वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1359
From जैनकोष
घोणविवरमापूर्य किंचिदुष्णं पुरंदरं।
वहत्यष्टांगुल: स्वस्थ: पीतवर्ण: शनै: शनै:।।1359।।
अब विशेषरूप से पृथ्वीमंडल की वायु का स्वरूप कह रहे हैं। नासिका के छिद्र को भरपूर भरकर कुछ गर्म लेकिन 8 अंगुल दूर निकलवा ले वह पृथ्वीमंडल की वायु कहलाती है। श्वास कभी गर्म मालूम होती है कभी गर्म नहीं मालूम होती है तो श्वास तेज गर्म तो न विदित हो, किंतु साधारण रूप से कुछ गर्म विदित हो और जिसका बहाव 8 अंगुल का हो अर्थात् नासिका से 8 अंगुल दूर पर उल्टा-उल्टा रखकर उस श्वास को निरखा जाय कि वहाँ तक इसका प्रभाव है या नहीं अथवा इसके आगे प्रभाव नहीं है ऐसी 8 अंगुल तक बहने वाली वायु पृथ्वीमंडल की वायु कहलाती है। यह स्वस्त है, चंचलता से रहित है, मंद-मंद बहने वाली है ऐसी यह पृथ्वीमंडल की वायु है जिसका कि इंद्र स्वामी है। एक स्वर विज्ञान में वायु के स्वरूप का अनुमान कराने में ऐसे-ऐसे विशेषण कुछ मदद करते हैं, अतएव इन विशेषणों से मंडल का स्वरूप कहा जा रहा है। पहिचानने के लिए हम मोटे रूप में इस बात को समझें जो वायु कुछ साधारणरूप से गर्म हो और 8 अंगुल तक जिसका प्रभाव हो, धीरे-धीरे बहती हो, जिसमें चंचलता न नजर आये अर्थात् जल्दी बहना, श्वास लेना आदिक जिसमें न हो वह पृथ्वीमंडल की वायु कहलाती है।