वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 310
From जैनकोष
गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंख-वाराओ ।
पढम-कसाय-विणासं देस-वयं कुणदि उक्कसं ।।310।।
उपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, विसंयोजन, देशव्रत का असंख्यातों बार ग्रहण व त्याग―उपशम सम्यक्त्व और क्षयोपशम सम्यक्त्व को इस जीव ने असंख्याते बार ग्रहण किया, और छोड़ा । इसी प्रकार अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन भी इस जीव ने असंख्यात बार किया और छोड़ा । और, देश, संयम अणुव्रत, श्रावक के व्रत ये भी असंख्याते बार इस जीव ने प्राप्त किये । भव्य जीव इन चारों को अधिकाधिक पल्य के असंख्यातवें बार ग्रहण करता और छोड़ता । पल्य का असंख्याते बार अनगिनते बार हैं, लेकिन इसके बाद में वह जीव क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक चारित्र प्राप्त करके मुक्त हो जाता है । हां क्षायिकसम्यक्त्व अवश्य ऐसा है कि उसे यदि कोई प्राप्त कर ले तो फिर अधिक से अधिक 3 भव वह और धारण कर सकेगा । और, कोई कारणवश यदि 3 भव में, मुक्त न हो सके तो चौथे भव में मुक्त हो ही जायगा । यों क्षायिक सम्यक्त्व होने पर यह जीव चार भव से अधिक नहीं रह सकता संसार में और शेष चीजों को प्राप्त करके यह संसार में रहता भी
है । अब यह बतलाते हैं कि सम्यग्दर्शन में श्रद्धान इस जीव को किस प्रकार से होता है ?