वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1358
From जैनकोष
ततस्तेषु क्रमाद्वायु: संचरत्यविलंबितं।
स विज्ञेयो यथाकालं प्रणिधानपरैर्नरै:।।1358।।
यह चार प्रकार से श्वास की वायु निकलती है इसका स्वरूप बताया है। उसके अनंतर यह बताया जायगा अथवा जान लीजिए संक्षेप में कि उन मंडलों के क्रम से निरंतर जो हवा चलती है उसे यथा समय उस ही काल में चिंतन में तत्पर ऐसे पुरुषों को जानना चाहिए। निमित्तों में प्रधान निमित्त विज्ञान स्वर ज्ञान है। कैसा स्वर चल रहा हो जिसमें हम समझ जाते कि अब क्या इष्ट अनिष्ट होगा? इन सब बातों का आचार्य परमेष्ठी को बहुत विज्ञान होता है और वे निमित्त ज्ञान से अथवा आत्मज्ञान से, अवधिज्ञान से विदित कर लिया करते हैं कि इस देश में इस स्थान में हमको रहना उचित है अथवा नहीं है। कोई उपद्रव आयगा अथवा न आयगा, इन सबके ज्ञान के लिए यह स्वरविज्ञान बहुत सहायक है। कैसे सहायक है? वे सब बातें इसी ग्रंथ में आगे कहेंगे।