वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1554
From जैनकोष
करोत्यज्ञो ग्रहत्यागौ बहिरंतस्तु तत्त्ववित्।
शुद्धात्मा न बहिर्वांतस्तौ विदध्यात्कथंचन।।1554।।
लोक का संक्षिप्त परिचय― इसे लोक क्यों कहते हैं? जो कुछ यह दिखता है जो यह दुनिया हैउसका नाम लोक क्यों है? लोक शब्द बना है लुक् धातु से। लोकयंते यत्र सर्वाणि स लोक:। जिस जगह समस्त द्रव्य पाये जायें, देखे जायें उसे लोक कहते हैं। तो यहाँ अनंत जीव हैं, उसमें भी अनंत गुणे पुद्गल, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्यात कालद्रव्य, ये पाये जा रहे हैं और आकाश तो एक दीर्घकाल है, लोक में भी है और अवलोक में भी है। ये समस्त पदार्थ अनादिकाल से अब तक अपने-अपने एकतत्त्व स्वरूप को लिए हुए बने हुए हैं। यह सब इस व्यवस्था की मेहरबानी है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही चतुष्टय से अस्तित्त्व रखते हैं, पररूप से कोई अपना अस्तित्त्व नहीं रखता। स्यादस्ति और स्यान्नास्ति अपने स्वरूप अपेक्षा से तो पदार्थ है, पर के स्वरूप की अपेक्षा से पदार्थ नहीं है। अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं के गुणरूप है, प्रत्येक पदार्थ अपनी ही परिणति से, अपने ही काल से परिणमता है, प्रत्येक पदार्थ अपने ही भावरूप है, अपने ही प्रदेश में अपना अस्तित्त्व रखता है। ऐसा एक सर्व सामान्य स्वरूप होकर भी विभावपरिणमन अर्थात् स्वभाव के विरुद्ध परिणमन जीव और पुद्गल में होता है।
विभाव परिणमन का आद्य परिचय― विभावपरिणमन अपने से विरुद्ध किंतु विधिविधान में अनुकूल निमित्त का सन्निधान पाकर होता है। जब जीव के दर्शन मोह का उदय होता है तो यहाँ जीव एक भ्रमरूप पड़जाता है। बाह्यपदार्थों को आत्मारूप में मानता है , और बाह्यपदार्थों को ये मेरे हैं ऐसी दृष्टि से देखता हे और इस प्रकार अपने आपमें ही गुंतारा लगाकर कषाय करके बाह्यपदार्थों को ग्रहण करता है, बाह्य को त्यागता है। अज्ञानी जीव की बात कही जा रही है। अज्ञानी जीव बाहर में बाहरी पदार्थों को ग्रहण करता है और बाहरी पदार्थों को छोड़ता है। ये सब कल्पना की बातें हैं। यद्यपि जीव बाहरी पदार्थों को न ग्रहण कर सकता और न त्याग सकता, किंतु अपनी जीव कल्पना में यह समझ रहे हैं कि मैं बाहरी पदार्थों को ग्रहण करता हूँ और बाहरी पदार्थों को छोड़ता हूँ।
वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तिक संबंध से लोकव्यवस्था― देखिये यह दृश्यमान लोक न बनता यदि निमित्तनैमित्तिक संबंध न होता। जिस प्रकार के परिणमन से परिणम रहा है यह लोक वह सब निमित्तनैमित्तिक संबंध में है, तिस पर भी यह लोक न बनता, यह लोक न रहता यदि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में हे यह व्यवस्था न होती। स्वतंत्रता और निमित्तनैमित्तिक संबंध― ये दोनों अपने-अपने स्थान में अपना बल रखते हैं तो बाह्य वस्तुओं के संबंध से, कल्पना से यह अज्ञानी जीव विकल्प करता है कि मैंने यह त्याग दिया, मैंने यह ग्रहण किया। उसे यह सुधि नहीं की मैं तो केवल भावों का ही करने वाला हूँ। बाह्य पदार्थ तो अपने में ही अपना अस्तित्त्व रखते हैं पर यह अज्ञानी जीव बाह्य में ग्रहण और त्याग करता है। तत्त्वज्ञानी जीव तो अपने अंतरंग में ही कुछ त्यागता है और अंतरंग में ही ग्रहण करता है। ज्ञानी को यह खबर हे कि मैं परपदार्थों के प्रति कल्पना से भावरूप ग्रहण बना रहा था और अब अपने ही ज्ञानबल से उस ग्रहण के भाव को त्याग रहा हूँ। बाह्य पदार्थ तो ज्यों के त्यों हैं, उन्हें मैं ग्रहण करता हूँ और न त्यागता हूँ। कोई चीज मेरे निकट आ गयी तो उससे ग्रहण नहीं हो पाया, और जब ग्रहण नहीं तो त्याग नाम किसका? ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं अपने ही भावों का ग्रहण करता हूँ और अपने ही भावों को त्यागता हूँ। जो शुद्ध आत्मा हैं, कषाय रहित हैं, परमात्मा हैं वे न बाह्य में कुछ ग्रहण त्याग करते और न अंतरंग में कुछ ग्रहण त्याग करते। वे कल्पनातीत हैं।
प्राकरणिक शिक्षण― यहाँ यह शिक्षा लेना है अपने आपके हित के लिए कि में केवल ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ। किसी परपदार्थ का भी भोगोपभोग करता हूँ तो उस प्रसंग में भी मैंने जैसा अपना ज्ञान बनाया उसको करता हूँऔर उसको भोगता हूँ। पर के साथ करने और भोगने का संबंध नहीं। किंतु अपने आपमें ही अपनी ही कल्पनाओं में करने और भोगने का प्रसंग है। यह बात एक वस्तुत्व की कही जा रही है। इस विचार से होगा क्या? मोह दूर होगा, और मोह ही इस जीव को दु:खी किए हुए है। हम आपको दु:खी करने वाला कोई दूसरा जीव नहीं है, केवल एक मोहभाव ऐसा है कि जिसके कारण दु:खी होना पड़ता है। सभी जीवों पर दृष्टि डालकर देखो तो सबके रागभाव लगा है पर वस्तुवों के प्रति ये सोचे बैठे हैं कि मुझे यह करना है, मुझे इस वस्तु को यों बनाना है, इतना जोड़ना है ऐसा विकल्प बसाये हुए हैं। वह विकल्प दु:खी किए है। तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े संत पुरुषों ने अंतरंग में उपेक्षा कर दी बाह्य की और इसके फल में देखो सर्व बाह्य पदार्थों का त्याग किया। यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकर आदिक जैसे महापुरुष इस परिग्रह को, राज्य को, वैभवों को तजकर क्यों जाते? और ये वैभव राज्य सब मन से त्यागा। जिन्होंने अपने आपके स्वरूप को ग्रहण किया उन्होंने ही बाह्य पदार्थों को त्यागा।
अपना उचित विचार― भैया !अपने आपमें यह विचार करें कि मेरी कब ऐसी स्थिति बने कि अपने आपको अपने आपमें देखूँ। जो मेरा सहजस्वरूप है, अपने सत्त्व के कारण जो मेरा कुछ लक्षण है उतने रूप रहूँ, ऐसी मेरी कब स्थिति बने, ऐसा अपने में भाव होना चाहिए, और जो भी समागम हैं, जितने लोग घर में आये हैं, वे हैं, उन्हें पालिये, उनकी बात पूछिये लेकिन श्रद्धा यह रखें कि सब जीवों के साथ उनका अपना-अपना कर्म लगा है और जब कभी मुक्त होंगे तो वे अपनी ही परिणति से, अपने ही शुद्ध आलंबन से मुक्त होंगे। उनका में कुछ करने वाला नहीं हूँ। जो कभी ऐसा मालूम भी होता हे कि देखो यह दो एक वर्ष का बालक है, हम इसे न खिलायें, इसकी रक्षा न करें तो कैसे यह जीवित रहेगा? अरे भाई सबका अपना-अपना उदय है। उनके पीछे पड़कर तो अपने आपको बरबाद किया जा रहा है। जिनकी इतनी फिकर करते हैं उनका इतना प्रबल पुण्य हे कि उनके पीछे हमें रात दिन उनका नौकर बनकर रहना पड़ रहा है।
योग श्रद्धान और आचरण का उत्साह― कीजै शक्ति प्रमाण, शक्ति बिना श्रद्धा धरे। द्यानत श्रद्धावान अजर अमरपद भोगोगे। जब कभी शक्तित: त्याग शक्तित: तप का वर्णन चलता है तो लोग झट यह अर्थ लगा लेते हैं कि देखो भाई !शक्ति विचारकर तप त्याग करना, उससे ज्यादा न करना। किंतु शक्तित: तप त्याग का अर्थ है कि जितनी शक्ति पायी है उसे न छिपाकर तप त्याग करना। लेकिन जिसका जैसा आशय होता हे उसकी उस प्रकार की दृष्टि बन जाती है। देखनाहै अपने आपमें अपने आपके वैभव को। जो एक अलौकिक आनंदमय है वह तब ही अपनी दृष्टि में आयगा जब अपना एकत्वस्वरूप प्रतीति में हो। मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ और ज्ञानमात्र ही निरंतर परिणमता रहता हूँ। ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ। और जो ज्ञात हो रहा है बस इतनी ही मेरी दुनिया है। ज्ञान जो चल रहा है उतना ही मेरा धन है। ज्ञान के सिवाय और कुछ मेरी चीज नहीं। यों अपने एकत्वस्वरूप में आयें, ज्ञानमात्र चिंतन करें तो सब समस्या सुलझ जायगी। शांति का क्या मार्ग है, हित किसमें है― ये सब बातें व्यवस्थित बन जायेंगी। जो वस्तु की इस स्वतंत्रता को नहीं समझता है वह पुरुष ही बाहर में ग्रहण और त्याग करता है, किंतु तत्त्वज्ञानी अंतरंग में ही ग्रहण और त्याग मानता है। और वीतराग निर्दोष सर्वज्ञ परमात्मा कषायरहित शुद्ध आत्मा न बाहर में कुछ ग्रहण त्याग करता है और न अंतरंग में कुछ ग्रहण त्याग करता है।
निर्मोहता का उपायभूत विचार― इससे हमें यह शिक्षा लेनी है कि हम अपने आपमें यह निर्णय बनाये रहें कि मैं ज्ञानानंदमात्र हूँ, इस स्वरूप का ही करने वाला हूँ और इस स्वरूप का ही भोगने वाला हूँ। मेरा किसी अन्य पदार्थ से कुछ संबंध नहीं है। कोई मुझे कुछ बना नहीं लेता, में किसी को कुछ बना नहीं देता। भले ही निमित्तनैमित्तिक संबंध में उपादान अपनी योग्यता से, अपनी कला से अपना कुछ परिणमन करे लेकिन सर्व परिस्थितियों में स्यादअस्ति वाला निर्णय अभेद्य है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप चतुष्टय से है, परस्वरूप चतुष्टय से नहीं है। अपना ही आत्मस्वरूप देखना है, उसे ही उपादेय रूप से जानना है, इसी में आत्मा का हित है। लेकिन निर्णय में यह बात जरूर आती हे कि अहितरूप जितने में भी परिणमन अब तक हुए, वे हुए मेरे ही परिणमन से, किंतु ये किसी परनिमित्त सन्निधान के बिना किसी परउपाधि के बिना होते तो ये मेरे रागादिकभाव कभी मिटते ही नहीं, क्योंकि अन्यथा मानने पर ये तो अपने स्वरूप से ही हुए हैं, अपने ही कारण से हुए हैं। तो है यह औपाधिकता का संबंध लेकिन पदार्थ अपनी ही कला से परिणमते हैं। यह बात जानकर हमें परवस्तुवों से निर्मोह होने की शिक्षा लेनी चाहिए। मैं अकिंचन हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है, मेरा मात्र मैं ही हूँ। यों अपने आपके एकत्वस्वरूप की ओर आयें और निर्मोह बनें। अनंत भगवंत सर्वज्ञ देवों ने यह ही किया था। अपने आपका अपने में अवलोकन किया, उसमें ही रमण किया और संसार के समस्त झंझटों को सदा के लिए दूर कर दिया।