वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1254
From जैनकोष
क्षायोपशमिको भाव: कालश्चांतर्मुहूर्तक:।
दुष्टाशयवशादेप्रशस्तावलंबनं।।1254।।
यह रौद्रध्यान क्षायोपशमिक भावरूप है, अर्थात् कुछ ज्ञानावरण का क्षयोपशम हो, कुछ अपने वीर्यांतराय का भी क्षयोपशम हो तब यह भाव प्रकट होता है। यह अंतर्मुहूर्त तक रहता है। सभी ध्यान अंतर्मुहूर्त तक रह पाते हैं और खोटा आशय होने के कारण यह खोटी वस्तु का आलंबन किया करता है अर्थात् रौद्रध्यान खोटे वस्तु पर ही होता है। क्रोध पर रौद्रध्यान हो, मान, माया, लोभ कषाय होने से रौद्रध्यान हो तो रौद्रध्यान खोटे विषयों को ले करके हुआ करता है। आर्त और रौद्र ये पौद्गलिक वस्तुवों का विषय करके होते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये आत्मा का आश्रय करके प्रकट होते हैं। अपने आपका जितना भी सहारा ले सकें उतना तो सारभूत काम है। अपने सहज ज्ञानस्वभाव पर जितनी दृष्टि स्थिर रह सके उतना तो सारभूत पुरुषार्थ है, और इससे अतिरिक्त बाह्यपदार्थों में रागद्वेष की बुद्धि जगे वह आत्मा के कल्याण की बात है और खोटी ही वस्तु का आश्रय करके हुआ करता है।