वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1148
From जैनकोष
रागादिविपितं भीमं मोहशार्दूलपालितम्।
दग्धं मुनिमहावीरै: साम्यधूमध्वजार्चिषा।।1148।।
यह रागादिक रूप भयानक बन, मोहरूपी सिंह के द्वारा रक्षित है। जिस वन में सिंह हो उसे कोई उजाड़ेगा क्या? वहाँ कोई लकड़ी काट लेगा क्या?किसी की हिम्मत तो न पड़ेगी। उनकी रक्षा सिंह करता है। बस सिंह का बना रहना इतना ही बहुत है। उस वन की रक्षा बनी रहती है। ऐसे ही यह रागादिक रूपभयानक वन मोह के द्वारा रक्षित है। मोह होने से यह रागादिक भाव बराबर खूब बने रहते हैं। इन्हें मिटा सकने वाला कोई नहीं है। मोह भाव है तो रागादिक खूब रह जायेंगे, उन्हें कौन मिटा सकता है? राग का मूल तो मोह है, जड़है, जैसे जड़रहे तो वृक्ष हरियाता रहे ऐसे ही अज्ञान रहे, स्वरूप का विभिन्न जैसा रूप है, मर्म है उसका परिचय न हो यह तो अज्ञान है। इस अज्ञान की जड़ हैयह राग, वृक्ष का फैलाव होता है। उस वन को मुनि रूप महासुभटों ने संभावरूपी अग्नि की ज्वाला को दग्ध कर दिया है अर्थात् समतापरिणाम से राग का विध्वंस कर दिया है।