वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1253
From जैनकोष
विस्फुलिंगनिभे नेत्रे भ्रूवक्रा भीषणाकृति:।
कंप: स्वेदादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनाम्।।1253।।
इस प्राणी के ये बाहरी चिन्ह हैं रौद्रध्यान के। एक तो नेत्र ऐसे होना कि जैसे आग से चिनगारियाँ निगल रही हों, अर्थात् क्रोध भरे नेत्र होना। रौद्रध्यान में चूँकि अपने विषयों के साधनों के, संरक्षण की प्रमुखता है तो उसमें जो बाधा दे, जो हमारी स्वार्थसिद्धि में बाधक बने उसके प्रति इसे ऐसा क्रोध आता है रौद्रध्यान वाले को कि मानों आँखों में स्पुलंगा बन रहे हों। प्रथम चिन्ह इस छंद में बताया है कि स्पुलंगों से सहित नेत्र होना। दूसरा चिन्ह है भौंहें टेढ़ी हो जाना। जब किसी दूसरे पर कृपा नहीं होती और अपने आपके विषयसाधनों में बाधा पहुँच रही है तो भौंहें टेढ़ी हो जाती हैं। यह रौद्रध्यान का चिन्ह है। फिर बताया है कि मुख का आकार भयानक हो जाता। लौकिक सुंदरता भी शांत भाव से प्रकट होती है और आध्यात्मिक सुंदरता तो निष्कषाय भाव में है ही। जैसे कोई पुरुष या महिला बहुत लोक में माने जाने वाले रूपसहित हो, गौरांग हो, सुंदर जँचे, ऐसा रूप हो, लेकिन आदत क्रोध की है, दूसरे को दु:ख देने की है, दूसरों पर छल करने की है तो उस पर सुंदरता नहीं आ सकती। कोई पुरुष अथवा महिला साधारण रूपवान हो, सांवला हो, किसी भी प्रकार का हो और उसमें शांति है, कषाय नहीं है, परोपकार की बुद्धि है, सब पर दयाभाव रखता है, गरीबों पर उपकार करता है तो उस पर सुंदरता झलकेगी। सुंदरता उसका नाम है जिसको सभी लोग चाहने लगें। सभी लोग काम को, प्रेम को, विकार को चाहा करते हैं। उस रौद्रध्यान में एक यह चिन्ह बताया कि उसका भयानक आकार बन जाय। शरीर कांपने लगे, हाथ-पैर कांपने लगें। जब किसी पर विशेष अन्याय किया जाय तो अन्याय होता है अपने विषयों के साधनों के लोभ होने पर। तो उस समय इसके रौद्रध्यान होता है जिससे शरीर भी कंप जाता है। और स्वेद पसीना आना ये बाहरी चिन्ह रौद्रध्यान के होते हैं। रौद्रध्यान यह क्रूर ध्यान है जिससे मनुष्य को इस भव में भी भीतर में क्लेश रहता है, पाप का बंध होता है, पश्चात् भी इसे बहुत क्लेश भोगना पड़ता है। तो यही है रौद्रध्यान।