वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1549
From जैनकोष
रूपादिर्बलवित्तादिसंपत्तिं स्वस्य वांछति।
बहिरात्माथ विज्ञानी साक्षात्तेभ्योऽपि विच्युतिम्।।1549।।
जो बहिरात्मा पुरुष हैं वे अपने लिए सुंदर रूप, दीर्घ आयु, खूब बल, धन आदिक संपत्ति को चाहते हैं। अब देख लीजिए ऐसी चाह कहाँ-कहाँ कितने में है? अगर यह चाह बस रही है, उससे ही विराम नहीं मिल रहा हे तो कैसे कहा जा सकता है कि धर्ममार्ग इसमें संभव है? एक तो होती है आवश्यकता के कारण चाह और एक होती है अपने आपके आराम के लिए चाह। आवश्यकतानुसार चाह कुछ दर्ज में ज्ञानी के प्राक् पदवी में हो जायतब इसकी प्रमत्तदशा अथवा कुछ उत्कृष्ट बात इस ज्ञानी के हो तो ये आकांक्षाएँ रंच भी नहीं रहती।कोई रूप चाहे सुंदररूप देखकर अपने चित्त में बड़ा खुश रहे और अपने को भाग्यशाली समझें, यों कोई रूप, आयु, बल, धन आदिक की वांछा करता हे तो वह बहिरात्मा पुरुष है। जिसे अंत:वैभव की पहिचान नहीं हे तो वह बाहर से कहाँहटे? अपने में कहाँ लगे? तो जो बहिरात्मा पुरुष हैं वे ही अपने सुंदर रूप, आयु, बल, धन आदिक की वांछा करते हैं और जो ज्ञानी पुरुष हैं वे उनसे छूटना चाहते हैं। निकट दोनों हैं। अज्ञानी भी उन भोगोपभोगों के साधनों के निकट है और ज्ञानी भी उन पदार्थों के निकट है, पर अज्ञानी तो उन समस्त वैभवों को अपनाता है और ज्ञानी उनसे छूटना चाहता है।प्रसंग यद्यपि दोनों में लग रहा है, पर भीतर में जो परिहार करने का और ग्रहण करने का स्वभाव पड़ा है उस स्वभाव का यह अंतर हो जाता है। अज्ञानी को तो ग्रहण से अशांति मिलती है और ज्ञानी का परिहार करने से शांति का मार्ग मिलता है। अज्ञानी की स्थिति होती है लोहवत। जैसे लोह जंग को ग्रहण कर लेता है, लोह में ऐसा ही स्वभाव पड़ा हुआ है। ऐसे ही अज्ञानी जीव पर को मोह से ग्रहण कर लेता है किंतु ज्ञानी पुरुष स्वर्ण की तरह है जैसे स्वर्ण कीचड़ में भी डाल दिया जाय तो वह भी कीचड़ से हटा हुआ अपना स्वभाव बनाये रहता है। जो भेदविज्ञानी पुरुष है वह अपने में रूप आदिक विद्यमान हों, उनसे भी छुटकारा चाहता है, क्योंकि मुख्य कारण यह है कि ज्ञानी ने अपने आपके आत्मा को जाना। जो शांति का आधार है, धर्म का आधार है उस अपने आपकी ओरजो चला यह भेदविज्ञानी पुरुष तो उसके अनुभव के पश्चात् उसे बिल्कुल प्रकट निर्णय होता है कि जीवादिक समस्त परपदार्थ परिहार के योग्य हैं। ज्ञानी जीव उनका परिहार करता है, अज्ञानी जीव उनका ग्रहण करता है, पर न अज्ञानी के पास आ जायगा और न ज्ञानी के पास। ज्ञान है तो राग का परिहारपूर्वक रहा करता है और अज्ञान है तो राग का ग्रहण करता हुआ रहा करता हे। यही अंतर है कि अज्ञानी जीव कर्मों का बंधन करता है और ज्ञानी जीव कर्मों से छूटता है। भूल में उसकी पर्याय प्रकृति में भेद आ गया। पर को ग्रहण करने का भाव रहता है अज्ञानी के और पर से हटे रहने का भाव रहता है ज्ञानी के। छुटकारा जिससे पाना है उससे यह मालूम कर लें कि में तो यह छूटा हुआ ही हूँ। मैं इस स्वरूप में मिला हुआ नहीं, केवल जो पर की ओरआत्मा स्वयं जा रहा है उससे निवृत्ति करना है।