वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1077
From जैनकोष
एक एव मनोरोध: सर्वाभ्युदयसाधक:।
यमेवालम्व्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम्।।1077।।
मनोनिरोध की सर्वाभ्युदयसाधकता―एक मन को रोकना ही समस्त अभ्युदयों का साधने वाला है। क्योंकि मन के निरोध का आलंबन करके ही योगीश्वर तत्त्व के निश्चय को प्राप्त होते हैं। निश्चय निर्णय सम्यग्ज्ञान किसके कहलाता है। जिसने मन पर विजय प्राप्त कर लिया उसे लोग अब भी ज्ञानी पंडित कहते हैं। जिसका आचरण दुषित हो, पापों में लगता हो तो कहते हैं कि इसको ज्ञान हुआ कहाँ? चाहे बड़े-बड़े वाक्य, छंद, व्याकरण, ज्योतिष बड़ी-बड़ी विद्यावों का जानकार बन गया हो, पर आचरण हो दुषित तो लोग कहते हैं कि इसने ज्ञान कुछ नहीं पाया। तो ज्ञान तभी कहा जाता है जब आचरण सही बनने लगता है। तो जिन मुनियों के मन का निरोध किया है उन्हें समस्त अभ्युदय सिद्ध होते हैं और तत्त्व का निश्चय उनके ही होता है ऐसा हम निर्णय कहते हैं। मन के निरोध से ही समस्त समृद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। जब तक किसी ऋद्धिसिद्धि की चाह बनी रहे तब तक ऋद्धियाँउत्पन्न नहीं होती और जब चाह नहीं रहती तो ऋद्धियाँउत्पन्न होती हैं। जगत में यही तो एक रोना है कि जब हम समृद्ध होते हैं तो चाह नहीं रहती है, जब हमारे चाह रहती है तो समृद्धि नहीं मिलती। फिर काहे का जगत में आनंद है? मुनीश्वरों के अनेक ऋद्धियाँपैदा हो जाये उनको पता ही नहीं रहता कि हमें कुछ चमत्कार उत्पन्न हुए हैं। किसी को जानकारी हो जाय तो ऐसी सिद्धि उत्पन्न होती हैं कि वह धर्मरक्षा करने में समर्थ है। तब वह परीक्षा करता है और निश्चय करता है कि हमारे यह सिद्धि प्राप्त हुई है। तो यह चाह तो समृद्धि में बाधा देने वाली है। चाह से लाभ कुछ नहीं है बल्कि नुकसान ही नुकसान है। तो एक मन को रोकने से समस्त अभ्युदयों की सिद्धि होती है और मन को रोकने वाले मुनीश्वर ही वास्तव में तत्त्व के निश्चय को प्राप्त होते हैं यह कहा जा सकता है। जैसे बड़े-बड़े सम्यग्ज्ञानियों की कथायें कहें तो जो उच्च विरक्त और प्रयोगरूप परिणति वाला है वह कम से कम छुटती है बात। फिर सब बात क्या है? उससे कोई पूछे और उसे विवश कर दे कि फिर सच बतावो क्या है तो वह विरक्त होकर सबसे स्नेह तजकर जंगल को चल दे। बस अब सब लोग अपने आप समझ जायें कि सच बात क्या है? जैसे भोजन-भोजन हलुवा-हलुवा कहने से किसी का पेट तो नहीं भरता, खाते है तब पेट भरता है, ऐसे ही धर्म की बात मुख से कहते रहने से तो वह चमत्कार नहीं बनता वह धर्म की बात प्रयोगरूप से अपने में उतार लें तो उसमें लाभ हुआ करता है। तो जब तक हम प्रयोग नहीं करते अपनी जानी हुई धर्मविधि का तो कुछ उससे लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। तो तत्त्व निश्चय हमारा तब कहा जायगा जब हम मन को वश में कर लें।