वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 300
From जैनकोष
इय दुलहं मणुमत्तं जे रमंति विसएणु ।
ते लहिय दिव्व-रयणं भूइ-णिमित्तं पजालंति ।।300।।
दुर्लभ मनुष्यसत्व को पाकर विषयरमण का अविवेक―ऐसा दुर्लभ मनुष्यजन्म पाकर भी जो लोग विषयों में रमण करते हैं वे मानो यह कर रहे हैं कि दिव्य रत्न को पाकर उसको राख की जरूरत थी सो उस राख की जरूरत की पूर्ति के लिए उस दिव्य रत्न को जला डालते हैं। जैसे किसी को बर्तन मांजने के लिए राख की जरूरत है और वह चंदन के वन को काटकर जलाकर राख बनाये तब बर्तन मले तो क्या कोई विवेकी कह सकेगा? वह विवेकी नहीं है। इसी तरह विषयकषायों की पूर्ति के लिए इस मनुष्य जीवन का उपयोग बनाया तो यह उसका कोई विवेक नहीं है। ये विषयभोग क्षणभंगूर चीजें हैं। कुछ इंद्रिय और मन को सुहा गए, थोड़े समय के लिए हैं, उनमें आसक्त होकर बंधन में पड़े तो यह कोई विवेक नहीं है। दूसरे का अविवेक दूसरा जान लेता है पर अपने खुद के अविवेक को नहीं जान पाते। दूसरों को देखकर लोग कह बैठते हैं कि यह व्यर्थ का मोह करके दु:खी हो रहे हैं, पर खुद के विषय में ऐसा नहीं सोच पाते। वे तो जो काम कर रहे हैं उसे उस समय समझते हैं कि हम बहुत अच्छा कर रहे हैं। बुरे काम को यदि ये बुरा समझें तो यह एक ज्ञानप्रकाश है। तो यह जीव खुद के विषय में नहीं समझ पाता कि मैं मोह कर रहा हूं, अज्ञान कर रहा हूं, ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर यदि विषयों में रमकर बिताया तो समझिये कि दुर्लभ रत्न को पाकर उसे व्यर्थ ही नष्ट कर दिया। देखिये यह कितनी कठिन बात है जो लब्ध्यपर्याप्तक से निकलकर इंद्रियपर्याप्तक बने, अन्य स्थावर बने, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय बने। उसमें भी असंज्ञी पंचेंद्रिय और संज्ञी पंचेंद्रिय भी बन गए।
असंज्ञी पंचेंद्रिय बनकर भी श्रेष्ठ मन मिला, उत्तम जाति कुल आदिक मिले, सुचिर जीवन मिला, इंद्रियों की परिपूर्णता मिली, सत्संगति मिली, सम्यक्त्व भी जगा, ऐसी दुर्लभ बातें पाकर भी यदि विषयों की ओर झुकाव हो तो समझिये कि इस मानवजीवन को पाकर लाभ कुछ न उठाया। कोई मनुष्य हाथी खरीद ले हजारों लाखों रुपये लगाकर, उसके खाने पीने में दसों आदमियों के बराबर खर्चा करे, पर उस हाथी का उपयोग करे कूड़ा करकट ढोने में तो भला उसे कोई विवेकी कहेगा क्या? कोई विवेकी तो न कहेगा। यों ही समझिये कि इतना श्रेष्ठ जन्म पाया जो कि बहुत ही कठिन था और पा करके काम किया विषयभोगों में रमने का, तो उससे क्या लाभ पाया?
पशुयम जीवन में नरभवयापन की उन्मत्तता―अरे इन विषयों में ये पशुपक्षी भी रत होते हैं। उन कुत्ता, बिल्ली, कबूतर, मुर्गा, मुर्गी आदिक की योनियों में रहकर भी तो ये विषयों के काम किये जा सकते थे। देखिये―उन पशु पक्षियों के भी बच्चे होते हैं, मनुष्यों के भी बच्चे होते हैं, वे भी अपने बच्चों में मोह रखते हैं, ये मनुष्य भी मोह रखते हैं, तो अ बताइये मनुष्य ने विवेक का कौनसा काम किया? रही एक धन वैभव के बढ़ाने की बात तो जितना उन पशु पक्षियों को साधन जोड़ने की जरूरत है उतना वे जोड़ते ही हैं। हां मनुष्यों ने उनकी अपेक्षा अधिक लगाव लगाया उन साधनों में। पर यह लगाव इस मनुष्य के हित के लिए नहीं है। वह तो अशांति के लिए है। जितना अधिक वैभव होता जायेगा उतना ही अधिक अशांति बढ़ती जायेगी। उसकी कोई हद नहीं है कि कितना वैभव हो जाय तो शांति मिलेगी। रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द आदि की प्रवृत्तियों में ही व्यापार करते हैं। इसी चक्र में पड़कर यह मनुष्य जीवन लोग व्यर्थ ही गंवा देते हैं, उस तरह से जैसे कि भस्म के लिए अमूल्य रत्न को लोग जला देते हैं।