वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1179
From जैनकोष
ध्यानमेवापवर्गस्य मुख्यमेकं निबंधनम्।
तदेव दुरितव्रातगुरुकक्षहुताशानम्।।1179।।
विशुद्ध ध्यान ही मोक्ष का एक प्रधान कारण है और वह शुक्ल ध्यान रागद्वेष रहित ध्यान पापों के महा वन को जलाने के लिए अग्नि की कड़िका के समान है। जैसे वन बहुत बड़े विस्तार वाला है, कोसों का लंबा चौड़ा है फिर भी उस विशाल वन को जलाने में समर्थ एक अग्नि की कड़िका है, ऐसे ही पापों का बहुत बड़ा विस्तार है, एक बहुत बड़ा पापों का बोझ लदा हुआ है, भव-भव के पाप इकट्ठा हैं, ऐसा पापों का समूह महा वन की तरह बहुत विस्तार को लिए हुए है, और विशुद्ध ध्यान शुक्लध्यानरूपी अग्नि कितनी है? किस तरह है? एक अपने आत्मा के केंद्र में है और वह भी विस्तार बनाकर नहीं, किंतु संकोच का, मग्नता का स्वभाव लेकर है। तो यह ध्यान अग्नि एक केंद्र में मग्न है, उसमें इतनी सामर्थ्य है कि महाविस्तार वाले पापों के वनसमूह को नष्ट करने में समर्थ एक ध्यानरूपी अग्नि की कड़िका है।