वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1555
From जैनकोष
वाक्कायाभ्यां पृथक् कृत्वा मनसात्मानमभ्यसेत।
वाक्तनुभ्यां प्रकुर्वीत कार्यमन्यन्न चेतसा।।1555।।
आत्मा की विविक्तरूपता― अध्यात्म साधना का साधक योगी कम से कम इतना तो परिणाम करे ही करे कि में वचन से और काय से न्यारा हूँ। और मन से अभ्यास करे जैसा कि अपने आपका स्वरूप है। और फिर इस दिशा में आगे बढ़ता है तो मन का आलंबन भी छूटता है। केवल ज्ञान के द्वारा केवल स्व का ही सम्वेदन करता रहता है। ज्ञानीपुरुष वचन से और काय से अपने को पृथक् करके मन से आत्मा का अभ्यास करे और कदाचित् कोई बाहर का कार्य करना पड़े तो उसे वचन से और काय से तो कर ले, पर मन से न करे। ये दो बातें एक तुलना में रखी जा रही हैं कि अंतरंग का संबंध तो मन से बनाये, पर वचन और शरीर से न बनाये।लेकिन बाह्य पदार्थों का संबंध काय से और वचन से तो चाहे बना डाले पर मन से संबंध न बनाये।करना पड़ता है कुछ, बोलना पड़ता है कुछ, पर मन से तो बोलने का और करने का काम न कीजिए। तन्मात्र न होइए और समझिये कि परिस्थिति है गृहस्थ की, ऐसा करना होता है, करना पड़ता है, पर यह मैं आत्मतत्त्व वचन और काय से भी निराला हूँ।
ज्ञानी का अंतरंग व बहिरंग अवलोकन― पंच परमेष्ठी और जितेंद्र भगवान की भक्ति में हम क्या निरखते हैं? उनकी पहिली साधनाएँ, बाद की साधनाएँ, निकट की साधनाएँइन सबको भक्त निरखता है। हे प्रभो! आपने सबसे पहिले इंद्रियों पर विजय किया।कैसे विजय किया? यह जाना आपने अपने आपको कि यह मैं द्रव्येंद्रिय से भी निराला, भावेंद्रिय से भी निराला केवल ज्ञानस्वरूप हूँ। यों केवल ज्ञानस्वरूप का आलंबन लिया, इन इंद्रियों पर विजय किया। हे प्रभो !आप फिर जितमोह बने। मोह विकल्प विचार इन सब तरंगों से निराला केवल ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभवा। हे प्रभो !आप फिर क्षीणमोह हुए। इस ही अपने आपके स्वरूप के आलंबन के सहारे आपका समस्त मोह गल गया। आप वीतराग और सर्वज्ञ हुए। यह गुणानुवाद, यह भगवंत देव की चर्चा अपने आपमें अपने आपको छूते हुए होना चाहिए। ऐसा मैं भी हो सकता हूँ, वही मेरा स्वरूप है। ऐसा अपने आपमें समन्वय कर जोड़कर जिनेंद्रदेव की भक्ति करते हैं। वहाँ भी क्या किया कि मन से आत्मा का अभ्यास किया। अब बाहिरी बात देखिये― जब बाहर में हमें कोई कार्य करना पड़ता है दूकान का, मकान का, कुटुंब का, समाज का तो वचन से करिये, काय से करिये, पर भीतर में यही मेरा स्वरूप है ऐसी लगन लगाकर न करिये। विरक्त बुद्धि उन बाह्य कार्यों में होना चाहिए और लगन आत्महित के कार्यों में होना चाहिए।
अपनी सुध― भैया ! अपने आपकी सुध जितनी बार आये, जितने क्षण आये उसमें अपनी भलाई है। गृहस्थ अथवा साधु दोनों की भलाई इसी में है कि अधिक से अधिक बार अपने निर्लेप स्वरूप की सुध आती रहे। यही धर्मपालन है। धर्म ही जीव का शरण है। धर्म बिना इस जीव का कहीं कुछ भी पूरा नहीं पड़ता, क्योंकि संसार का स्वरूप ही ऐसा है। धम्र से रहित हो, संकल्प विकल्प विषयकषायों में अपने आपको बसाये तो वहाँ नियम से कर्मबंधन है। जीव के मलिन परिणामों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें कर्मरूप स्वयं परिणम जाती हैं। यहाँ यह बात न चलेगी कि मुझे कोई जानता नहीं, अकेला ही हूँ, मेरे कर्म कैसे बँधेंगे? अरे लोग जाने अथवा न जानें, पर कर्म का तो ऐसा ही स्वभाव है कि जहाँशुभ अशुभ संकल्प विकल्प, हर्षविषाद, रागद्वेष के परिणाम हुए वहाँ ये कर्म कर्मरूप बन जाते हैं।
विधान और स्वरूप― देखिये कर्म को कोई खबर नहीं है। कर्म में कोई चेतना नहीं है, मगर ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध ही है कि विभावपरिणमन होने से कर्मबंध होता है और कर्मोदय होने पर दु:खी होते है। छत के ऊपर के पत्थर गर्म हो ताते हैं। न पत्थर को यह खबर है कि अब सूर्य चढ आया है, हमें गरम होना चाहिए और न इस सूर्य को। पृथ्वीकाय के विमान को इतनी खबर है कि मेरे सामने अब यह पत्थर आया है। मुझे इसे गर्म कर देना चाहिए। लेकिन देख लो कभी किसी बात में कोई अंतर नहीं आता। रोज-रोज तकते हैं, ऐसा होने पर भी सूर्य सूर्य की जगह है। पत्थर पत्थर की जगह है। सूर्य का सन्निधान पाकर पत्थर गर्म होता है तो सूर्य की परिणति लेकर नहीं, केवल अपने आपकी शीत परिणति को त्यागकर उष्ण-परिणति में आया है। स्वतंत्रता भी देखिये पूरे तोर से और निमित्तनैमित्तिक संबंध का भी निर्णय कीजिए अच्छे ढंग से, इन दोनों का विरोध नहीं है कि निमित्तनैमित्तिक संबंध ज्ञात हो तो स्वतंत्रता नष्ट हो जायगी। और ऐसा भी नहीं है अगर हम स्वतंत्रता मान ले पदाथ्र में तो निमित्तनैमित्तिक संबंध नष्ट हो जायगा। और थोड़ी देर को यह समझ लीजिए कि एक बार निर्णय में आ गया निमित्तनैमित्तिक भाव, पर उसे हमें हृदय में बारबार अटकाना तो नहीं है। हमारा काम, हमारा मार्ग तो हमारे उपादान में, हमारे आत्मा में, स्वतंत्रता के अवलोकन में, केवल एक चैतन्यस्वरूप के दर्शन में है। आत्महित की बात तो अपने आपके एकत्व में है, द्वैतभाव में नहीं है, अद्वैतभाव में है। अपने आपको अपने आपमें एक अभेदरूप से ग्रहण करिये।
पर में आत्मा का अलाभ― मैं एक अकिंचन हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है। यदि कुछ हो अपनातो बतावो। अपने आत्मा को शांति देने लायक कोई भी परपदार्थ हो तो बतावो? आत्मा को शांति तो अपने आपके विशुद्ध तत्त्व रस से हो सकती है। अपने एकत्व स्वरूप को देखो― सभी जीव असहाय हैं, सभी अपने-अपने जिम्मेदार हैं। कोई किसी की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। कितना भी प्रेम हो पिता पुत्र आदिक का जैसा, फिर भी पदार्थ अपनी ही करनी से, अपने ही भाग्य से, अपने ही परिणाम से अपने आपमें सब कुछ पाता रहता है। सभी अपने आपमें अपना परिणमन करते रहते हैं। कोई किसी का सहाय नहीं है। और लोक में कुछ सहाय भी समझते हैं तो क्या वहाँ कि जब तक किसी जीव का किसी अन्य जीव के बर्ताव के कारण कुछ सुख मिलता हो, कुछ स्वार्थ साधता हो, मन के अनुकूल बात बनती हो तो वह सेवा करने में प्रवृत्त होता है। वस्तुत: तो सभी अपने-अपने कषाय भाव में, ज्ञान भाव में परिणम रहे हैं। किसी का किसी अन्य के साथ संबंध नहीं है।
निर्विकल्पता के आदर की उपादेयता―हे आत्महितेच्छु, पर से निर्लेप असंग केवल निज ज्ञानानंदमात्र अपने आपको निरखिये और बिना घबडाहट, बिना संदेह के इस आत्मस्वरूप में मग्न होइये। बीच-बीच में बहुत ख्याल आयेंगे। अभी हमारी कच्ची गृहस्थी है, बच्चे छोटे हैं, सबको हम ही तो पालते हैं। यदि में निर्विकल्प बन जाऊँगा तो क्या हाल होगा? यों दया से दया निर्विकल्प न बनना चाहिए? अरे बन न पायेंगे अभी गृहस्थावस्था में, पर उत्साह यों रखना चाहिए कि यदि निर्विकल्पता आ जाय तो फिर हमारे लिए दु:ख का कोई काम न रहा दूसरे जीव का, परिवार का। फिर मेरा परिवार क्या? फिर मेरा संबंध क्या? यों अनंत जीव हैं और फिर वे अपने-अपने कर्मानुसार अपना-अपना लाभ लेते ही हैं। यों जानकर धर्मपालन के समय पर से निर्लेप केवल ज्ञानानंदरस निर्भर अपने आपके अंतस्तत्त्व का निर्णय, इसका ही यत्न हर प्रसंग में करिये, यही धर्म का पालन है। और इस ही धर्म की सिद्धि के लिए बाहर में अपने अनेक कर्तव्य निभाये जाते हैं।