वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1513
From जैनकोष
अनादिप्रभव: सोयमविद्याविषमग्रह:।
शरीरादीनि पश्यंति येन स्वमिति देहिन:।।1513।।
यह पूर्व अनादि से उत्पन्न हुई अविद्यारूप विषम आग्रह है जिसके द्वारा यह मूढ़ प्राणी शरीर आदिक को अपना मानता है। यह शरीर है सो मैं हूँ, इसके आगे और कुछ नहीं निरखता। यह सब अनादिकाल से जो अज्ञान बसा है वह अज्ञान अब तक काम कर रहा है। कीड़ा, मकोड़ा, पृथ्वी आदिक भवों में रहा वहाँ भी यह आता रहा। मिथ्यात्व को ही जो भूल रहा है उस मिथ्यात्व से हटने के लिए भेदविज्ञान का अभ्यास चाहिए। अधिक से अधिक समय ऐसी भावना बनाना चाहिए कि मैं समस्त परतत्त्वों से निराला केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ, और भीतर में देखें भी ऐसा कि जो मात्र ज्ञानज्योति है, ज्ञान प्रकाश है, केवल आनंदमात्र है वह मैं हूँ, इस प्रकार अपने आपको देखने का यत्न करें और इस तरह मानकर रह जायें, आखिर दु:खों से छूटने की तो सबके इच्छा है। संसार के सभी जीव चाहते हैं कि हम संसार के दु:खों से छूट जायें। तो उन दु:खों से छूटने की ही यह विधि बतायी जा रही है। इसमें क्यों रुचि नहीं होती? दु:खों से छूटने के लिए अपनी मनो कल्पनाओं के अनुसार जब अनेक परिश्रम करते हैं, धनसंचय करने का, नाम इज्जत बढ़ाने का या नाना प्रकार से जब हम उसका विशेष प्रयत्न करते हैं तो वह दु:ख दूर करने के लिए ही तो करते हैं। एक बार यह भी प्रयत्न करके देख लें। जहाँ सैकड़ों प्रयत्न करते हैं तो एक प्रयत्न और सही। वह प्रयत्न है अपने को सबसे निराला निरख लें। मैं अकिंचन हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है, किसी से मेरा कुछ संबंध नहीं है― इस प्रकार अपने आपको निरख लिया जाय। इतना यत्न करके देखिये कि कैसा आनंद प्रकट होता है?