वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1514
From जैनकोष
वपुष्यात्मेति विज्ञानं वपुषा घटयत्यमून्।
स्वस्मिन्नात्मेति बोधस्तु भिनत्त्यंगं शरीरिणाम्।।1514।।
जो शरीर में ‘यह मैं आत्मा हूँ’ ऐसा विश्वास करता है वह तो शरीर पाता रहेगा, जन्म-मरण करता रहेगा और जो अपने आपमें बसे हुए इस आत्मा को शरीर से भिन्न निरखते हैं वे बहुत ही निकट काल में जीव को शरीर से जुदा कर देते हैं। शरीर मैं हूँ ऐसा मानते रहने से जन्म मरण की परंपरा बढ़ेगी, शरीर मिलते रहेंगे और ‘शरीर से न्यारा ज्ञानानंदमात्र मैं हूँ’ इस प्रकार से अपने आपको निरखने से शरीर से छुटकारा मिलेगा और शरीर से छुटकारा मिलने पर सब दु:ख खतम हैं। आनंद मानते हैं शरीर के संबंध से, इच्छा करता है यह जीव तो शरीर के संबंध से, नाम प्रतिष्ठा चाहता हे तो शरीर के संबंध से, नाना प्रकार के रागद्वेष करता हे तो इस शरीर के संबंध से। जितने क्लेश है जीव को, वे सब क्लेश शरीर के संबंध से होते हैं? इस शरीर से सदा के लिए छुटकारा मिल जाय, केवल आत्मा ही आत्मा रह जाय, फिर उसको दु:ख कहाँ है। केवल आत्मा ही आत्मा रह जाय इसका उपाय यह है कि अभी से ही देखने तो लगे कि मैं केवल आत्मा ही आत्मा क्या हूँ। जैसा उपाय करेंगे वैसी सिद्धि बनेगी। गेहूँ बोते हैं तो गेहूँ ही पैदा होता है। यह मैं सबसे न्यारा, शरीर से भी न्यारा ज्ञानमात्र में हूँ, यों शरीर से भिन्न अपने को निरखें तो यह शरीर से भिन्न बन जायगा और यदि शरीररूप ही अपने को निरखता है तो शरीर ही शरीर मिलते जायेंगे, जन्म मरण की परंपरा बढ़ेगी। अब सोचिये किसमें हित है? शरीर को शरीररूप समझने में हित है या अमूर्त ज्ञानानंदमात्र समझने में अपना हित है। अपना हित सबसे निराला ज्ञानानंदमात्र अपने को निरखने में है, अत: भेदविज्ञान करके अनेक यत्न करके एक इस ज्ञानस्वरूप अपने आपके आत्मा को जानना चाहिए।