वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1124
From जैनकोष
चिदचिद्रूपभाषेषु सूक्ष्मस्थूलेष्वपि क्षणम्।
राग: स्याद्यदि वा द्वेष: क्व तदध्यात्मनिश्चय:।।1124।।
पदार्थों में रागद्वेष होने पर अध्यात्मनिश्चय का अभाव:― सूक्ष्मअथवा स्थूल चेतन अचेतन पदार्थों में क्षणभर भी राग अथवा द्वेष होता हे तो फिर अध्यात्म का निश्चय कहाँरहा? अपने आपके स्वरूप के सिवाय अन्यत्र यदि राग अथवा द्वेष उत्पन्न हो तो आत्मदृष्टि कहाँरही? आत्मदर्शन जब है तब किसी भी आत्मा की सुध न हो। किसी भी अनात्मतत्त्व में राग न जाना। यदि किसी में रंच भी राग है तो वहाँ अध्यात्म नहीं है। कोई पुरुष ऐसा सोचे कि हम मजे से अपने घर में रहते हैं और किराये आदि की आमदनी है। लोग घर दे जाते हैं, न किसी को सताते, न किसी से झूठ बोलते, न चोरी करते, न कुशील परिग्रह सहते। घर में रहते है, अपने परिवारजनों में बड़े सुख से प्रेमपूर्वक रहते हैं तो कर्मबंधन तो न होता होगा और पाप न लगता होगा, कोई ऐसा सोचे कि हम पराधीन न होंगे, हम तो स्वतंत्र हैं तो यह सोचना गलत है। पराधीनता तो उसकी भी कर्मों की है, विषयसाधनों की है, और वे विषय साधन अनुकूल मिलें, न मिलें, उनकी कल्पनाओं की भी उनको वेदना हुआ करती है। तो पराधीनता भी है और पापभाव भी है। आत्मदर्शन न हो, और आत्मदृष्टि से अन्यत्र कहीं प्रीति का परिणाम पैदा हो वह सब पापभाव है। इंद्रिय के विषयों के साधनों को रुचि जग रही है वह पापभाव है। आत्मा का जो सत्य आनंद है वह आनंद की वहाँ झाँकी नहीं है, केवल क्षोभ ही क्षोभ है। और गलत दुनिया में पहुँच गए हैं, और सही लोक हे अपना चैतन्यलोक, ब्रह्मलोक, उसमें स्थित नहीं है तो उसको तो सारा पाप का ही भाव लग रहा है। बंधन भी है, पाप भी है। जैसे दूसरों का सताना पाप है ऐसे ही अपने आपसे विषयों में आसक्त बनाना भी पाप है। विषयों में आसक्त पुरुष को सम्यग्दर्शन न हो सकेगा और सप्तम नरक के नारकी जो वेदना सह रहा है, दूसरों को भी सता रहा है, उसका सम्यग्दर्शन हो सकेगा। तो अब समझ लीजिए कि विषयों में आसक्त होना कितना महान पाप है? जहाँ मोक्षमार्ग का प्रारंभ भी नहीं बन सकता। तो जिस किसी भी पदार्थ में चाहे वह सूक्ष्म अथवा स्थूल हो, राग अथवा द्वेष होता है तो वहाँ अध्यात्म का निश्चय नहीं है।