वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1222
From जैनकोष
हत्वा पूजां करिष्ये द्विजगुरुमरुतां कीर्तिशांत्यर्थमित्थं,
यत्स्याद्धिंसाभिनंदो जगति तनुभृतां तद्धि रौद्रं प्रणीतम्।।1222।।
रौद्रध्यानी पुरुष का कैसा-कैसा विचार चलता है? किस उपाय से प्राणियों के घात का उपाय बनाता है, सूत का जाल बनाता है मछलियों को फासने के लिए या अन्य-अन्य साधन बनाता है मछलियाँ पकड़ने के लिए। इनमें जो भी विचार बनाये जाते हैं वे सब रौद्रध्यान हैं। बहुत से लोग हिंसक कार्यों का रोजगार करते हैं, जिनके भी मन में यह चिंतन रहता है कि किस उपाय से प्राणियों का घात हो वह सब रौद्रध्यान है। यों देखना कि मारने वाला कौन अधिक प्रवीण है? हिंसा करने में कौन अधिक चतुर है? ऐसी छाँट करना यह सब रौद्रध्यान का फल है। जीवों के समूह को मारने में किसका अनुराग बना हुआ है, जीवों का समूह कितने दिनों में मर जायगा ये सब बातें चिंतन में लाना रौद्रध्यान है। एक भाव होता है विषयसंरक्षणानंद, उसमें तो कोई श्रावक बचता नहीं है। जब घर में रहता है। तो घर के साधनों के जुटाने में एक आवश्यक सा हो जाता है। तो विषयों के साधनों के जुटाने में सुख मानना सो परिग्रहानंद है। दुकान करता है, दुकान पर जो बैठता है क्या वह यह परिणाम नहीं रखता कि मैं यहाँ कुछ कमाई करूँ। इतना फर्क है कि कोई पुरुष धर्मसाधना के लिए जी रहा है और उस ही प्रोग्राम में अर्थ का उपार्जन भी कर रहा है। कोई पुरुष केवल मौज के लिए, आराम के साधन बढ़ाने के लिए कमाई करते हैं। गृहस्थी में रहकर तो कमाई के लिए भी कुछ न कुछ ख्याल रखना भी पड़ता है तो रौद्रध्यान बनाना संभव ही है। यह रौद्रध्यान पंचम गुणस्थान तक भी हुआ करता है। जो अत्यंत खोटा रौद्रध्यान है हिंसानंद उसकी बात चल रही है। इन जीवों को मारकर, इनकी बलि देकर मैं अपने इष्टदेव को, इष्ट गुरु को प्रसन्न करूँ, उससे कीर्ति होगी और शांति मिलेगी ऐसा कुछ लोगों का भाव रहता है वह भी रौद्रध्यान है। धर्म का नाम लेकर भी एक सांसारिक सुख जैसे हिसाब से जो मौज आता है वह भी रौद्रध्यान कहलाता है। जब तक जीव को निराले ज्ञानानंदस्वरूप का अनुभव न जगे तब तक इस असार संसार से विरक्ति नहीं उत्पन्न होती और जब तक संसार, शरीर भोगों से विरक्ति नहीं उत्पन्न होती तब तक खोटे ध्यान हट नहीं सकते। जो अपनी दया करता है उसमें सबकी दया व्यवस्था से बनेगी और जो खुद आकुलित हो रहा है वह दूसरे को निराकुल बनाने का उपाय क्या रचेगा? आत्मदया यह है कि यह बुद्धि आये कि मैं शरीर से भी न्यारा हूँ। मेरे ही परिणाम से जो मुझमें पापकर्मबंधन को प्राप्त होते हैं उनके उदय के अनुकूल अपने को सुख-दु:ख प्राप्त होता है। ऐसी ही समस्त संसारी जीवों की स्थिति है। जब पुण्य पाप भावों से भी उठकर केवल ज्ञानस्वभाव में ही मग्न होने का ध्यान बनेगा तो उस समय कर्मबंधनों से मुक्ति मिलेगी।
मेरे लिए मैं आत्मा ही सर्व कुछ हूँ। यों संसार शरीर और भोगों से विरक्ति परिणाम हो तो उससे उत्कृष्ट पवित्रता और क्या होगी? खूब नहाने से शृंगार के वस्त्र आभूषण आदि पहनने से कोई पवित्रता आती है क्या? पवित्रता आती है परिणामों में वैराग्यभाव जगने से। अपने ज्ञानस्वरूप का अनुराग जगा हो तो पवित्रता आती है। ऐसी पवित्रता आये बिना जीव को शांति नहीं प्राप्त हो सकती। परिग्रह में मुग्ध होना, धन वैभव के संचय की लालसा बनाये रखना, इससे जीव को शांति प्राप्त हो सकेगी क्या? परिवार के लोगों को, अच्छा बनाकर भी शांति प्राप्त हो सकेगी क्या? अरे इन सब बातों के कर लेने से शांति न प्राप्त होगी। शांति तो प्राप्त होती है आत्मबोध होने से। अपने आपका सही निर्णय हो और अपने आपके ही निकट अपना उपयोग रह सके यह ही सारभूत बात है। शेष सब चीजें तो स्वप्नवत् असार हैं। जैसे स्वप्न में अपनी महिमा की बात बढ़ाना असार है ऐसे ही यहाँ पर जो कुछ समागम प्राप्त हैं वे सब भी असार हैं और यहाँ के ये मायामय लोग जो स्वयं जन्म मरण के चक्र में घिरे हुए हैं ऐसे इन प्राणियों से अपने लिए कुछ चाहना भी असार है। यह तो कोई, 40, 50, 60 वर्ष का जीवन है, इससे पहिले भी तो हम आप थे, पर तब तक का अब कुछ साथ है क्या? पहिले भी बड़ा वैभव रहा होगा, बड़ी इज्जत रही होगी, खूब कीर्ति फैली हुई होगी पर उसका एक बिंदु भी अब साथ है क्या? जब तक 10-20 वर्ष जी रहे हैं तब तक भले ही कुछ ठाठ-बाट दिख रहा है, पर मरण होने के बाद किसको क्या पता कि क्या स्थिति होगी? तब यहाँ क्या करना? अपने आपमें ज्ञान की बात जगे, अपने चित्स्वरूप का अनुराग जगे, शेष सभी जीवों को एक समान स्वरूप में देखें ऐसी श्रद्धा रहे तो वह आत्मा पवित्र है, वह सबका पूज्य है। इस पवित्रता में ही शांति का मार्ग बसा है और रौद्रध्यान से शांति का मार्ग नहीं मिलता। रौद्रध्यानी पुरुष क्या-क्या सोचता है? किस जीव का घात हुआ, अब किस जीव का घात करें आदि। किसी को कोई बल देकर गिरा देवे और दर्शक उसमें खुश हों तो यह सब भी रौद्रध्यान है। यह तो एक विशिष्ट बात कही गर्इ है। साधारणतया तो अपने स्वरूप को जो पुरुष भूले हुए हैं और अपने विषयसाधनों के लिए जो हिंसा की भी परवाह नहीं करते ऐसे पुरुषों के भी रौद्रध्यान पाया जाता है। रौद्रध्यान का फल है सामान्यतया नरक गति और आर्तध्यान का फल है सामान्यतया तिर्यंच गति। किसी दृष्टि से तिर्यंच गति नरक गति से खराब है और किसी दृष्टि से नरक गति तिर्यंच गति से खराब है। इन दुर्ध्यानों का यही फल है कि यह जीव संसार में जन्म-मरण के चक्र लगाये जा रहा है।