वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1227
From जैनकोष
किं कूर्म: शक्तिवैकल्याज्जीवंत्यद्यापि विद्विष:।
तर्ह्यमुत्र हनिष्याम: प्राप्य कालं तथा बलम्।।1227।।
ऐसा विचार करे कोई कि मैं क्या करूँ, शक्ति से हीन हूँ इस कारण शत्रु अभी तक जी रहे हैं, नहीं तो मैं कभी के इनको मार डालता, ऐसा चिंतन करना और सोचना कि कब मैं इस योग्य हो सकूँगा कि इनको मैं मार डालूँ, इस प्रकार के चिंतन करना सो रौद्रध्यान है। कषाय के आवेश में ऐसा ही सूझता है और इसी में चतुराई मानते हैं, इसको बुरा कार्य नहीं समझो, यों वे अनंतानुबंधी कषाय बाँध लेते हैं और उससे निरंतर पीड़ित रहा करते हैं। कितनी मूढ़ता भरी कल्पनाएँ हैं कि किसी जीव के प्रति अनर्थ का विचार करे इस भव में मैं घात न कर सका तो अगले भव में करूँगा, इतना तक भी चिंतन करने वाले कोई-कोई लोग होते हैं। तो यह कितनी मूढ़ता भरी बात है? ऐसा खोटा संकल्प करना भी रौद्रध्यान है।