वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1178
From जैनकोष
भवज्वलनसंभूतमहादाहप्रशांतये।
शश्र्वद्धयानांबुधेर्धीरैरवगाह: प्रशस्यते।।1178।।
संसाररूपी अग्नि से उत्पन्न हुआ जो महान आताप है उसकी शांति के लिए जो बड़े तत्त्वज्ञानी धीर वीर पुरुष हैं वे ध्यानरूपी समुद्र का अवगाहन किया करते हैं और इस ही की योगीश्वरों ने प्रशंसा की है। जैसे कोई सूर्य की प्रखर किरणों से अथवा अग्नि के निकट रहने से बहुत तेज आताप हो गया हो तो उसे शांत करने के लिए समुद्र का स्नान किया करते हैं, लोग सरोवर में स्नान करते हैं इसी प्रकार तत्त्वज्ञानी जीव इस संसार के भ्रमण से संसारवासना से उत्पन्न हुआ जो महान संताप में अग्नि है, कष्ट का आताप है उसका शमन करने के लिए वे ध्यानरूपी समुद्र में स्नान करते हैं। लोक में भी कहते हैं कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। दु:ख है कहाँ? मन को सम्हाला दु:ख दूर हुआ। मन को न सम्हाल सके, विषयों में मन चलित हुआ, लो वहाँ कष्ट हो गया। तो यह सब ध्यान के आश्रित है। ध्यान से ही पीड़ा है, ध्यान से ही मधुरता है, ध्यान से ही धर्मसाधन होता है और ध्यान से ही समतापरिणाम जगता है। तो संसार परिणाम के संताप को शांत करने के लिए तत्त्वज्ञानी पुरुष ध्यान के समुद्र में नहाया करते हैं। कहीं भी हो कैसा भी कष्ट हो, ध्यान जरा अपने आत्मा की ओर कर लिया जाय कि दु:ख मिट गए। दु:ख यों मिट जाता है कि दु:ख वास्तव में था नहीं। एक उस तरफ दृष्टि लग गयी तो वह दु:ख मानने लगा। वह दृष्टि हटी कि दु:ख दूर हो गया। कल्पना से कष्ट माना था, कल्पना मिटी तो कष्ट मिट गया। तो वे सब अभीष्ट कल्याण की बातें एक विशुद्ध ध्यान द्वारा सिद्ध होती हैं। जैसे लोक में अपनी जिंदगी में प्रोग्राम बना करते हैं, अमुक काम करना है, चलो कुछ बढ़े चलो, पर कुछ गंभीरता से विचारों तो सही कि यहाँ कौनसा प्रोग्राम ऐसा है तो इस भव में भी शांति दे सके और अगले भव में भी शांति दे सके। ऐसा प्रोग्राम है, चलो आत्मस्वरूप का ज्ञान करें, अपने आपके निकट रहा करें, इतनी ही चर्या में उत्सुकता रहे। यों आत्मज्ञान का प्रोग्राम हो, आत्मदृष्टि आत्मधुन का प्रोग्राम हो जीवन में तो यह लाभकारी व्यापार है और आत्मा की धुन न हो तो कितना ही कोई बाहरी-बाहरी कार्य कर ले उससे शांति प्राप्त नहीं होती। शांति का हिसाब यदि लौकिक वैभव से लगता होता तो इस वैभव को बड़े-बड़े चक्रवर्ती तीर्थंकर आदि क्यों त्याग देते? इस लौकिक वैभव में उन्हें कुछ सार नहीं दिखा इस कारण वे उसे छोड देते हैं और गरीब से भी गरीब बन जाते हैं। न कपड़ा, न घर, न परिवार, न कुछ रखना, ऊपरी हालत देखो तो बतावो साधुवों से ज्यादा गरीब और कौन है? लेकिन ऐसे-ऐसे वैभव वाले पुरुष जब वैभव को त्याग देते हैं तभी शांति पाते हैं और अब वे गरीब नहीं कहलाते, वे लोक में सबसे उत्कृष्ट अमीर हैं, क्योंकि आनंद और शांति का उनको विधान मिला हुआ है।