वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1147
From जैनकोष
भावयस्व तथात्मानं समत्वेनातिनिर्भरम्।
न यथा द्वेषरागाभ्यां गृह्णत्यर्थकदंबकं।।1147।।
हे आत्मन् ! अपने आपको समतापरिणाम से उस प्रकार भावना कर। अपने आपको समता से भरा हुआ ऐसा भाव बना, उस प्रकार से भावना कर जिस प्रकार राग और द्वेष से यह पदार्थों का पुंज ग्रहण में न आ सकेगा। मैं अकिंचन हूँ। देखिये यदि कुछ हो तो उस वाला अपने को मान लो। वह धर्म ही है। यदि इंद्रिय के विषयों में सुख हो तो खूब भोगिये, धर्म ही है। कोई मनाही की बात नहीं। यदि परिग्रहों के संचय में शांति होती हों तो वह भी धर्म है, पर होता तो नहीं हे ऐसा। कोई कहे कि उस समय तो शांति हो ही जाती जिस समय विषयसाधन बनाया है, भोग उपभोग चल रहा है। लेकिन उस समय भी शांति नहीं है। शांति चीज और है और कल्पना की मौज और है। जिस भाव में शांति मिले वह भाव धर्म हे और शांति का स्वरूप तो यथार्थ निरख लेना चाहिए। शांतिभाव क्या चीज है? जहाँकोई तरंग न हो, विकल्प न उठे, कल्पना न जगे, कौन इष्ट है, कौन अनिष्ट है ऐसा परिणाम न बने, शांति उस परिणाम में है। तो अपने आपको मैं शांत हूँ, समता से निर्भर हूँ ऐसी बारबार भावना बनायें, ऐसा चित्त में भायें तो यह बात प्रकट हो जायगी। जिस रूप से अपने आपको भाये उस रूप से विकास हुआ करता है और वही संतति चलती रहती है। मैं यह देह वाला हूँ ऐसी वासना बनी रहेगी तो मरेंगे, फिर देह मिलेंगे क्योंकि देह मिलेंगे क्योंकि देह को अपना रखा है। जैसा अपने आपको भाये उस जाति का फल मिलेगा। तो अपने आपको केवल ज्ञानस्वरूप समता से निर्भर केवल ज्ञानज्योतिमात्र ऐसा अनुभवें। ऐसा अनुभव कर लिया इसकी परख यह है और वह परख बाद में की जा सकती है, अनुभूति के काल में नहीं, अनुभूति के काल में नहीं। ज्ञानस्वरूप की अनुभूति के समय में तो गटागट आनंद का अनुभव किया जाता है परख नहीं की जाती। उस स्थिति की परख, अनुभव के बाद में होती है। कैसी होती है वह स्थिति? ओह !जगत के किसी भी अन्य पदार्थ की कल्पना न थी, विकल्प न था, इष्ट अनिष्ट के भाव की तो कहानी ही क्या करें? क्या था वहाँ ? केवल निज का विकास, निज का प्रकाश। तो यह बात तो तभी प्रकअ होगी जब इस स्वभाव रूप में अपने आपकी बारबार भावना बनाएं। हे आत्मन् ! अपने आपको समताभाव से निर्भर अर्थात् खूब अमृत से भरा हुआ अपने आपको निरख, ताकि रागद्वेष के द्वारा इन अर्थ समूहों का ग्रहण न किया जाय।
ध्यान का यह ग्रंथ है और ध्यान उसी का नाम है जहाँ एक विशुद्ध स्वरूप में ज्ञान एकाग्र हो जाय, उसी को ही ध्यान कहते हैं। उसका उपाय है समतापरिणाम होना। यह रागरूपी आग इस जीव को जला रही है, उसके बुझाने का उपाय समतारूपी अमृत का सिंचन करना है। यों अपने आपको समता से भरपूर निरखें। किसी बच्चे को बहुत-बहुत गालियाँ ही दी जाया करें, तू मूर्ख है, गधा है, बेवकूफ है, कुछ नहीं समझता है तो वह अपने आपमें ऐसी ही भावना बना लेगा, मैं मूर्ख हूँ, बेवकूफ हूँ, तो भावना बनाने से वह उस ही तरह की चेष्टा करने लगेगा, और एक बच्चे को तू राजकुमार है, तू बहुत बुद्धिमान है, चतुर है, तू ने यह काम ठीक किया, इस प्रकार से उसे बोला जाय तो वह उस रूप अपने में अनुभव करेगा और वैसी ही वृत्तियाँकरेगा। उससे एकउसमें सभ्यता जगेगी और वह शांत चित्त रहेगा। अपने आपको अच्छे कार्यों में लगायेगा, ये सब बातें बन जायेंगी। सब कुछ भावना पर निर्भर है। हम अपने आपको कैसा मानें? बस इस ही बात पर सारा भविष्य निर्भर है। जब तक यह माना जा रहा है कि मैं यह ही हूँजो जाति, कुल, शरीर, ढंग, इज्जत जो कुछ भी रंग है उस मात्र मैं हूँतो वह इन ही रंगों के अनुकूल अपनी चेष्टा बनायेगा।अपने आपको यदि मैं शुद्ध ज्ञानमात्र हूँ, केवल भावमात्र हूँ, एक भाव का उत्पाद कर लिया,भावरूप परिणम लिया, कुछ जानकारी बन गयी। जानकारी बनी रहने के सिवाय और मेरा कोई स्वरूप नहीं, और कुछ मेरा कार्य नहीं। ऐसा यदि अपने आपको ज्ञानस्वरूप निहारता रहे तो ये चेष्टायें, ये विकल्प, ये आकुलताएँ सब ध्वस्त हो जाती हैं। इतना बड़ा काम पड़ा हैअपने सामने, अपने आपको कैसा मानते रहें, कैसा निरखते रहें।