले के लिए होते हैं । हम इनमें समता तो कर लें, कितने ही कर्मों का क्षय हो जायेगा । और उस बीच भी हमको कितनी बड़ी शांति मिलेगी । क्या संपदा के बीच रहकर जीव शांत हो जाता है? बहुत-बहुत सुविधायें मिली हों वहाँ भी यह जीव दुःखी रहता है । यह धनसंपदा सुख का हेतु नहीं है । सच्चा ज्ञान ही सुख का हेतु है, अतएव उपद्रव भी कदाचित् आये तो उस बीच भी सम्यग्ज्ञान बनायें और सुखी हों ।