वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1278
From जैनकोष
आभिर्यदानिशं विश्वं भावयत्यखिलं वशी।
तदौदासीन्यमापन्नश्चरत्यत्रैव मुक्तवत्।।1278।।
जिस समय मुनि इन भावनाओं में लीन होकर समस्त जगत को भाता है उस समय जिसका जैसा स्वरूप है उस स्वरूप में लीन होकर इस लोक में ही मुक्ति के समान वृत्ति रखता है अर्थात् सबसे हटा हुआ बना रहता है। देखिये किसी का कोई दूसरा साथी नहीं है। खुद ही खुद का रक्षक है। यहाँ थोड़े से जीवन में परजीवों के प्रति, वैभव आदिक के प्रति आसक्त हो गए तो उससे लाभ क्या होगा? उन सबसे हटे रहने में और अपने स्वरूप की ओर ही लगने में आत्मा को शांति प्राप्त होती है, सदा के लिए संसार के संकट कट सकते हैं। यह एक निर्णीत तत्त्व है। विषय कषायों से लाभ होता है इस बात को तिलांजलि दे दें। केवल आत्मदर्शन से आत्मरमण से आत्मपरिचय से ही कल्याण की प्राप्ति होती है।