वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 301
From जैनकोष
इय सव्व-दुलह-दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च ।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ।।301।।
दर्शन ज्ञान चारित्र के अतिरिक्त अन्य में आदर करने से विपत्तिप्रसंग―इस बोधि दुर्लभ भावना के प्रकरण में अब तक यह बताया गया है कि सर्व से अत्यंत दुर्लभ चीज दर्शन ज्ञान, चारित्र है, मनुष्य भी हो गए और रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं है तो उस मनुष्यभव से फायदा क्या उठा पाया? मरे फिर अन्य कुगतियों में जन्म मरण करते रहे, संसार का चक्र लगाया, कौनसा वहाँ फायदा लूटा? तो सर्व दुर्लभ से दुर्लभ है दर्शन, ज्ञान, चारित्र। इस अंतस्तत्त्व को यदि पा लिया तो सब कुछ पा लिया। संतोष यहाँ ही मिलेगा। बाहर में कहीं संतोष न मिलेगा। कितनी उम्र हो गयी, कितने ही परिजन थे, कितने ही मित्रजन थे, लेकिन आज क्या रहा? परिजन मित्रजन कितने ही गुजर गए, उनसे मिला क्या? मुसीबत जिंदगी भर भोगा, पर उसके एवज में इसको मिला क्या सो बताओ। मगर मोह इतना विकट है कि मुसीबत भी भोगते जाते हैं और वे ही मुसीबत के काम प्यारे लग रहे हैं। करना पड़े यह बात अलग है मगर इसको भीतर में उसी से ही रुचि लगी है। यह सोच ही नहीं सकते कि उससे अलग रहकर हम जिंदा रह सकते कि नहीं। वे पदार्थ हैं। जिंदा रहना का दूसरा कोई साधन नहीं। इसी परिवार में रहें, राग करें तो हमारा जीवन है अन्यथा नहीं, ऐसा व्यामोह पड़ा हुआ है। तो यहाँ ये सभी चीजें धन वैभव आदिक मिलना तो सुलभ है पर एक यथार्थ ज्ञान का मिलना दुर्लभ है। इस सम्यग्ज्ञान के प्राप्त करने वाले बिरले ही लोग हैं। जिसने इस सम्यग्ज्ञान को पाया वह जान लेगा कि यही सर्वस्व है, इसके सिवाय बाकी जगत के समस्त पदार्थ तुच्छ हैं । जिनकी समझ में यह आ गया उनको शांति हैं संतोष है, क्योंकि तुच्छ तो है ही, अब उनको समझते हैं कि ये ही मेरे जीवन के अंग हैं, ये ही मेरे सर्वस्व हैं, उनका उपयोग उस ओर झुक गया तो बाह्यपदार्थों में जब उपयोग भाव गया तो उसको वहाँ मिलेगा क्या ? वे तो बाह्यपदार्थ हैं, उनका उत्पादव्यय उनमें है, उनका परिणमन उनमें है । उनसे मुझे कुछ मिल तो सकता नहीं तो वहाँ हम दुःखी होते हैं । इतना ही क्यों हुआ, इतना क्यों न हुआ, यों कल्पनायें करके यह जीव दुःखी होता है । देखिये लोक में दूसरी आफत यह लगी है कि पड़ोस के लोग,, देश के लोग, धन वैभव के पीछे बढ़ते चले जा रहे हैं, उन लोगों के सामने हम आदर नहीं पा रहे हैं, उनकी बातों को देखकर यह जीव सम्यग्ज्ञान में टिक नहीं पाता । ऐसे जुवारियों के अड्डे में जुवा खेलने वाले व्यक्ति को वे जुवारी लोग उठने नहीं देते, अगर वह उठना भी चाहे कि चलो जो पैसे बच गए उनसे ही गनीमत है, पर वे जुवारी लोग यह कहकर कि बस हो गए, इतनी ही दम थी..., उठने नहीं देते । ऐसे ही यहाँ किसी को ज्ञान भी हो जाय और सोचे कि हमें तो ज्ञान में ही रमण करना है, क्या पड़ी है हमें दुनिया के झंझटों से, इन लोगों से क्या लेना देना है, मगर लोगों के बीच रहते हैं सो उनके संग से प्राय: वह यहाँ से हट ही जाता है । भीतर की वृत्ति से वह अलग हो ही जाता है, तो दूसरी आफत यह लगी हुई है ।
आदरणीय रत्नत्रयभाव में सम्यक्त्व की आद्यता―दुर्लभ चीज है दर्शन, ज्ञान चारित्र । ऐसा जान करके इस संसार बस इन तीन चीजों का ही (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) आदर करें । सम्यक्चारित्र रूप जो परिणाम है, अपने आपके सहज स्वरूप की श्रद्धा होना, उस ही सहज स्वरूप का बोध रहना, इसी सहज स्वरूप में मग्न रहना, यह स्थिति मिले यही सार की चीज है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी चीज मिल जाय, जुड़ जाय, ढेर हो जाय, वह हमारे हित की चीज नहीं है, ऐसा सोचकर इसही रत्नत्रय भाव में महान आदर करना चाहिए, अन्य कोई स्थिति हमारे आदर के योग्य नहीं है । इस प्रकरण में बताया है कि एकेंद्रिय से लेकर विकास करते-करते रत्नत्रय की प्राप्ति पर्यंत जो हमारा विकास हुआ है यह दुर्लभ से दुर्लभ बात हुई है । अब दुर्लभ से दुर्लभ जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र पाया है इसकी रक्षा, करें, और इस उपाय से संसार के संकटों से सदा के लिए छूटने की बात बनी लें । सम्यक्त्व क्या है? तो निश्चय में तो परद्रव्य से, परभाव से भिन्न अपनी ही सत्ता से सहज शुद्ध जो चैतन्यस्वरूप है तन्मात्र अपने आपको अनुभवना, मैं यही हूँ, यही है सम्यक्त्व । और व्यवहार में अष्ट अन्न ही सम्यक्त्व है । जैसे 8 अंगों को छोड्कर शरीर और क्या? जैसे पीठ, पेट, दो हाथ, एक मस्तक, दो पैर और एक कमर का भाग, जिस पर हम आप बैठे रहते हैं, ये 8 अंग कुछ भी न सोचें तो शरीर और रहेगा क्या? इन 8 अंगों का समुदाय ही तो शरीर है । इसी प्रकार व्यवहार में 8 अंगों का समुदाय ही तो सम्यक्त्व है और ये ही 8 अंग व्यवहार दृष्टि से व्यवहार सम्यक्त्व बनते हैं और निश्चय दृष्टि से निश्चय सम्यक्त्व होते हैं ।
अष्टांग सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान व चारित्र में आदर करने की प्रेरणा―नि:शंकित अंग जिनवचनों में शंका न करना, जिनवाणी की बात सर्व प्रमाणिक है, उसमें संदेह न करें, निःशंकित अंग हो गया और निश्चय से आत्मा का जो अजर अमर अजन्मा स्वरूप है, शाश्वत ज्ञानानंदस्वरूप है उसमें शंका न करना, इसमें कोई नई बात आ ही नहीं सकती, इसमें कोई गड़बड़ होते नहीं, मैं ऐसा अमूर्त चैतन्यस्वरूप हूँ, यही है निश्चय से निःशंकित अंग । निःकांक्षित अंग धर्मधारण करके भोगविषयों की चाह न करना और निश्चय से कोई भी पदार्थ, कोई भी भाव चाहने के योग्य नहीं है । किसी भी भाव में लगाव न रखना, एक अपने चैतन्यस्वरूप में मग्न होने की धुन रहे, लो निश्चय सम्यक्त्व हो गया । धर्मात्माओं से ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा अंग है और अपने में जो रागद्वेषादिक भाव होते हैं, क्षुधा तृषा आदिक की जो वेदनायें होती हैं उनका भी विषाद न करना, उनका ज्ञाताद्रष्टा रहना, उनमें अपने को दुःखी न बनाना यह निर्विचिकित्सा भाव हो गया । कुपथ को देखकर, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को निरखकर उनको भला न मानना, यह श्रद्धान रखना कि सच्चे देव, शास्त्र गुरु ही सारभूत हैं यह अमूढ़ दृष्टि है । और, निश्चय से आत्मा का जो स्वरूप है उस स्वरूप में व्यामोह न करना, अर्थात् उसके विपरीत कुछ न समझना, सही सहज स्वरूप जानना अमूढ़दृष्टि हो गया । निजगुण व पर अवगुण का ढाकना व्यवहार उपगूहन है, अपने गुणों का विकास करना और अपने दोषों को दूर करना अंत: उपगूहन हो गया । अपने को व पर को धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण है, अपने में धर्म की प्रभावना करना सो प्रभावना अंग है । यों 8 अंगों का समुदाय वही सम्यक्त्व है और उसी का परिज्ञान करना सम्यक्ज्ञान है । उसी में उपयोग, रमाना सम्यक्चारित्र है । इनको महत्त्व दें, इनके सिवाय अन्य प्राप्त समागमों को महत्त्व न दें । दुर्लभ से दुर्लभ रत्नत्रय भाव है उसका साधन पाया तो एकचित्त होकर रत्नत्रय की आराधना में लग जाओ । अपनी अमूल्य निधि अपने को मिले एकमात्र यही पुरुषार्थ करो ।