वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1535
From जैनकोष
आत्मन्येवात्मनात्मायं स्वयमेवानुभूयते।
अतोऽन्यत्रैव मां ज्ञातुं प्रयास: कार्यनिष्फल:।।1535।।
यह आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा में स्वयं ही अनुभव किया जाता है। इसके बाहर जो आत्मा के जानने का खेद नहीं है वह सफल बात नहीं है। आत्मा कुछ न कुछ अनुभव करता रहता है। इसका परिणमन अनुभव के साथ है क्योंकि चेतना है ना तो यह निरंतर कुछ न कुछ अनुभवता है, तो उस अनुभव में कोई बाहरी पदार्थ नहीं अनुभवा जाता है। बात तो यह इतनी है, पर कल्पना में जो यह मान रखा है कि मैं यह बाहर में सब कुछ देख रहा हूँ, सब कुछ जान रहा हूँ, यों बाहर आत्मा के जानने का जो खेद है वह बिल्कुल निष्फल कार्य है, क्योंकि उससे कोई सिद्धि नहीं है। भ्रमरूप अपनी कल्पना बनाएँ तो उससे आत्मा को न मोक्षमार्ग मिलता और न वर्तमान में ही कोई शांति मिलती है।