वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1527
From जैनकोष
अदृष्टमत्स्वरूपोऽयं जनो नारिर्न मे प्रिय:।
साक्षात्सुदृष्टरूपोऽपि जनो नारि: सुहृन्न में।।1527।।
ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि जगत में न तो कोई मेरा शत्रु है और न कोई मित्र है, क्योंकि दूसरे ये लोग जिनमें शत्रु और मित्र की कल्पनाएँ की जा रही हैं उन लोगों ने मेरे स्वरूप को देखा है या नहीं। मेरा जो सहज चैतन्यस्वरूप है वह स्वरूप उन्हें ज्ञात हुआ है या नहीं। यदि वह स्वरूप उन्हें ज्ञात हुआ है तो वह मेरा मित्र और मेरा दुश्मन नहीं रह सकता, क्योंकि मेरा स्वरूप ज्ञात होते ही वह विशुद्ध ज्ञाता दृष्टा रहेगा, मेरा शत्रु और मित्र न रह सकेगा। और यदि उन्होंने मेरा स्वरूप नहीं जाना है तो जिसे जानाही नहीं है वह मेरा शत्रु कैसे, मेरा मित्र कैसे? इस जगत में कोई भी जीव न मेरा मित्र है और न मेरा शत्रु है।