वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1350
From जैनकोष
य: प्राणायाममध्यास्ते स मंडलचतुष्टयम्।
निश्चिनोतु यत: साध्वी ध्यानसिद्धि: प्रजायते।।1350।।
जो योगीश्वर प्राणायाम को स्वाधीन कर लेते हैं अर्थात् इतनी साधना करते हैं ऐसे मुनि मंत्र तंत्र के चतुष्टय का निश्चय करें जिससे समीचीन ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के तत्त्व उत्पन्न होते हैं। जिससे जान लिया जाता है कि हमारा पृथ्वीमंडल का श्वास चल रहा था जल मंडल का या अग्निमंडल का या वायुमंडल का। और जब यह जान लिया जाता तो उससे भविष्य का निर्णय कर लेता है। वैसे पृथ्वी का रंग पीला माना है, जल का रंग सफेद माना है, अग्नि का रंग लाल और वायु का रंग नीला काला आदि माना है। तो इस श्वास लेने वाले को आँखों के बंद करने की हालत में कुछ बिंदु दिखता है, वह बिंदु किस रंग में दिखा करता है उस रंग से फिर शुभ अशुभ भविष्य का निर्णय कर लिया जाता है कि कैसा भविष्य है भला अथवा बुरा। तो प्राणायाम के साधनों में इन चार प्रकार के पवनों का अभ्यास होता है, ठहरना होता है। इसका वर्णन बहुत कुछ आगे किया गया और अपने शरीर की स्थिति से कि मेरी हवा किस तरह चल रही है, उससे शुभ अशुभ का निर्णय कर सकते हैं। एक सामान्य रूप से कोई चलते-फिरते काम की बाबत पूछे और अपना स्वर चल रहा हो दाहिना तो कह देना चाहिए कि सफलता मिलेगी और किस स्थिर कार्य के लिए कोई पूछता है और चले बायाँ स्वर तो वह भी कार्य सिद्ध होने वाला माना जाता है। यह सब वायु शास्त्र के जानने वाले लोग समझते हैं। भोजन परोसने वाले का स्वर दाहिना चलता हो तब भोजन परोसना इस पवनशास्त्र में अच्छा माना है और न चलता हो दाहिना स्वर, बायाँ चलता हो तो अच्छा नहीं माना जाता है। बायें हाथ से भोजन परोसना अशुभ माना है, इसी से दाहिने हाथ से भोजन परोसने का रिवाज है। तो पवनशास्त्र के जानने वाले ये सब शुभ अशुभ समझते हैं। ऐसे ही अनेक प्रकार की बातों का निर्णय केवल एक इस श्वास पर जान लिए जाते हैं। पूछने वाले का स्वर जिस तरफ का चलता हो जिससे पूछा जा रहा है उसका भी स्वर उसी तरह चलता हो और उस ही ओर से आकर पूछे तो सगुनशास्त्र समझने वाले लोग कह देते हैं कि तुम्हारा काम सिद्ध है, ऐसे ही बहुत सी बातों के शुभ अशुभ का निर्णय कर लिया जाता है। तो प्राणायाम से लौकिक ज्ञान भी बढ़ता है और परमार्थ पथ में लगने के लिए विशुद्ध ज्ञान का प्रकाश होता है। यों यहाँ प्राणायाम का करना ध्यान की साधना में एक साधनभूत अंग बताया गया है। हम सामायिक के समय तो कम से कम ऐसा करें कि श्वास को धीरे-धीरे लें और फिर अंदर रोककर उसे धीरे-धीरे बाहर निकालें। श्वास को धीरे-धीरे न लेना ध्यानसाधना में उतना बाधक नहीं है जितना बाधक श्वास को जल्दी छोड़ देना है। इस श्वास के रोकने से शरीर की शुद्धि बना ली जाती है, शरीर की शुद्धि से मन की एकाग्रता होती है। तो इस प्राणायाम की ओर यथाशक्ति अपनी दृष्टि और अपना यत्न रहना चाहिए।