वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1149
From जैनकोष
मोहपंके परिक्षीणे शीर्णे रागादिबंधने।
नृणां हृदि पदं धत्ते साम्यश्रीर्विश्ववंदिता।।1149।।
पुरुषों के हृदय में मोहरूपी कर्दम के सूखने से और रागादिक बंधनों के दूर होने पर यह जगत विजय समतारूपी लक्ष्मी में निवास करता है। देखिये यहाँ मनुष्य में भी लोगों की दृष्टि में आदर्श और महान् तथा पूज्य आस्था के योग्य कौन मनुष्य माना जाता है? चाहे गृहस्थी में हो, किसी स्थिति में हो, जिसमें समता की बात अधिक पायी जाय जनता के बीच में वह आदर्श मनुष्य बनता है और जिसके चित्त में पक्ष हो, रागद्वेष की बुद्धि बने उस पुरुष का आदर जनता में नहीं रहता है तो लोकव्यवहार में भी आदर्श ऊँचा समतापरिणाम वाला मनुष्य माना जाता है और फिर परमार्थपथ में उस मोक्षमार्ग में तो समता का ही आदर्श है सर्वत्र। हम निज प्रभु की आराधना करते हैं, पूजते हैं वह प्रभु हैं क्या और? समता के पुंज हैं, जिनके रागद्वेष नहीं है। जो केवल अपना ज्ञान विशुद्ध बनाये रहते हैं और इस विशुद्ध वृत्ति के कारण जो आत्मा के निकट ही वर्तते रहते हैं, वे ही तो यह परमात्मप्रभु हैं। शांति तो जिस विधि से मिलती है उस विधि से ही मिलेगी। सोचने से, विकल्पों से, अपनी शान से, उद्दंडता से, रागद्वेष मोह भाव से शांति नहीं प्राप्त होती। जिनका निर्णय यथार्थ है, ज्ञान सही है वह कदाचित् उस ज्ञान का परिपालन भी न कर पाता हो तब भी उसके संकट उसके क्लेश यों समझिये कि 90-99 प्रतिशत मिट चुके हैं। जितने कर्मों की काट-छांट सम्यक्त्व होने के समय होती है उतनी काट-छांट करने से नहीं होता। अनंत संसार जिस भाव से मिट जाता है वह भाव प्राप्त हो जाय तो आगे की मंजिल बहुत थोड़ी सी रह जाती है। हम अपने आपको ज्ञानमात्र समता से भरपूर, सबसे निराला देह से भी न्यारा अनुभवा करें। इस प्रतीति से ही कल्याण निकट है।