वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1279
From जैनकोष
रागादिवागुराजालं निकृत्याचिंत्यविक्रम:।
स्थानमाश्रयते धन्यो विविक्तं ध्यानसिद्धये।।1279।।
तत्त्वज्ञानी योगी रागादिक की फाँसी को जाल को काट कर ध्यान की सिद्धि के लिए विविक्त स्थान का आश्रय करते हैं। विविक्त स्थान वह है जहाँ लौकिक परिचय के लोगों का संग न रहे। ऐसे विविक्त एकांत स्थान में रहते हैं और उस ही स्थान में निवास करते हैं, ऐसे स्थान का आश्रय तभी किया जा सकता है जब रागादिक की फाँसी को टाल दिया जाय। अब ध्यान के इस प्रायोगिक प्रकरण में सर्वप्रथम स्थानों का वर्णन किया जा रहा है कि ध्यान की सिद्धि के लिए कौनसे स्थान उत्तम हैं और कौनसे स्थान निषिद्ध हैं? उस स्थानों का ध्यानार्थी पुरुष क्यों आश्रय करते हैं कि विविक्त स्थान में राग के आश्रयभूत परपदार्थ न मिलेंगे। जब रागादिक की उत्पत्ति न हो तो आत्मा का ध्यान बनता है। इस आत्मध्यान में करना क्या है कि ज्ञान में ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप लिए रहना है। मैं ज्ञानमात्र हूँ― ऐसा ज्ञान निरंतर बनाये रहना इसी का नाम ध्यान है।