वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1526
From जैनकोष
ज्योतिर्मयं ममात्मानं पश्यतोऽत्रैव यांत्यमी।
क्षयं रागादयस्तेन नारि: कोऽपि प्रियो न मे।।1526।।
फिर यह विचार करें कि मैं अपने को ज्योतिर्मय ज्ञानप्रकाशमात्र, विशुद्ध ज्ञानमात्र देख रहा हूँ ऐसा चिंतन करें और ऐसा यत्न करें कि बाहर में न तो नेत्रदृष्टि लगायें और न ज्ञानदृष्टि लगायें, अपने आपके अंदर में जो कुछ सहजभाव है उसका आलंबन लेकर विचार करें, मैं तो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र हूँ।मैं इस आत्मा में, इस सहजस्वरूप में जो कि निरखा गया ज्ञान से उसमें रागादिक रूप स्वभावत: नहीं हैं, ये रागादिक क्षय को प्राप्त हों। जैसे समुद्र में लहर उठी हो तो ज्ञान में आ रहा है कि यह लहर उठ रही है और जब हवा का निमित्त न रहे और समुद्र शांत हो जाय, तरंगरहित हो जाय तो आपसे यह पूछें कि लहर कहाँ गयी? कोई तो उत्तर देगा कि लहर नष्ट हो गयी, और कोई उत्तर देगा कि लहर समुद्र में मग्न हो गयी। यदि लहर नष्ट हो गई तो कहाँ नष्ट हो गई? कहाँ बाहर चली गई? और लहर समुद्र में मग्न हो गयी तो समुद्र में घुसकर देखो कहाँ पड़ी है? वह लहर न समुद्र में दिखेगी और न वह लहर समुद्र से कहीं बाहर गई किंतु उस समय तरंगसहित अवस्थारूप पर्याय अब समुद्र की निष्तरंग पर्याय में बदल गयी। न तो बाहर जाकर नष्ट हुई और न भीतर जाकर वह लहर कहीं छिप गई। पर्याय एक होती है एक समय में। तब थी तरंग सहित पर्याय और अब रह गयी निष्तरंग पर्याय। इसी प्रकार राग है आत्मा की तरंग। जब राग भाव उठ रहा है तो आत्मा की तरंग सहित परिणति हो रही है और जब रागभाव नहीं रहा तो राग होते ही क्षय को प्राप्त हो गयी अर्थात् अब सराग परिणति रागरहित परिणति में परिवर्तित हो गयी।