वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1221
From जैनकोष
हिंसाकर्मणि कौशलं निपुणता पापोपदेशे भृशं,दाक्ष्यं नस्तिकशासने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रति:।
संवास: सह निर्दयैरविरतं नैसर्गिकी क्रूरता,यत्याद्देहभृतां तदत्र गदितं रौद्रं प्रशांताशयै:।।1221।।
जिसका प्रशांत आशय है, ज्ञान और शांति का भंडार है ऐसे महर्षिजनों ने हिंसानंद नामक रौद्रध्यान का यह स्वरूप कहा है। हिंसा के कार्य में प्रवीणता का होना यह हिंसानंद रौद्रध्यान है। जैसे कोई शिकार खेलने में कुशल होता है और कीड़ा मकोड़ा आदिक के सताने में बड़ी चतुराई रखता है, चूहों को कुत्ते के सामने छोड़ने आदिक ऐसे कार्यों में प्रवीण है वह रौद्रध्यान का फल है। उनका आशय क्रूर है। आशय की बात देखिये― कोई आक्रामक के विरुद्ध युद्ध करना पड़े और उस युद्ध में जो होना है सो होता ही है तिस पर भी वह क्रूर आशय वाला नहीं कहा गया है। जो कीड़ा मकोड़ा आदिक पशु पक्षियों को सताये उसका क्रूर आशय बताया है। यद्यपि वहाँ भी हिंसा है और विरोधी हिंसा है। किसी निरपराध व्यक्ति को युद्ध में लड़ाई भी करनी पड़े और उसके द्वारा शत्रु का आघात भी हो जाय तो वहाँ हिंसा नहीं बताया गया। उसके हिंसानंद नामक रौद्रध्यान नहीं बनता है। तो चिन्ह बताये जा रहे हैं, जो हिंसाकर्म करने की चतुराई बतायें, पापकर्म का उपदेश देने में जो निष्प्रह हों उनके रौद्रध्यान बनता है। जो हिंसाजनक कार्य हैं उनकी निष्पृहता आये तो वह रौद्रध्यान है, जिससे नास्तिकता का प्रचार हो, ऐसे-ऐसे भाषण करना, उपदेश करना, खूब खावो पियो मरने के बाद कौन देख आया कि क्या होगा? किसी भी तरह से धन कमाओ, अपने पास खूब धन होगा तो लोक में इज्जत होगी। न्याय और अन्याय क्या है? धन का संचय है तो उससे बड़प्पन है आदिक बातों को कहकर नास्तिकता के शास्त्रों में दक्षता बनाना यह रौद्रध्यान है। प्रतिदिन जिन पुरुषों की हिंसा करने में प्रीति होती है ऐसे निर्दय पुरुषों के साथ अपना आवास रखना वह सब रौद्रध्यान का चिन्ह है। व्रतभाव का न होना और स्वभावत: क्रूरता का परिणाम होना ये सब बातें जिन देहधारियों के होती हैं उनके रौद्रध्यान कहा है। दो ध्यान खोटे हैं― आर्त और रौद्र। इनकी भी अपने आपके मन में चिंतना करना चाहिए कि हम आर्त रौद्रध्यान में कितना समय गुजारते हैं? और अपने आपकी दृष्टि में, धर्म की साधना में, शांति के स्वागत में कितना समय गुजारते हैं? यह हिसाब प्रत्येक कल्याणार्थी को प्रतिदिन रखने की आवश्यकता है। यदि किसी ध्यान में दु:खरूप परिणम रहे हैं तो वह आर्तध्यान है और किसी ध्यान में सांसारिक सुख लूटने का ध्यान रहता है वह रौद्रध्यान है। यह हिंसानंद रौद्रध्यान की बात है।
केनोपायेन घातो भवति तनुमतां क: प्रवीणोऽत्र हंता,हंतुं कस्यानुराग: कतिभिरिह दिनैर्हन्यते जंतुजातम्।