वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1076
From जैनकोष
एक एव मनोदैत्यजय: सर्वाथसिद्धिद:।
अन्यत्र विफल: क्लेशो यमिनां तज्जयं बिना।।1076।।
मनोदैत्यजय की सर्वाथसिद्धिदता:―संयमी मुनियों को एकमात्र मनरूपी दैत्य का जीत लेना ही समस्त अर्थों की सिद्धि को प्रदान करने वाला है।‘मन के जीते जीत है मन के हारे हार।’लोक में इसका अर्थ यों लगाते कि सांसारिक कोई कार्य करना हो, किसी शत्रु से, किसी विरोधी से भिड़ना हो तो अपने मन को बलिष्ठ बनायेंगे तो जीत जायेंगे, पहिले से ही मन को निर्बल बना लिया तो हार जायेंगे। जैसे लोग दिशाशूल का बड़ा ख्याल करते हैं, जैसे लोग कहते हैं कि मंगल और बुध को उत्तर की ओरजाने के लिए दिशा शूल है, चूँकि ऐसा भाव पहिले से ही बना लिया था इस कारण पहिले से ही कुछ दिल कमजोर सा हो गया। अब वह जो भी काम करेगा वह उसी दुर्बल ढंग से करेगा। फल क्या होगा कि वह काम अपने आप बिगड़ेगा और काम बिगड़ने पर दिशाशूल का एहसान देंगे। अपना मन बलिष्ठ हे तो हर एक विभूति पायी जा सकती है। मन बलिष्ठ नहीं है तो हर जगह विपत्ति पायी जा सकती है, कहीं भी विजय नहीं पायी जा सकती है। पाप का कार्य कोई करे तो उसका मन बलिष्ठ रह ही नहीं सकता। तो ऐसे दुर्बल मन से कोई व्यवहार करेगा तो उसका लक्षण व्यवहार होगातब वह अपने आपको हार में ही पायेगा। जिन्हें समस्त अर्थों की सिद्धि करनाहै तो इस मनरूप दैत्य को जीत लें। मन को जीते बिना व्रत नियम तप और शास्त्र स्वाध्याय आदिक में क्लेश करना व्यर्थ है मन विषयों की ओररहे और धर्म के नाम पर अन्य कषाय ही कषाय करता रहे तो जो विषैला मन है, जो विषयों में आसक्ति रखता है उस मन वाले पुरुष को व्रत नियम से कोई सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती। अत: अर्थ की सिद्धि चाहने वाले पुरुषों को इस मनदैत्य का जीतना बहुत आवश्यक है। इस मन का जीतना किस प्रकार होगा? उसका उपाय है मूल में भेदविज्ञान। किसमें मन लगाना? लोक में हमारा नाम रहे। अच्छा किन लोगों में आप अपना नाम चाहते हैं? जो खुद मर मिटेंगे, जो स्वयं मलिन हैं, संसार में भटकते हैं इन लोगों में नाम चाह रहे। उससे क्या लाभ होगा? जब भेदविज्ञान जगता है में तो स्वतंत्र अपना ही परिणमन किया करता हूँ, दूसरे का कुछ नहीं करता और दूसरे लोग भी सब अपना-अपना ही कार्य करते हैं, अपने ही प्रदेशों में परिणमते हैं, वे कोई मेरा कुछ नहीं करते। भेदविज्ञान जगे, फिर नाम यश की चाह कौन करेगा? इसी प्रकार सब विषयों की बात है। अपने आपको सारशरण तो खुद आत्मा है। इस बात का जिसे परिचय हो जाय फिर वह क्यों विषयों में रति बनायेगा? तो विषयों की प्रीति हटे, मन पर विजय प्राप्त हो, यह सब भेदविज्ञान से सिद्ध होगा। भेदविज्ञान बनेगा वस्तु का स्वरूप पहिचानने से।और वस्तु के स्वरूप की पहिचान होगी स्याद्वाद से। तो यह स्याद्वाद का उपाय हमारे समस्त कल्याणों में एक प्रधान साधन है। उस स्याद्वाद से हमने वस्तुस्वरूप जाना। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्य वाला है। जो सभी पदार्थ अपने आपमें ही उत्पाद करते हैं, व्यय करते हैं, और ध्रुव करते हैं। ऐसा समस्त पदार्थों का स्वरूप है कि वे अपने ही स्वरूप में रहकर नई स्थितियाँबनायेगा, पुरानी स्थितियाँविलीन करेगा और वह सदा शाश्वत वह ही रहेगा। इस प्रकार उत्पाद व्ययध्रौव्य प्रत्येक पदार्थ में स्वयं अपने आपमें है तब किसी पदार्थ से किसी दूसरे पदार्थ का संबंध क्या? कोई किसी का अधिकारी नहीं, कोई किसी का स्वामी नहीं। जब यह भेदविज्ञान जागृत होता है तो वहाँ वस्तुस्वरूप समझ में आया और मोह वहाँ मिट गया। मोह दूर हुआ कि सारे संकट दूर हो गए। जितने भी संकट हैं वे सब मोह के बल पर ही अपना बल बना रहे हैं। मोह मिटा कि समस्त संकट समाप्त हो गए। जिनको समस्त संकटों से मुक्त होने की चाह है उनका प्रधान कर्तव्य है कि वे इस मनदैत्य पर विजय प्राप्त करें।