वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 311
From जैनकोष
जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं ।
लोयाण पण्ह-वसदो ववहार-पवत्तणट्ठं च ।।311।।
तत्त्व की अनेकांतमयता―जो लोगों के प्रश्न के वश से व्यवहार चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा अनेकांतरूप तत्त्व का श्रद्धान करते हैं वे साधु सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं । पदार्थ कैसे हैं ? जैसे जीव नित्य है तो एक दृष्टि ऐसी आती है कि जीव अनित्य है । जीव चूंकि सदा रहता है, उसका कभी विनाश नहीं होता, इस कारण नित्य है, किंतु उसमें परिणतियां प्रतिक्षण नवीन रहती है । तो जो परिणति हुई वह आगे नहीं रहती, इस कारण वह अनित्य है । तो जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है और क्रम से दोनों दृष्टियों से नित्य अनित्य है । एक साथ कहा जाय तो कहा नहीं जा सकता इसलिए अवक्तव्य है, और अवक्तव्य होने पर भी नित्य समझ में आता है । उत्पादव्यय समझ में आने पर भी, अवक्तव्य होने पर भी, नित्य-अनित्य दोनों तरह विदित होते हैं ।
यों 7 भंग होते हैं किसी का जवाब देने में, तो इस तरह अनेकांत रूप से जो की तत्त्व श्रद्धा करता है उसको कहते हैं शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव । जैसे पहिले जीव को ही सिद्ध करें कि है या नहीं तो सप्तभंगी विधि से सिद्ध होता है कि जीव है । क्या है ? उसमें अपना द्रव्य है अपना द्रव्य है, अपना क्षेत्र है, अपना काल हैं, अपना भाव है । तो अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जीव है और पर में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जीव नहीं हैं, अर्थात् जीव पररूप नहीं है । किसी भी पदार्थ की सत्ता सिद्ध इसी तरह होती है । यह चौकी चौकी के रूप से है और यह चौकी भींत पत्थर आदिक के रूप से नहीं है । अब इन दो बातों में अगर एक न मानी जाय तो दोनों खतम हो जायेगी । जैसे चौकी अपने चौकी के रूप से है, यह न माना जाय तो चौकी क्या रहेगी ? चौकी पत्थर भींत आदिक के रूप से नहीं है, अगर यह न माने तो अर्थ होगा कि पत्थर भींत के रूप से है, तब चौकी क्या रहेगी ? तो किसी भी पदार्थ का अस्तित्व इसी प्रकार सिद्ध होता कि वह अपने स्वरूप से है और परस्वरूप से नहीं है । तो ये दो भंग हो गए । अपने स्वरूप से अस्तित्व परस्वरूप से नास्तित्व-इन दोनों को क्रम से बोल करके कहा जाय तो इसमें दोनों धर्म सिद्ध होते हैं, और दोनों को एक साथ नहीं कह सकते, इस कारण अवक्तव्य सिद्ध होता है । तो जब ये चार भंग हो गए तो शेष के तीन भंग भी यहाँ लग जाया करते हैं । तो यों पदार्थ अनेकांत स्वरूप हैं ।
एकांताग्रह में व्यवहार व मोक्षमार्ग की असिद्धि―अनेक दार्शनिकों ने जो अपना-अपना दर्शन बनाया है वह एकांत कुछ पकड़कर ही बनाया गया है । जैसे जीव सदा रहता है या प्रतिक्षण मिटता रहता है ? एक ऐसा प्रश्न हुआ तो किन्हीं दार्शनिकों ने तो यह कहा कि जीव सदा रहता है वही का वही । उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता, तो किसी दार्शनिक ने यह कहा कि जीव तो क्षण-क्षण में नया-नया होता है । जैसे क्रोध किया, अब क्रोध के बाद यह क्रोधी तो रहता नहीं, दूसरी कषाय में आ गया, तो इस दार्शनिक ने यह मान लिया कि जो क्रोध
करने वाला जीव था वह दूसरा था, अब मान करने वाला जीव दूसरा हो गया। लेकिन स्याद्वादी यह निर्णय देता है कि जीव तो वही है, पर परिणति बदल गयी । तो द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है और पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य है । स्याद्वादी यदि न मानें तो लोगों का व्यवहार भी नहीं बन सकता । यह लेनदेन जो चल रहा है वह स्याद्वाद के बल पर ही तो चल रहा है । जिसको उधार दिया उससे हम दुबारा कब मांग सकते ? जब इतना निर्णय हो कि यह वही मनुष्य है जिसे हमने उधार दिया था । जब उसकी नित्यता ज्ञात हो तब ही तो लेनदेन का व्यवहार चलेगा और यदि वह ऐसा नित्य हो कि जरा भी परिणमन उसमें नहीं है तब भी व्यवहार क्या चलेगा ?
व्यवहार की प्रवृत्ति स्याद्वाद के बल पर ही हो सकती, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति भी स्याद्वाद के ढंग से होती है । मैं हूँ, सदा रहूंगा और मेरे में प्रति समय कोई न कोई अवस्था रहेगी । तब हमें मुक्त होने का उद्यम करना चाहिए क्योंकि मैं सदा तो रहूंगा, मिटूँगा तो नहीं । और हमारी कोई न कोई अवस्था रहेगी । तो संसार की चारों गतियों की अवस्था बनाये रहें उसमें तो हमारी बरबादी है, अंत: हमको ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए कि इन चारों गतियों का यह जन्म मरण छूटे । यह अभिलाषा कब हुई ? जब हमने यह जाना कि मैं कथंचित नित्य हूँ और कथंचित अनित्य हूँ । यदि सदा एकसा ही रहने वाला हूँ तो मोक्ष पाने की क्या जरूरत ? और यदि मैं क्षण-क्षण में नया-नया ही बन रहा हूँ तो मोक्ष पाने की क्या जरूरत ? जब एक शरीर में जुदे-जुदे आत्मा होंगे तो पाप करेगा कोई दूसरा आत्मा और उसका फल भोगेगा कोई दूसरा आत्मा । पर ऐसा होता नहीं । जैसे एक का किया हुआ पाप दूसरा नहीं भोगता, इसी प्रकार एक देह में जो अनेक आत्मा उत्पन्न हो रहे, जैसा कि बौद्धजन मानते हैं, तो एक ने किया पाप, दूसरा कोई भोगे । और जब भोग न सके तो किसी को मानने की जरूरत ही क्या है ? यदि सर्वथा नित्य माने तो मोक्ष धर्म नहीं बनता और सर्वथा अनित्य माने तो भी मोक्ष नहीं बनता । जब नित्यानित्यात्मक है पदार्थ में जीव, तब ही मोक्षमार्ग में और धर्म में कदम चल सकती है ।