वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1226
From जैनकोष
अहं कदा करिष्यामि पूर्ववैरस्य निष्क्रियम्।
अस्य चित्रैर्वधैशचेति चिंता रौद्राय कल्पिता।।1226।।
ऐसा चिंतन करना कि मैं कब पूर्वकाल के बैरी का बदला लूँ, अनेक प्रकार के घात से किस समय बदला ले सकूँगा ऐसा विचार करना भी रौद्रध्यान माना गया है। किसी से कुछ बुराई हुई, किसी को दुश्मन मान लिया, अब उसके बारे में विचार कर रहे हैं मैं कब बदला ले सकूँगा और उसका बदला लेने की वासना बनाना और उपाय करना यह सब रौद्रध्यान है। खोटे ध्यानों से आत्मा का कुछ लाभ नहीं है, क्योंकि जगत में जितने जीव हैं, सभी अत्यंत भिन्न हैं, न कोई उनमें इष्ट है और न कोई अनिष्ट है और फिर किसी पुरुष का बुरा हो जाय उससे इसे कुछ मिलता नहीं, केवल एक कल्पना जगी, उसकी पूर्ति हो गयी। यह मूढ़ता है। जैसे किसी बच्चे के सिर में किवाड़ लग जाये तो उसकी माँ किवाड़ को थोड़ा पीट देती है लो वह बच्चा शांत हो जाता है, सुखी हो जाता है। अब यह बतलावो कि मिला क्या किवाड़ के पिट जाने से उस बच्चे को? कुछ भी तो नहीं मिला। ऐसे ही कोई मनुष्य या कोई जीव हो, जिससे पीड़ा पहुँची हो तो उसे कोई टोक पीट दे तो यद्यपि इसे कुछ मिला नहीं है पर वह संतुष्ट हो जाता है तो किसी का अनिष्ट चिंतन करने से खुद का लाभ कुछ नहीं है, बिगाड़ ही सारा है। जब बुरा चिंतन करता है तो उस घड़ी में वह संक्लेश ही पाता है। तो भावना भावो कि स्वप्न में भी मैं किसी का बुरा विचार न करूँ। बुरे विचार से न पूजा का महत्त्व है, न धर्मपालन का महत्त्व है। धर्मक्रियायें जितनी की जाती हैं वे सब केवल श्रमरूप हैं। यदि भावना अपनी अच्छी न रही, सब जीवों के प्रति सुख शांति की भावना न हुई, किसी को अनिष्ट जानकर उसका अकल्याण विनाश विघात करने पर परिणाम उतारू रहे तो उसका फल अच्छा नहीं है। यहाँ कोई शरण तो है नहीं, फिर किसको प्रसन्न करने का यहाँ उद्यम करें? तो यह सावधानी होना चाहिए कि मेरा परिणाम निर्मल रहे। आर्तध्यान और रौद्रध्यान से बचें। जगत में जो-जो भी बातें अनिष्ट मानी जाती हैं वे सब कुछ भी हो जायें तब भी उससे इस जीव की क्या बरबादी है? कल्पनाएँ करते हैं और खोटी मान्यता से दु:खी होते हैं। तो ऐसा कोई विचार करे कि मैं पूर्वकाल के इस बैरी का किस समय बदला चुका सकूँगा, यह चिंतन करना रौद्रध्यान है।