वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1536
From जैनकोष
स एवाहं स एवाहमित्यभ्यस्यन्ननारतम्।
वासनां दृढयन्नेव प्राप्नोत्यात्मन्यवस्थितिम्।।1536।।
तो जैसा अपने आत्मा के बारे में अभी तक कहा जा चुका है― मैं सबसे निराला हूँ, केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ, ज्ञानानंदमात्र हूँ, चेतना स्वरूप जिसका प्रकाश है ऐसा मैं अलौकिक प्रकाशमय पदार्थ हूँ जैसा जो कुछ अभी वर्णन किया है उसमें जो निरखा है वही मैं हूँ, वही मैं हूँ, इस प्रकार का अभ्यास करें। मैं क्या हूँ? इसके निर्णय पर सारा भविष्य निर्भर है। सो जब जैसा है यह में उस ही प्रकार अनुभवा तो यह पुरुष उस भावना को दृढ़ करता हुआ अपने आत्मा में अपने को अवस्थित करता है अर्थात् ठहरा लेता है। आत्मा आत्मा में ठहर जाय यही तो मोक्ष का मार्ग है, यही शांति की बात है। ये व्यर्थ में अज्ञानी जन बाह्यपदार्थों में कल्पना से ठहरे रहते हैं। ठहरता कोई नहीं बाहरी पदार्थ में। जैसे घर-बार को कोई अपना माने तो क्या वह अपना हो जाता है? वह अपना मान भर रहा है। और न माने तो अपना नहीं, ‘माने तो अपना नहीं’ अब मानने में चूँकि मिथ्या बात मानेगा इसलिए क्लेश होगा और न माने तो क्लेश न होगा। चीज जहाँ की तहाँ पड़ी है। चीज न अपने को मिले और न अपने से कई हाथ दूर हो जाय। चीज है, वह मेरे से अत्यंत भिन्न है। मैं अपने स्वरूप में हूँ, बाह्य पदार्थ अपने स्वरूप से हैं और बराबर पड़े हैं। और जो अपनाता है कि यह मेरा है उसको क्लेश होता है, जो अपनाता नहीं है उसको क्लेश नहीं होता है।