वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1125
From जैनकोष
नित्यानन्मयीं साध्वीं शाश्वतीं चात्मसंभवाम्।
वृणोति वीतसंरंभो वीतरागा: शिवश्रियम्।।1125।।
वीतराग मुनि का शिवश्रीस्वामित्व:―जिसका रागादिक विकल्प नष्ट हो गया है वह वीतराग मुनि ऐसी कल्याणश्री को प्राप्त करता है जहाँनित्य आनंद है, शुद्ध है, निरंतर रहने वाला है और आत्मा से उत्पन्न हुआ है अर्थात् मोक्ष का स्वामी होता है मुक्ति क्या है? सबसे हटकर केवल अपने आप स्वरूप में रह जाना इस ही का नाम मुक्ति है। खुद-खुद ही है। खुद-खुद बन गया यही मुक्ति का लाभ है। मुक्ति का निर्माण कहीं किन्हीं जोड़ जोड़कर न होगा। कोई यों सोचे कि बड़े तपश्चरण विधान आदिक कार्यों को करके मुक्ति का हम संचय करने लगें सो मुक्ति तो हटने से प्राप्त होती है, लगने से प्राप्त नहीं होती। मुक्ति में जो स्वरूप प्रकट होता है वह स्वरूप स्वयं ही सहज अपने आपके सत्त्व में होता है, किसी दूसरे पदार्थ के संबंध सेनहीं होता। जैसे पाषाण में से कोई प्रतिबिंब निकाला जाता हैतो वह प्रतिबिंब किसी पदार्थ को जोड़कर लगाकर नहीं बनाया गया है।प्रतिबिंब तो वही का वही बन गया है। वह पाषाण में पहिले भी था अर्थात् वह परमाणु, वह अवभव जो प्रतिबिंबितरूप में प्रकट हुआ है वह पाषाण में पहिले से ही था। केवल एक चतुर द्रष्टा कारीगर ने उस प्रतिबिंब को ढकने वाले जो अगल-बगल के पत्थर हैं उनको हटाया भर है, लो प्रतिबिंब निकल आया। कहीं से बनाया नहीं गया। इसलिए टंकोत्कीर्ण प्रतिबिंब का द्रष्टांत कहा गया है। टंकोत्कीर्ण प्रतिबिंब वह निश्चल है और अपने आपसे प्रकट होता है, इसी प्रकार आत्मा का जो स्वरूप है, विकास है वह भी निश्चल है और अपने आपसे उत्पन्न हुई है। जो सिद्ध अवस्था है, वह निश्चल है, चलित नहीं होती, कोई निमित्त नहीं रहा, कोई योग्यता न रही, अब वह सिद्ध बिंब आत्म प्रदेश निश्चल है, निष्कंप है और जो विकास होता है वह भी कभी चलित नहीं होता और अपने आपसे उत्पन्न होता है। किन्हीं बाह्य पदार्थों को छोड़कर वह सिद्ध अवस्था प्रकट नहीं हुई है। हम किस बात को कह रहे हैं?अपने आपमें सोचते जाइये, जो हमारा विरुद्ध रूप हो सकता हे उसकी बात कह रहे हैं। सिद्ध की बात कहे तो ऐसा अनुभवना चाहिए कि हम अपनी बात कर रहे हैं। जैसे व्यापार धंधों के अनेक भावी प्रोग्राम खूब खुश हो होकर कहा करते हैं तो यह सिद्ध अवस्था अपने आपके आत्मा काही तो भावी प्रोग्राम है। विकास हो होकर अपने भावी प्रोग्राम की चर्चा कर रहे हैं कि हम किसी दूसरे की क्या कह रहे हैं? वह सिद्ध अवस्था मेरे स्वरूप में ही उत्पन्न हुई है अथवा उत्पन्न हो गयी, वह ज्यों की त्यों उस स्वभाव में सदैव रहती है प्रत्येक जीव में है। अब उपयोग ऐसा बिगड़ गया कि हम उसका लाभ नहीं ले पाते। अतएव वह स्वरूप ढक गया है, पर जब भी हम णमो अरिहंताणं बोलें तो यह अरहंत दूसरे हैं उनको हम नमस्कार करते हैं, ऐसी अत्यंत भिन्न दृष्टि न रखकर हम अपनी ही बात कर रहे हैं। हमारा ही भावी प्रोग्राम है ऐसी अवस्था प्राप्त करने का और इसी नाते से हम उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। अरहंत भगवान हमें कुछ देते तो हैं नहीं। सुख दु:ख का देने वाला कोई दूसरा पुरुष तो है नहीं। फिर अरहंत के ध्यान से हमें फायदा क्या मिला? फायदा यह है कि हम अपने आपका भावी प्रोग्राम समझ रहे हैं उस रिश्ते से हम प्रभु को नमस्कार करते हैं। वे हमें कुछ देंगे नहीं पर हम ही ध्यान करके अपने आपको उस रूप भा भाकर खुद प्राप्त कर लेंगे और इसी नाते से हम अरहंत प्रभु का स्मरण करते हैं। जब णमोसिद्धाणं बोलें तो हम कहीं भिन्न सिद्ध को नमस्कार कर रहे हैं ऐसी अत्यंत विविक्तता की बात न रखें, किंतु हम अपने भावी प्रोग्राम की सुध ले रहे हैं। वह अवस्था हमें इष्ट है, हितरूप हे, सर्वसंकटकारी है और वह सब कुछ मुझमें ही है। हम अपने आपके अंत: छुपे हुए उस मर्म के विकास को अपनी याद में ले रहे हैं।
परमेष्ठिपदों में साध्यसाधनत्व का प्रकाश:―परमात्मपद तो हुआ साध्यरूप, पर साधनरूप हैं आचार्य उपाध्याय साधु। ये भी एक ही बात है। निरारंभ, निष्परिग्रह, इनका एक ही पद है। केवल थोड़ा एक मोक्षमार्ग के निर्वाह के लिए रागादिक भावों से जो बाधायें आती उन्हें दूर करने भर की व्यवस्था है। पर पद तीनों ही एक हैं। सबका ध्येय एक कैवल्य की प्राप्ति है। तो जब हम आइरियाणं, उवज्झायाणं और साहुणं बोलें तो वहाँ केवल एक रूप का अनुभव करना है, भिन्न-भिन्न रूपों का नहीं। वही निर्ग्रंथ, निष्परिग्रह, निरारंभ केवल ज्ञानस्वरूप की ही साधना में उत्सुक ऐसे गुरुभाव का हमें स्मरण करना है। वह भी हमारा भावी प्रोग्राम है। वह सामर्थ्य हमारे प्रकट हो कि हम उस निष्परिग्रह पद को प्राप्त करें जो कि अरिहंत अवस्था का कारण है। न हो इस काल में अरिहंत अवस्था, किंतु उसका एक सिलसिला और भावों में एक विशुद्धि तो बनेगी। तो जो शाश्वत लक्ष्मी है मुक्ति वह कुछ भिन्न नहीं है। जो उसका सहज स्वरूप है वही मोक्ष अवस्था में प्रकट होता है, उसे वीतराग पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं। राग में तो राग का विषय मिलेगा। विषय भी न मिलेगा, किंतु राग में तो अपना रागी परिणमन मिलेगा, अन्य कुछ नहीं हाथ आने का। हम अपने को 4-5 मिनट ही बड़े शुद्ध परिणाम से अकिंचन आदि अनुभव कर सकें केवल ज्ञानमात्र हूँ ऐसा नाता तोड़ दें उस धर्मपालन की प्रक्रिया में कि मानो कुछ भी हमारा नहीं है। जितना व्यवहार रूप से भी मानते आये हैं, करना पड़ रहा है या गृहस्थों का कर्तव्य है, इस रूप में भी जितनी बात मानते आये उसको भी हटा दें यह दशा एक सामायिक की होती है और उस सामायिक में वह मुनि तुल्य बताया गया है चाहे वह गृहस्थ भी हो। जब आत्मध्यान की स्थिति में समतापरिणाम में वह आ गया तो समझ लीजिए कि उसने एक मोक्ष का जो यथार्थ उपादानभूत है उस प्रभु को पा लिया। समाधि के लक्षण में यह बताया गया हे कि सामायिक का वह समय है, या सामायिक का वह विधान है या इतनी देर की सामायिक है कि चोटी की गांठ लगाना मुट्ठी का बंधा होना आदिक बताया है। तो उसके हम दो अर्थ ले सकते कि सामायिक की विधि ऐसी है कि कपड़े का बंधन कर ले याने चद्दर ठीक बाँध ले, चोटी की गांठ लगा ले, दूसरा यह भाव बन सकता कि चोटी का बंधन करने में जितना समय लगता है उतना खासा सामायिक का समय है। अधिक देर तक समतापरिणाम नहीं ठहरता। लेकिन उस समतापरिणाम में ठहरने के लिए हमें और प्रयोग बहुत काल तक करने पड़ते हैं। हम यदि अपने आपको किसी भी क्षण सारे नाते तोड़कर अकिंचन निरखें, केवल ज्ञानस्वरूप में हूँ ऐसा दर्शन करें तो उस आत्मा को ऐसी कल्याणरूप लक्ष्मी का लाभ हो जो सदा रहने वाला है, समीचीन है, स्वाश्रित हे, सदैव जिसमें आनंद बर्तता रहता है। बस हमारा काम हे कि ऐसा ज्ञान बनायें कि मोह न जगे और रागद्वेष मिटे। ऐसे ज्ञान में लगते रहना ही हमारा कर्तव्य है।
(नोट:― श्लोक नं.1126, 1127, 1128 व 1129 का एक प्रवचन नोट नहीं हुआ)